सुरेश चिपलूनकर
कहते हैं कि “मुसीबत कभी अकेले नहीं आती, साथ में दो-चार संकट और लेकर आती है” । वर्तमान में कांग्रेस के साथ शायद यही हो रहा है। नेशनल हेराल्ड घोटाले का मामला न्यायालय में है और इटली के अगस्ता हेलीकॉप्टरों संबंधी घूस का मामला अभी ठंडा भी नहीं हुआ था कि पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव सिर पर आ धमके। कांग्रेस के राहुल गाँधी अभी छुट्टियों के मूड में आने ही वाले थे कि भीषण गर्मी में उन्हें पसीना बहाने के लिए मैदान में उतरना पड़ा। दिल्ली और बिहार के चुनाव नतीजों से उत्साहित कांग्रेस ने सोचा कि अभी ये मौका बढ़िया है, जिसके द्वारा देश में यह हवा फैलाई जा अलावा कांग्रेस की मदद के लिए जेएनयू का “जमूरा” कन्हैया और उसकी वामपंथी बैंड पार्टी देश में नकारात्मक माहौल बनाने में जुटी हुई ही थी। लेकिन जब उन्नीस मई को चुनाव परिणाम घोषित हुए तो उन राज्यों की जनता ने अपना फैसला सुना दिया था कि नरेंद्र मोदी के “कांग्रेस-मुक्त” भारत को उनका समर्थन एक कदम और आगे बढ़ चूका है। कांग्रेस को केरल और असम जैसे राज्यों में सत्ता से बेदखल होना पड़ा, जबकि तमिलनाडु एवं बंगाल में अगले बीस वर्ष में दूर-दूर तक सत्ता में आने के कोई संकेत नहीं मिले। सांत्वना पुरस्कार के रूप में पुदुच्चेरी विधानसभा में कांग्रेस-द्रमुक गठबंधन को पूर्ण बहुमत हासिल हो गया। कांग्रेस को इस सदमे की हालत में, सबसे तगड़ा वज्राघात लगा असम के नतीजों से। पिछले पंद्रह वर्ष से असम में गोगोई सरकार कायम थी, इसलिए कांग्रेस इस मुगालते में थी कि वहां चाहे जितनी भी बुरी स्थिति हो, वह चुनाव-पश्चात बदरुद्दीन अजमल जैसे घोर साम्प्रदायिक व्यक्ति की पार्टी से गठबंधन करके येन-केन-प्रकारेण सत्ता हासिल कर ही लेगी। लेकिन हाय री किस्मत… आसाम की जनता ने भाजपा को पूर्ण बहुमत देकर कांग्रेस के ज़ख्मों पर नमक मल दिया।
केरल में बढ़ा भाजपा का जनाधार
विधानसभा चुनावों से ठीक पहले सोलर घोटाले और सेक्स स्कैंडल में फंसे मुख्यमंत्री तथा अन्य मंत्रियों का भविष्य तो पहले से ही स्पष्ट दिखाई देने लगा था, परन्तु कांग्रेस ने सोचा कि चुनावों से ठीक पहले नेता बदलना पार्टी की एकता के लिए ठीक नहीं है। कांग्रेस की यह सोच उसके लिए बिलकुल उलट सिद्ध हुई। केरल की पढी-लिखी जनता, जो कि हर पांच साल में सत्ताधारी को बदल देती है, उसने ओमान चांदी को सत्ता से बेदखल करने का मूड बना लिया था। रही-सही कसर 93 वर्षीय “नौजवान” वीएस अच्युतानंदन ने धुआंधार प्रचार करके पूरी कर दी। इसके अलावा कांग्रेस का कुछ प्रतिशत सवर्ण हिन्दू वोट भी भाजपा ले उड़ी। कांग्रेस के कई नेता दबी ज़बान में यह स्वीकार करते हैं कि केरल में कांग्रेस के एक बड़े वोट बैंक में भाजपा ने जबरदस्त सेंध लगाई है। वाम मोर्चा को जहां एक तरफ समर्पित और हिंसक कैडर का लाभ मिला, वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस के भ्रष्टाचार और स्कैंडलों का भी फायदा हुआ।
केरल चुनावों में कोई सबसे अधिक फायदे में रहा, तो वह है भाजपा। जिस राज्य में आज तक भाजपा को एक भी सीट नहीं मिली थी, 2016 के इन चुनावों में वह बैरियर भी टूट गया और ओ. राजगोपाल के रूप में भाजपा के पहले विधायक ने वहां पार्टी का खाता खोल ही दिया। लगातार कई चुनाव हारने के बाद भी राजगोपाल ने हिम्मत नही हारी और अंततः वामपंथ की हिंसक गतिविधियों तथा RSS के दर्जनों स्वयंसेवकों की हत्याओं का खून रंग लाया और पार्टी ने अपना वोट प्रतिशत 4% से बढ़ाकर 14% कर लिया। हालांकि चुनाव परिणामों के बाद चैनलों को इंटरव्यू देते समय चांडी तथा पिनारेई विजयन ने भले ही यह दावा किया हो कि उन्होंने राज्य में भाजपा को एकदम किनारे कर दिया है, लेकिन वास्तविकता में आंकड़े कुछ और ही कहते हैं। चांडी और विजयन के खोखले दावों के विपरीत आंकड़े यह बताते हैं कि केरल में 14.4% वोट प्रतिशत के साथ प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में भाजपा और इसके सहयोगी तीसरे क्रमांक पर रहे हैं। 2011 के विधानसभा चुनावों के मुकाबले लगभग पचास विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा ने अपना वोट शेयर कहीं-कहीं दोगुना-तिगुना-चौगुना तक कर लिया है। पलक्कड इलाके की मलमपुझा विधानसभा सीट जिसे संभावित मुख्यमंत्री अच्युतानंदन ने जीता, वहां पर भाजपा उम्मीदवार सी.कृष्णकुमार को 46157 वोट मिले और वह दुसरे स्थान पर रहे, जबकि 2011 के चुनावों में यहाँ भाजपा उम्मीदवार को 2000 वोट ही मिले थे। त्रिवेंद्रम सीट पर भाजपा के उम्मीदवार क्रिकेटर श्रीसंत को 37764 वोट मिले और वे तीसरे स्थान पर रहे जबकि इस सीट पर हार-जीत का अंतर सिर्फ एक हजार वोट का रहा। कोल्लम जिले की चथान्नूर सीट पर भाजपा उम्मीदवार 33199 वोट लेकर वामपंथी उम्मीदवार से हारे और दुसरे नंबर पर रहे, यहाँ भी कांग्रेस तीसरे नंबर पर रही। 2011 में इस सीट पर भाजपाई उम्मीदवार को सिर्फ 3824 वोट मिले थे, यानी सीधे दस गुना बढ़ोतरी।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं )