गांधी-नेहरू परिवार के वर्चस्व का ही नतीजा है कि पिछले 20 साल में कांग्रेस में केवल दो अध्यक्ष रहे। कांग्रेस कार्यसमिति के चुनाव 1997 के बाद से नहीं हुए हैं। मई 2019 के बाद से कांग्रेस का कोई स्थायी अध्यक्ष नहीं है। यही कारण है कि कांग्रेसियों में हताशा व्याप्त है।
हेमंत विश्वसर्मा, डॉ. अजय कुमार, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट, मिलिंद देवड़ा, कुलदीप विश्नोई जैसे युवा नेता आज किस पार्टी में हैं, इसे छोड़ दिया जाए तो इनकी पहचान जनाधार वाले कांग्रेसी नेताओं की रही है।
इसी तरह सैकड़ों नेता हैं जो कांग्रेस के जनाधारविहीन बुजुर्ग नेताओं के कारण कांग्रेस को छोड़ चुके हैं या उपेक्षित पड़े हैं। अनुच्छेद-370 हटाने, तीन तलाक पर प्रतिबंध, बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक, मोदी सरकार की विदेश नीति जैसे अहम मसलों पर इन नेताओं ने कांग्रेस पार्टी की विचारधारा से अलग हटकर राष्ट्रीय हित में अपने विचार व्यक्त किए थे।
कांग्रेस के बुजुर्ग नेता जनभावनाओं की जगह गांधी-नेहरू-वाड्रा परिवार का ध्यान रख रहे हैं, इसी का नतीजा है कि पार्टी का वोट प्रतिशत गिरता जा रहा है। आजादी के बाद कांग्रेस औसतन 45 प्रतिशत वोट पाकर सत्ता पर काबिज होती रही।
1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के तुरंत बाद हुए आम चुनाव में कांग्रेस को सबसे ज्यादा 48.1 प्रतिशत वोट मिले थे। उसके बाद से लगातार कांग्रेस का वोट प्रतिशत गिरता गया। 1998 तक कांग्रेस का वोट प्रतिशत गिरकर 25.8 पर आ चुका था। इस प्रकार उसके करीब आधे समर्थक छिटक चुके थे। 2009 में कांग्रेस के वोट प्रतिशत में थोड़ा सुधार हुआ और वह बढ़कर 28.5 प्रतिशत पहुंच गया।
2014 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेसी सरकार के भ्रष्टाचार और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी द्वारा सशक्त विकल्प प्रस्तुत करने से कांग्रेस के मत प्रतिशत में तेज गिरावट दर्ज की गई और यह घटकर मात्र 19.51 प्रतिशत रह गया।
इस दौरान कांग्रेस पार्टी से इतिहास में सबसे कम सांसद चुने गए। 2019 के लोक सभा चुनाव में भले ही कांग्रेसी सांसदों की संख्या में कुछेक की बढ़ोत्तरी हुई लेकिन वोट प्रतिशत 2014 में प्राप्त मत के आसपास ही बना रहा। उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, गुजरात और ओडिसा जैसे कई राज्य हैं जहां कांग्रेस दशकों से सत्ता से बाहर है। सत्ता से दूर रहने के कारण इन राज्यों में कांग्रेस संगठनात्मक रूप से बेहद कमजोर हो चुकी है।
गांधी-नेहरू परिवार के वर्चस्व का ही नतीजा है कि पिछले 20 साल में कांग्रेस में केवल दो अध्यक्ष रहे। कांग्रेस कार्यसमिति के चुनाव 1997 के बाद से नहीं हुए हैं। मई 2019 के बाद से कांग्रेस का कोई स्थायी अध्यक्ष नहीं है। यही कारण है कि कांग्रेसियों में हताशा व्याप्त है।
इसी हताशा को लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता और पश्चिम बंगाल से सांसद अधीर रंजन चौधरी ने व्यक्त किया। उनके अनुसार “कुछ युवा और महत्वाकांक्षी नेताओं को ऐसा लग रहा है कि निकट भविष्य में कांग्रेस पार्टी केंद्र की सत्ता में नहीं लौटेगी इसीलिए वे नेता पार्टी छोड़कर जा रहे हैं।” देखा जाए तो अधीर रंजन चौधरी ने कांग्रेस के पतन की कड़वी हकीकत बयां की है लेकिन गांधी-नेहरू परिवार के प्रति वफादारी के चलते पूरा सच नहीं बताया।
यह अधूरा सच अगले ही पल उनकी गांधी-नेहरू परिवार के प्रति वफादारी में व्यक्त हो गया। उनके मुताबिक “कांग्रेस में कई अच्छे नेता हैं पर उनमें गांधी परिवार के कद व करिश्मे की कमी है। गांधी परिवार में कांग्रेस को जोड़ रखने वाली ताकत है। पार्टी चाहती है कि गांधी परिवार ही उसे नेतृत्व प्रदान करे।” उनके इस कथन से स्पष्ट है कि फिलहाल कांग्रेस पार्टी गांधी-नेहरू-वाड्रा परिवार की गिरफ्त से बाहर निकलने वाली नहीं है।
कांग्रेस की परिवारवादी सोच को मणि शंकर अय्यर खुले आम स्वीकार करते हैं “कांग्रेस में जिनको रहना है उनके स्वीकार करना होगा कि गांधी-नेहरू-वाड्रा परिवार के बिना कांग्रेस का कोई अस्तित्व नहीं है।”
भले ही कांग्रेस पार्टी अपनी वफादारी के चलते गांधी-नेहरू-वाड्रा परिवार के साथ बंधी हुई है लेकिन देश की जनता अपना नेता चुनने के लिए आजाद है। जनता की यही आजादी 2014 और 2019 के लोक सभा चुनावों में दिखी है। स्पष्ट है, यदि कांग्रेस पार्टी में परिवारवाद और जनाधारविहीन बुजुर्गों का वर्चस्व बना रहा तो उसके जहाज का डूबना तय है।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)