महात्मा गांधी ने कहा था कि आजादी के बाद कांग्रेस को खत्म हो जाना चाहिए क्योंकि उसका जो उद्देश्य (देश की आजादी) था, वह पूरा हो चुका है। लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि सत्तालोभी नेहरू नहीं चाहते थे कि ऐसा हो। नेहरू ने न सिर्फ कांग्रेस को बनाए रखा बल्कि कांग्रेसी सरकारों को “माई-बाप” बना दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि जनता अब अपनी छोटी-मोटी जरूरतों के लिए भी सरकार का मुंह देखने लगी। इस प्रकार सरकार की ताकत बढ़ी और समाज की घटी।
रोजगार पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पकौड़े के उदाहरण वाले बयान पर संसद से सड़क तक सियासत जारी है। कोई पकौड़े तल रहा है, तो कोई रेहड़ी पर पकौड़ा बेचकर अपनी सूखती राजनीति को पानी देने की कवायद में जुटा है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी पकौड़ा ब्रेक ले रहे हैं। लेकिन, सबसे बड़ी बात यह है कि विपक्ष का कोई नुमाइंदा यह नहीं बता रहा है कि बेरोजगारी की समस्या ने इतना विकराल रूप कैसे धारण कर लिया? देखा जाए तो इसकी जड़ें आजादी के बाद शुरू हुई वोट बैंक की राजनीति में निहित हैं।
महात्मा गांधी ने कहा था कि आजादी के बाद कांग्रेस को खत्म हो जाना चाहिए क्योंकि उसका जो उद्देश्य (देश की आजादी) था, वह पूरा हो चुका है। लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि सत्ता लोभी नेहरू नहीं चाहते थे कि ऐसा हो। नेहरू ने न सिर्फ कांग्रेस को बनाए रखा बल्कि कांग्रेसी सरकारों को “माई-बाप” बना दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि जनता अब अपनी छोटी-मोटी जरूरतों के लिए भी सरकार का मुंह देखने लगी। इस प्रकार सरकार की ताकत बढ़ी और समाज की घटी।
नेहरू इस कड़वी हकीकत को जानते थे कि कोई भी सरकार हो, वह जनता की हर समस्या का समाधान नहीं कर सकती। इसीलिए उन्होंने वोट बैंक की राजनीति का आगाज करते हुए कभी सेकुलर मार्च निकाला तो कभी लाइसेंस-परमिट राज को बढ़ावा दिया। इस प्रकार जनता का ध्यान बंटाने में वे कामयाब रहे। नेहरू युगीन भारत में संख्या बल में तो नहीं, लेकिन वैचारिक रूप से विपक्ष बहुत सशक्त था, इसलिए वोट बैंक की राजनीति सीमित अर्थों में ही चली।
नेहरू के बाद इंदिरा गांधी ने वोट बैंक की राजनीति को नया आयाम दिया। जाति,धर्म, क्षेत्र, भाषा आदि के नाम पर खुलकर राजनीति की जाने लगी। इस विघटनकारी नीति का जिसने भी विरोध किया उसे ठिकाने लगाने में तनिक भी देर नहीं की गई। नीतिशून्य राजनीति के इस दौर में जन-असंतोष न पनपे इसके लिए गरीबी हटाओ, काम के बदले अनाज योजना जैसी लोकलुभावन योजनाएं बनीं, लेकिन इस बात पर ध्यान नहीं दिया गया कि गरीबी आखिर बढ़ती क्यों जा रही है।
इंदिरा गांधी के बाद भी यह नीति जारी रही और गठबंधन राजनीति के दौर में इसने एक समस्या का रूप ले लिया। इस दौरान सांप्रदायिकता और आरक्षण की जादुई छड़ी सत्ता हासिल करने का सबसे आसान जरिया बन गयी। इस विघटनकारी राजनीति का नतीजा यह हुआ कि देश में गरीबी, बेकारी, असमानता, अशिक्षा, बीमारी, धर्मांधता, अपराधीकरण, अलगाववाद, आतंकवाद की फसल लहलहाने लगी। यह कुप्रवृत्ति हिंदी भाषी प्रांतों में कुछ ज्यादा ही रही। आज चपरासी की कुछ सौ नौकरियों के लिए लाखों उच्च शिक्षित युवा लाइन लगा लेते हैं, तो यह वोट बैंक की राजनीति की ही देन है।
सरकार को माई-बाप मानने की कुप्रवृत्ति का नतीजा यह हुआ कि कुछेक राज्यों को छोड़कर देश में उद्यमशीलता का वातावरण विकसित नहीं हो पाया। आज जो लोग पकौड़ा राजनीति कर रहे हैं, वे नहीं चाहते कि देश में उद्यमशीलता का वातावरण बने क्योंकि इससे उनकी राजनीतिक दुकान बंद हो जाएगी। जो कांग्रेसी कभी नरेंद्र मोदी को कांग्रेस दफ्तर में चाय बेचकर रोजगार पाने का सुझाव दे रहे थे, वही कांग्रेसी आज पकौड़ा बेचने को शर्म की संज्ञा दे रहे हैं।
कांग्रेसियों को यह देखना चाहिए कि पकौड़े बेचकर अरबपति बनने वाले भारतीयों की कमी नहीं है। देश विभाजन के समय करोड़ों लोग अपना जमा-जमाया करोबार छोड़कर शरणार्थी के रूप में खाली हाथ आए लेकिन आज अपने परिश्रम के बल पर ऊंचा मुकाम हासिल कर चुके हैं। जिस आरक्षण को दलितोद्धार का सशक्त हथियार बताया जाता है, उसको झुठलाते हुए महज दो रूपये की दिहाड़ी कमाने वाली दलित महिला कल्पना सरोज ने पांच सौ करोड़ की कंपनी खड़ी कर दी। इसी तरह के लाखों उदाहरण हैं, जहां पकौड़े बेचने जैसे छोटे-मोटे काम करते हुए उद्यमशील लोगों ने रिश्वतखोरी, रंगदारी, भ्रष्टाचार के बावजूद अपना मुकाम बनाया और आज रोजगार मांगने नहीं, बल्कि रोजगार देने वाले बन चुके हैं।
पकौड़ा राजनीति को आइना दिखाने के लिए यहां दो उदाहरण पर्याप्त होंगे। पहला उदाहरण भारतीय मूल के पाठक परिवार का है। कीनिया के तानाशाही अत्याचार से पीड़ित होकर जब यह परिवार लंदन भागा था, तब उसकी जेब में महज पांच सेंट (500रूपये) थे। उस समय एलजी पाठक और उनकी पत्नी शांता कैमडिन (लंदन) की सड़कों पर समोसा बेचकर भरण-पोषण करते थे। गलियों में समोसे बेचने से शुरू हुई पाठक परिवार की कहानी आज “पाठक्स” नामक कंपनी बन चुकी है। यह कंपनी दुनिया की सबसे बड़ी फूड कंपनियों में से एक है जो विश्व भर में फैले भारतीय रेस्टोरेंट्स में अचार, चटनी और मसाला सप्लाई करती है। आज इस कंपनी में दो हजार लोग काम करते हैं।
दूसरा उदाहरण निरमा वाशिंग पाउडर के निर्माता करसन भाई पटेल का है। जब हिंदुस्तान लीवर लिमिटेड के सर्फ का डंका बज रहा था, उस समय करसन भाई ने घर के आंगन से निरमा पाउडर बनाना शुरू किया। इसे वे साइकिल से घर-घर ले जाकर 3 रूपये किलो इस गारंटी के साथ बेचते थे कि यदि काम न बना तो पैसे वापस। करसन भाई की वह शुरूआत आज 7000 करोड़ रूपये की निरमा इंडस्ट्रीज में बदल चुकी है, जिसमें 18000 लोग काम काम करते हैं।
समग्रत: मोदी सरकार रोजगार के स्वरूप को बदल रही है ताकि रोजगार मांगने वाले रोजगार देने वाले बन सकें। यहां मुद्रा योजना का उल्लेख प्रासंगिक है। प्रधानमंत्री मुद्रा योजना के तहत अब तक 4 लाख करोड़ रूपये का लोन बांटा गया जिससे 10 करोड़ लोगों को रोजगार मिला। इनमें से पहली बार लोन लेने वाले 3 करोड़ लोग हैं।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)