सामान्य स्थिति में विपक्ष के सरकार पर हमले भी गँवारा होते हैं। लेकिन यह देखना चाहिए कि बात जब सीमाओं की सुरक्षा की हो, तब पार्टी लाइन कोई महत्व नहीं रखती। शत्रु पक्ष को यह दिखा देना होता है कि उसके खिलाफ पूरा देश एकजुट है। लेकिन कांग्रेस के लिये यह राष्ट्रीय सुरक्षा का नहीं, बल्कि राजनीति का समय था।
लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद राहुल गांधी ने कांग्रेस का अध्यक्ष पद छोड़ दिया था। लेकिन वह केवल अपनी जिम्मेदारी और जबाबदेही से हटे हैं, उनका शिकंजा पहले जैसा है। वह जो बोलते हैं, ऊपर से नीचे तक पार्टी उसी स्वर में बोलने लगती है और जब वो फँसते हैं, तो उनका बचाव करती है। स्वयं अंतरिम अध्य्क्ष सोनिया गांधी भी सर्वदलीय बैठक में उसी लाइन पर अमल करती हैं।
पिछले दिनों चीन के साथ भारत की झड़प हुई। हमारे जांबाज सैनिकों ने बलिदान देकर चीन के मंसूबों को विफल कर दिया। पूरा देश उनके प्रति कृतज्ञ था। राहुल गांधी बोले नरेंद्र मोदी ने सरेंडर कर दिया। वह सरेंडर मोदी हैं जबकि कहीं कोई सरेंडर नहीं हुआ।
चीन ने आगे बढ़ने का प्रयास किया होगा। हमारे सैनिकों ने रोक दिया। इसी में झड़प हुई। चीन ने एक हफ्ते बाद माना कि उसका अधिकारी व कई सैनिक मारे गए हैं। उसके चालीस सैनिकों के मारे जाने की बात तक सामने आई थी। ऐसे में, राहुल को बताना चाहिए कि सरेंडर हुआ कहाँ है?
क्या वह 1962 के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री का भी ऐसे नामकरण कर सकते हैं। क्या वे उस समय के लिए यह प्रश्न कर सकते हैं कि उसवक्त चीन के हाथों हमारी पराजय क्यों हो गयी? भारत की अक्साई चिन की जो जमीन चीन के हाथ में चली गयी उसके लिए राहुल किसको सरेंडर का नाम देंगे।
प्रजातंत्र में मतभेद स्वभाविक है। सरकार की आलोचना का विपक्ष को पूरा अधिकार होता है। फिर भी सबको यथासंभव साथ लेकर चलने की अपेक्षा सरकार से होती है। इसी भावना के अनुरूप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीते दिनों चीन संकट पर विचार हेतु सर्वदलीय बैठक बुलाई थी।
सामान्य स्थिति में विपक्ष के सरकार पर हमले भी गँवारा होते हैं। लेकिन यह देखना चाहिए कि बात जब सीमाओं की सुरक्षा की हो, तब पार्टी लाइन कोई महत्व नहीं रखती। शत्रु पक्ष को यह दिखा देना होता है कि उसके खिलाफ पूरा देश एकजुट है। कुछ प्रांतों में सत्तारूढ़ छोटी पार्टियों ने बड़प्पन दिखाया, उन्होंने संकट के समय चीन का विरोध और भारत सरकार को पुरजोर समर्थन दिया।
लेकिन कांग्रेस के लिये यह राष्ट्रीय सुरक्षा का नहीं, बल्कि राजनीति का समय था। उनके निशाने पर चीन नहीं, नरेंद्र मोदी और राजनाथ सिंह थे। वह जैसे देश के प्रधानमंत्री और रक्षामंत्री को ललकार रहे थे। उनके प्रवक्ता भी बोले कि सरकार ने सुध ली होती तो चीन कभी यह दुस्साहस नही कर सकता था। आश्चर्य होता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मसले पर कांग्रेस की यह शब्दावली थी।
कहने की जरूरत नहीं कि इससे शत्रु पक्ष को यह सन्देश पहुंच रहा था कि भारत में मुख्य विपक्षी पार्टी ही इस मुद्दे पर सरकार के साथ नहीं है। सरकार का विरोध होना चाहिए, लेकिन शत्रु मुल्क से तनाव की स्थिति हो तब उसके खिलाफ राष्ट्रीय सहमति की बुलंद अभिव्यक्ति होनी चाहिए। लेकिन कांग्रेस के सवाल केवल नरेंद्र मोदी व राजनाथ तक सीमित नहीं थे, वो ऐसे थे जिनका सेना पर भी अपरोक्ष रूप से प्रभाव पड़ सकता था। ऐसे बयानों से बचने की आवश्यकता थी। उस समय सभी को चीन के खिलाफ ही आवाज बुलंद करनी चाहिए थी।
इस सरकार ने प्रजातांत्रिक मान्यताओं के कारण ही इस विषय पर सर्वदलीय बैठक बुलाई थी। बेहतर यह होता कि इसके माध्यम से हमारी एकजुटता की गूंज चीन तक सुनाई देती। लेकिन कांग्रेस के कारण ऐसा नहीं हो सका।
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा कि सरकार बताए कि इस सारी स्थिति से निपटने के लिए भारत की सोच, नीति और समाधान क्या है। सोनिया गांधी को अपरोक्ष रूप से सरकार संबन्धी कार्यो की बहुत जानकारी है।
उनको यह पता होना चाहिए कि कोई सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े ऐसे मसले पर इस प्रकार के बेतुके प्रश्न का जवाब नहीं दे सकती क्योंकि इससे दुश्मन देश लाभ उठा सकता है। ऐसी रणनीति गोपनीय होती है। सैनिक कमांडरों से विचार विमर्श के बाद ही शायद उसका निर्धारण होता है। इसकी जानकारी सोनिया गांधी को मांगनी ही नहीं चाहिए थी।
लेकिन कांग्रेस तो जैसे संकल्प करके शामिल हुई थी कि उसे नरेंद्र मोदी पर सवाल उठाने हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तात्कालिक प्रयास व सैन्य कमांडरों से विचार करने के बाद अगले कदम के रूप में सर्वदलीय बैठक बुलाई थी। कांग्रेस को इस पर भी आपत्ति थी। कहा कि बैठक बुलाने में इतनी देर क्यों हुई। इनके हिसाब से उधर चीन से हिंसक झड़प हुई, इधर प्रधानमंत्री को सोनिया, राहुल और सुरजेवाला को विचार हेतु बुला लेना चाहिए था।
सोनिया गांधी ने कहा कि लद्दाख समेत कई जगह चीनी घुसपैठ की जानकारी सामने आई, तो उसके तुरंत बाद सर्वदलीय बैठक बुलानी चाहिए थी। समझ से परे है कि तब सोनिया और राहुल कौन सा रामबाण नुस्खा बता देते।
और तो और, उनका यह भी कहना था कि इसके बाद चीन से बातचीत का प्रयास क्यों नहीं किया गया। मतलब चीन पर विश्वास है, भारत पर नहीं, तनाव की शुरुआत चीन करे और भारत उसे मनाए। कांग्रेस को साफ करना चाहिए कि क्या चीन का हिंसक तेवर ठीक था और फिर बात करने का प्रयास ना करना भारत की गलती थी?
ऐसे बेतुके प्रश्न उठाने वाली कांग्रेस प्रायः अकेली थी। राहुल गांधी को तो जैसे कोई सही जानकारी देने वाला भी नहीं है। वह कह रहे थे कि सैनिकों को बिना हथियार के कैसे भेज दिया। इस प्रश्न से उनकी अज्ञानता उजागर हुई। सैनिकों के पास हथियार थे, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय समझौतों के चलते इस्तेमाल की मनाही थी।
इन सबके बाद अब जिस तरह से राजीव गांधी फाउंडेशन का प्रकरण सामने आया है और कांग्रेस का चीनी चंदे का कनेक्शन खुला है, उसने नए सवाल खड़े किए हैं। सवाल ये कि कहीं चीन के प्रति कांग्रेस के सुर में नरमी का कारण यह कनेक्शन ही तो नहीं था?
यह भी कि इस चंदे के बदले सोनिया द्वारा संचालित राजीव गांधी फाउंडेशन ने कौन-सा अध्ययन किया था? ऐसे सवालों के जवाब कांग्रेस को देने चाहिए क्योंकि भारत-चीन सीमा विवाद मामले में जिस तरह के बयान उसने दिए हैं, उसकी विश्वसनीयता पहले से ही संदिग्ध हो चुकी है।
अतः भारत-चीन मसले पर सरकार से बेमतलब के सवाल करने की बजाय पहले राजीव गांधी फाउंडेशन मामले में उठे सवालों का कांग्रेस को जवाब देना चाहिए। यह उसके लिए विश्वसनीयता का प्रश्न है।
फीचर फोटो साभार : Republicworld
(लेखक हिन्दू पीजी कॉलेज एसोसिएट प्रोफेसर हैं। स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)