यदि जस्टिस लोया प्रकरण से बात प्रारंभ करें, तो इसमें भी कांग्रेस की भरपूर फजीहत हुई थी। राहुल गांधी अनेक सांसद को लेकर राष्ट्रपति के यहां पहुंच गए थे। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इस मुहिम को राजनीति से प्रेरित बताया था। बेहतर होता कि कांग्रेस इसके बाद मर्यादा का परिचय देती। लेकिन, कुछ समय बाद उसने संभावनाओ के आधार पर मुख्य न्यायाधीश को हटाने का प्रस्ताव बना लिया। इसमें भी फजीहत हुई।
प्रधान न्यायाधीश को हटाने के प्रस्ताव संबन्धी कांग्रेस की याचिका उसके वापस लेने के अनुरोध के बाद खारिज हुई। इसके सूत्रधार कपिल सिब्बल अब क्या करेंगे, यह देखने के लिए इंतजार करना होगा। लेकिन, इस प्रकरण के प्रत्येक कदम पर कांग्रेस की फजीहत हुई है। सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश पर कदाचार का कोई आरोप नहीं था। इन आरोपों के अलावा किसी स्थिति में संविधान किसी न्यायाधीश को हटाने की इजाजत नहीं देता। ऐसे में, उनको हटाने के कांग्रेसी अभियान में कोई दम नहीं था। लेकिन, कांग्रेस ने इस पर भी राजनीति करने में संकोच नहीं किया।
कांग्रेस की इस मुहिम के कर्णधार कपिल सिब्बल ने संविधान पीठ के मुद्दे पर याचिका वापस ली थी। उन्होंने संविधान पीठ को मामला सौंपे जाने पर सवाल उठाए थे। इस निर्णय की प्रति मांगी थी। प्रधान न्यायाधीश से संबंधित मामला था। इस कारण प्रधान न्यायाधीश ने जस्टिस ए के सीकरी को रोस्टर निर्धारित करने की शक्ति दी थी। याचिका संविधान पीठ को सौपने का आदेश जस्टिस सीकरी ने ही दिया था।
यह ठीक है कि वरिष्ठता क्रम में जस्टिस चेलमेश्वर, रंजन गोगोई, मदन लोकुर और कुरियन जोसेफ ऊपर थे। लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि ये लोग प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ प्रेस कांफ्रेंस भी कर चुके हैं। ऐसे में, प्रधान न्यायाधीश से संबंधित मसला इनको देना ठीक नहीं था। इसके बाद जस्टिस सीकरी का स्थान था। उनकी पीठ में चार अन्य न्यायाधीश थे, जिनका स्थान वरिष्ठता क्रम में उनके बाद था। पीठ के गठन की सूचना समय से वेबसाइट पर डाल दी गई थी।
परन्तु, कांग्रेस इसके प्रति गंभीर ही नही थी। यह बात अटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल की दलील से भी जाहिर होती है। उनका कहना था कि याचिका की विचारणीयता शक के दायरे में है। क्योंकि, इसे कांग्रेस के मात्र दो सांसदों ने चुनौती दी है। जबकि मूल प्रस्ताव पर चौंसठ सांसदों ने हस्ताक्षर किए थे।
यह समझ से परे है कि कांग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका के लिए वरिष्ठ सांसदों को आगे क्यों नहीं किया। शायद दिग्गज जानते थे कि इस याचिका से फजीहत होगी। इसलिए उन्होंने बाजवा और याज्ञनिक जैसे लो प्रोफ़ाइल सांसदों को आगे किया। मात्र दो सांसदों की याचिका का एक अन्य सन्देश भी था। मतलब छह पार्टियों के बासठ सांसदों को राज्यसभा सभापति के निर्णय पर कोई आपत्ति नहीं थी। सभापति वेंकैया नायडू ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया था। उन्होंने खारिज करने के बीस कारणों का उल्लेख भी किया था।
कपिल सिब्बल ने उस प्रशासनिक आदेश को दिखाने की मांग की थी, जिसके तहत इस मामले में संविधान पीठ का गठन हुआ। सिब्बल प्रशासनिक आदेश की वैधता को ही चुनौती दे रहे थे। यह मसले को अधिक खींचने और विवादित बनाने का प्रयास हो सकता था। संविधान पीठ द्वारा आदेश दिखाने से इनकार के बाद सिब्बल द्वारा याचिका वापस लेने का अनुरोध किया गया, जिसे मानते हुए बेंच ने मामले को निरस्त कर दिया।
इस बेंच में जस्टिस एके सीकरी, एसए बोबड़े, एनवी रमन्ना, अरुण मिश्रा और एके गोयल शामिल थे। ये सभी जज वरिष्ठता में नंबर छह से नंबर दस तक के शामिल हुए। लेकिन, जब दो से पांच वली वरिष्ठता के नाम देखते है, तो स्थिति स्पष्ट हो जाती है। जो निर्णय हुआ, वह न्याय की मूल अवधारणा के अनुकूल था। विशेष महत्व के मामलों पर संविधान पीठ द्वारा सुनवाई की जाती है। इस मसले पर जो पीठ बनी उसमें भी सभी वरिष्ठ और विद्वान न्यायाधीश शामिल थे। वरिष्ठता क्रम में बदलाव उचित और अपरिहार्य लगता है।
कुछ भी हो, न्यायपालिका का सम्मान होना चाहिए। कांग्रेस के कतिपय विद्वान और चर्चित विधि विशेषज्ञों ने इस मसले के प्रत्येक स्तर पर फजीहत कराई है। यदि जस्टिस लोया प्रकरण से बात प्रारंभ करें, तो इसमें भी कांग्रेस की फजीहत शुरू हुई थी। राहुल गांधी अनेक सांसद को लेकर राष्ट्रपति के यहां पहुंच गए थे। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इस मुहिम को राजनीति से प्रेरित बताया था। बेहतर होता कि कांग्रेस इसके बाद मर्यादा का परिचय देती। लेकिन, कुछ समय बाद उसने संभावनाओ के आधार पर मुख्य न्यायाधीश को हटाने का प्रस्ताव बना लिया। इसमें भी फजीहत हुई।
देखा जा तो नियम यह है कि प्रमाणित आरोप पर ही किसी जज को हटाने की प्रक्रिया शुरू हो सकती है। अगली फजीहत तब हुई, जब कांग्रेस के कदम का अधिकांश दलों ने समर्थन नहीं किया। इसके बाद राज्यसभा के सभापति ने इसे संविधान विरोधी मान कर खारिज कर दिया। इसके बाद कांग्रेस को चुप बैठ जाना चाहिए था। लेकिन, फजीहत अभी बाकी थी। सुप्रीम कोर्ट ने भी याचिका खारिज कर दी। अब कांग्रेस हाईकमान को विचार करना होगा कि उसे इस व्यर्थ और आधारहीन कवायद से क्या हासिल हुआ।
(लेखक हिन्दू पीजी कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)