उमेश चतुर्वेदी
दुनिया में लोकतांत्रिक सोच और शासन प्रणाली की जहां से शुरूआत मानी जाती है, उसी वैशाली के आदि गणतंत्र का बुनियादी आधार जन कल्याण के प्रति निष्ठा ही थी। चूंकि यह निष्ठा वैचारिक प्रखरता के बिना पुष्ट नहीं हो सकती और अपने लक्ष्यों को हासिल नहीं कर सकती, लिहाजा राजनीति के लिए विचारवान और वैचारिक धारा के प्रति निष्ठावान होना जरूरी समझा गया। चूंकि लोकतंत्र सामूहिकता को ही प्रश्रय देता है, लिहाजा लोकतांत्रिक समाज में जनकल्याणकारी शक्तियों को जोड़ने का माध्यम विचारधाराएं, सिद्धांत, नैतिकता और मर्यादा पर जोर दिया गया। मौजूदा भारतीय लोकतंत्र ने जिन नैतिक और मर्यादित मूल्यों को अपना मूल आधार बनाया है, उस पर गांधी की सोच का ही ज्यादा असर है। लेकिन उसी गांधी ने आजादी के आंदोलन में जिस कांग्रेस की अगुआई की और देश को स्वतंत्र कराया, उसी कांग्रेस की पश्चिम बंगाल की इकाई का अपने ही विधायकों पर नैतिक और मर्यादित भरोसा नहीं रहा। शायद यही वजह है कि उसने हालिया विधानसभा चुनावों में जीत कर आए अपने सभी विधायकों से सौ रूपए के स्टांप पेपर पर यह बांड भरवा रही है कि वे यानी विधायक कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी के प्रति निष्ठावान रहेंगे।
दो पेज के इस स्टाम्प पेपर के पहले प्वाइंट में लिखा हुआ है, मैं बिना किसी शर्त के इंडियन नेशनल कांग्रेस के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करता हूं, जिसे अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी के द्वारा संचालित किया जा रहा है। जबकि दूसरा प्वाइंट है, विधान सभा का हिस्सा होते हुए मैं पार्टी के खिलाफ हो रही किसी भी गतिविधि में शामिल नहीं रहूंगा। मैं पार्टी के खिलाफ कोई भी नकारात्मक बात भी नहीं कहूंगा। ऐसे किसी काम को करने की जरूरत लगने पर मैं पहले ही अपने पद से इस्तीफा दे दूंगा। ये दोनों ही बिंदु और यह पूरी प्रक्रिया ही भारतीय राजनीति में मजाक का पात्र बनी हुई है। मीडिया और राजनीतिक दलों के गलियारों में पश्चिम बंगाल कांग्रेस की इस कहानी का मजाक उड़ाया जा रहा है। इस बांड को भरवाने के लिए अभी तक कोई ऐसी सूचना नहीं आई है कि इसके पीछे कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व का हाथ है। निश्चित तौर पर इसके पीछे कांग्रेस के स्थानीय नेतृत्व का ही हाथ हो सकता है। हालांकि इस मसले पर विवाद बढ़ने के बाद राज्य कांग्रेस के अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी को सफाई देनी पड़ी कि यह बांड खुद विधायक भर कर दे रहे हैं और उन पर ऐसा करने का कोई दबाव नहीं है। इतना ही नहीं, चौधरी का यह भी कहना है कि अगर विधायक ऐसा नहीं करते तो उन पर कोई कार्रवाई भी नहीं होगी।
लेकिन सवाल है कि जब राज्य नेतृत्व ने इसकी पहल की ही नहीं तो इसकी जरूरत ही क्यों पड़ी। भारतीय राजनीति में मर्यादा और नैतिकता की गहरी परंपरा का दावा करने वाली पार्टी के राज्य नेतृत्व ने इसे रोका क्यों नहीं। अगर राज्य नेतृत्व को डर हो कि अगले पांच साल तक सत्ता से दूर रहने की आशंकित मायूसी के चलते कहीं उसके विधायक टूट न जाएं तो उसने यह बांड भरवा लिया। लेकिन सवाल यह है कि मर्यादा और नैतिकता को कई ताक पर रखना ही चाहेगा तो क्या यह बांड उसे ऐसा करने से रोक पाएगा। दूसरा सवाल यह भी है कि दल बदल निरोधक कानून उसी कांग्रेस के अगुआ रहे राजीव गांधी ने अपने शासन काल में पास कराया था। जब वह कानून भी नेताओं को अपनी दलीय और वैचारिक निष्ठाएं बदलने से रोक नहीं पाया तो क्या यह सौ रूपए का बांड, जिसका कोई कानूनी आधार भी नहीं है, विधायकों को रोक पाएगा। निश्चित तौर पर इस सवाल का जवाब ना में है। जब इस सवाल का जवाब ही नकारात्मक है, तब यह सवाल जरूर उठेगा कि फिर यह बांड भरवाया ही क्यों जाए।
मौजूदा लोकतंत्र में चूंकि राजनीति वैचारिकता के मुलम्मे में दलीय व्यवस्था तक ही केंद्रित हो गई है। इसलिए हर दल के सदस्यों से उम्मीद की जाती है कि वह अपनी दलीय निष्ठाओं से ही जुड़ा रहे। जब तक नेतृत्व दल की वैचरिकता के इर्द-गिर्द ही रहता है और उसकी निष्ठाएं अपने सैद्धांतिक आधार तक ही केंद्रित रहती हैं, तब तक दल का कार्यकर्ता भी दल की वैचारिकता और सिद्धांतों के प्रति निष्ठावान रहता है। लेकिन जैसे ही दलीय नेतृत्व की निष्ठाएं वैचारिकता की धार से इधर-उधर होने लगती हैं, उस खास दल के कार्यकर्ताओं की निष्ठाएं भी डोलने लगती हैं। उपरी तौर पर राजनीति और उसे चलाने वाले राजनेता भले ही इसे प्रोफेशन ना मानें और सेवाकार्य का ही जरिया बताते रहें, लेकिन हकीकत यही है कि अब राजनीति सिर्फ सत्ता का साधन हो गई है। दलीय सिद्धांत भी लोकतंत्र में जीत को ही अपना साध्य मान बैठे हैं और उन्हें लगता है कि सिर्फ सत्ता के जरिए ही जनसेवा का कार्य हो सकता है। बात यहां तक भी होती तो गनीमत होती। लेकिन अब सत्ता तंत्र को साधने के लिए राजनीतिक दल भी अपनी रणनीति कारपोरेट की तरह व्यवहार करने लगे हैं। जहां नेतृत्व के उभरने का बुनियादी आधार चुनाव और नीचे से उपर तक जाना होना चाहिए था, वहां अब नेतृत्व थोपा जाने लगा है। दलों के अध्यक्ष किसी कारपोरेट कंपनी के सीईओ की तरह व्यवहार करने लगे हैं। जाहिर है कि जब शीर्ष नेतृत्व ऐसा व्यवहार करेगा तो उसके कार्यकर्ताओं से कर्मचारियों की तरह व्यवहार की उम्मीद भी की जाएगी। कारपोरेट कंपनियां आज अपने यहां ज्वाइन करने वाले कर्मचारियों से दो या तीन साल का बांड भरवाती हैं कि उस अवधि तक वे कंपनी को नहीं छोड़ेंगे। जब राजनीति भी उसी ढर्रे पर चल रही हो तो फिर उसके विधायकों और सांसदों से ऐसे बांड भरवाए ही जाएंगे। बेशक आज पश्चिम बंगाल कांग्रेस की आलोचना हो रही है, लेकिन जिस तरह ऐसे कदमों की शुरू में आलोचना करने वाले भी बाद में खुद के यहां भी ऐसे ही नियम-कायदे अख्तियार कर लेते हैं, भारतीय राजनीति देर-सवेर इसे अपना भी लेगी और इसे लोकतांत्रिक होने का सैद्धांतिक जामा भी पहना देगी।
चूंकि कांग्रेस इस देश की पुरानी पार्टी है, भारतीय राजनीतिक लोकवृत्त में मौजूदा जो भी मूल्य हैं, उसमें से ज्यादातर के विकसित करने में उसका कहीं ज्यादा योगदान रहा है। इसलिए कम से कम उससे बांड भरवाने वाली शुरूआत की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। अगर वह आलोचना और मजाक के केंद्र में है भी तो इसकी बड़ी वजह यही है। बेशक इस कदम से कांग्रेस की पश्चिम बंगाल इकाई का अपने विधायकों के टूट जाने का आशंकित भय भी सामने आया है। लेकिन उसे यह भी मानना चाहिए कि दुनिया चाहे कितनी बदल जाए। उदारीकरण की तरफ चाहे कितनी भी आगे चली जाए, अपने लोगों के टूट जाने की आशंकाओं का भय दूर करने का एक ही जरिया हो सकता है। सार्वजनिक जीवन में नैतिकता और मर्यादा की स्थापना के ही जरिए ऐसी आशंकाओं को परे रखा जा सकता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या मौजूदा सत्ता तंत्र की लड़ाई में लगातार पिछड़ती जा रही कांग्रेस भारत के ही आदि लोकतंत्र की इस स्थापनाओं की तरफ ध्यान देगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)