देश देख रहा है कि जब बात इस देश के नागरिकों और गैर कानूनी रूप से यहाँ रहने वालों के हितों में से एक के हितों को चुनने की आती है, तो हमारे इन विपक्षी दलों को गैर कानूनी रूप से रहने वालों की चिंता अधिक सताने लगती है। देश देख रहा है कि ‘घुसपैठियों’ को यह विपक्षी दल ‘शरणार्थी’ कह कर उनके “मानवाधिकारों” की दुहाई दे रहे हैं, लेकिन अपने ही देश में शरणार्थी बनने को मजबूर कश्मीरी पंडितों का नाम भी आज तक अपनी जुबान पर नहीं लाए।
आज राजनीति प्रायः सत्ता हासिल करने मात्र की नीति बन कर रह गई है, उसका राज्य या फिर उसके नागरिकों के उत्थान से कोई लेना देना नहीं है। कम से कम असम में एनआरसी ड्राफ्ट जारी होने के बाद कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दलों की प्रतिक्रिया तो इसी बात को सिद्ध कर रही है। चाहे तृणमूल कांग्रेस हो या सपा, बसपा, जद-एस, तेलुगु देसम या फिर आम आदमी पार्टी।
“विनाश काले विपरीत बुद्धि:” शायद इसी कारण यह सभी विपक्षी दल इस बात को भी नहीं समझ पा रहे कि देश की सुरक्षा से जुड़े ऐसे गंभीर मुद्दे पर इस प्रकार अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकना भविष्य में उन्हें ही भारी पड़ने वाला है, क्योंकि उनकी इस प्रकार की बयानबाजी से देश के बीच केवल यही सन्देश जा रहा है कि अपने स्वार्थों को हासिल करने के लिए ये लोग देश की सुरक्षा को भी ताक पर रख सकते हैं।
आज जो काग्रेस असम में एनआरसी का विरोध कर रही है, वो सत्ता में रहते हुए पूरे देश में ही एनआरसी जैसी व्यवस्था चाहती थी। 2009 में, यूपीए सरकार में तत्कालीन गृहमंत्री चिदंबरम ने देश में होने वाली आतंकवादी गतिविधियों की रोकथाम के लिए इसी प्रकार की एक व्यवस्था की सिफारिश भी की थी। उन्होंने एनआरसी के ही समान एनपीआर अर्थात राष्ट्रीय जनसंख्या रिजिस्टर की कल्पना करते हुए 2011 तक देश के हर नागरिक को एक बहु उद्देश्यीय राष्ट्रीय पहचान पत्र दिए जाने का सुझाव दिया था ताकि देश में होने वाली आतंकवादी घटनाओं पर लगाम लग सके।
यही नहीं, इसी कांग्रेस ने 2004 में राज्य में 1.2 करोड़ अवैध बांग्लादेशी होने का अनुमान लगाया था। वह भी तब जब आज की तरह भारत में रोहिंग्या मुसलमानों की घुसपैठ नहीं हुई थी। लेकिन आज वही कांग्रेस उन लोगों के अधिकारों की बात कर रही है जो कि इस देश का नागरिक होने के लिए जरूरी दस्तावेज भी नहीं दे पाए।
कांग्रेस का यह आचरण न तो इस देश की सबसे पुरानी राजनैतिक पार्टी के नाते उचित है और न ही इस देश के एक जिम्मेदार विपक्षी दल के नाते। यह समस्या देश की सुरक्षा के लिहाज से बहुत ही गंभीर है, क्योंकि इस बात का अंदेशा है कि नौकरशाही के भ्रष्ट आचरण के चलते ये लोग बड़ी आसानी से अपने लिए राशन कार्ड, आधार कार्ड और वोटर कार्ड जैसे सरकारी दस्तावेज हासिल कर चुके हों।
ममता बैनर्जी ने तो दो कदम आगे बढ़ते हुए देश में गृहयुद्ध तक का खतरा जता दिया है । अभी कुछ दिनों पहले सेना प्रमुख जनरल विपिन रावत ने भी एक कार्यक्रम में असम में बढ़ रही बांग्लादेशी घुसपैठ को लेकर चिंता जताई थी जो इस बात को पुख्ता करता है कि यह मुद्दा राजनैतिक नहीं, देश की सुरक्षा से जुड़ा हुआ है।
खास तौर पर तब जब असम में बाहरी लोगों के आकर बसने का इतिहास बहुत पुराना हो। यह इतिहास 1947 से भी पहले से शुरू हो जाता है। लेकिन यह सरकारों की नाकामी ही कही जाएगी कि 1947 के विभाजन के बाद, फिर 1971 में बांग्लादेश बनने के बाद और फिर आज तक भी भारी संख्या में बांग्लादेशियों का असम में गैरकानूनी तरीके से आने का सिलसिला लगातार जारी है।
यही कारण है कि इस घुसपैठ से असम के मूल निवासियों में असुरक्षा की भावना जागृत हुई जिसने 1980 के दशक में एक जन आक्रोश और फिर जन आन्दोलन का रूप ले लिया। खास तौर पर तब जब बड़ी संख्या में बांग्लादेश से आने वाले लोगों को राज्य की मतदाता सूची में स्थान दे दिया गया।
आंदोलनकारियों का कहना था कि राज्य की जनसंख्या का 31-34% हिस्सा गैर कानूनी रूप से आए लोगों का है। उन्होंने तत्कालीन केन्द्र सरकार से मांग की कि बाहरी लोगों को असम में आने से रोकने के लिए सीमाओं को सील किया जाए और उनकी पहचान कर मतदाता सूची में से उनके नाम हटाए जाएं।
आज जो राहुल एनआरसी का विरोध कर रहे हैं, वे शायद यह भूल रहे हैं कि उनके पिता, तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी ने 15 अगस्त, 1985 को आन्दोलन करने वाले नेताओं के साथ असम समझौता किया था, जिसके तहत यह तय किया गया था कि 1971 के बाद जो लोग असम में आए थे, उन्हें वापस भेज दिया जाएगा।
इसके बाद समझौते के आधार पर मतदाता सूची में संशोधन करके विधानसभा चुनाव कराए गए थे। इसे सत्ता का स्वार्थ ही कहा जाएगा कि जिस असम गण परिषद के नेता प्रफुल्ल कुमार महंत इसी आन्दोलन की लहरों पर सवार हो कर दो बार राज्य के मुख्यमंत्री बने, जो आन्दोलन का नेतृत्व करने वाले मुख्य संगठन आल असम स्टूडेन्ट यूनियन के अध्यक्ष भी थे, वो भी अपने मुख्यमंत्रित्व काल में इस समस्या का समाधान करने के लिए कोई ठोस कदम उठाने की हिम्मत नहीं दिखा पाए।
और इसे क्या कहा जाए कि अब जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचता है और उसके आदेश पर उसकी निगरानी में एनआरसी बनकर सामने आती है, तो विपक्षी दल एकजुट तो होते हैं, लेकिन देश के हितों की रक्षा के लिए नहीं बल्कि अपने अपने राजनीतिक हितों की रक्षा के लिए। वे एक तो होते हैं लेकिन देश की सुरक्षा को लेकर नहीं बल्कि अपनी राजनैतिक सत्ता की सुरक्षा को लेकर। लेकिन अगर वे समझते हैं कि देश की जनता मूर्ख है और उनकी इस घटिया राजनीति को नहीं समझेगी तो वे नादान हैं, क्योंकि देश लगातार सालों से उन्हें देख रहा है।
देश देख रहा है कि जब बात इस देश के नागरिकों और गैर कानूनी रूप से यहाँ रहने वालों के हितों में से एक के हितों को चुनने की आती है, तो हमारे इन विपक्षी दलों को गैर कानूनी रूप से रहने वालों की चिंता अधिक सताने लगती है। देश देख रहा है कि इन घुसपैठियों को यह “शरणार्थी” कह कर इनके “मानवाधिकारों” की दुहाई दे रहे हैं, लेकिन अपने ही देश में शरणार्थी बनने को मजबूर कश्मीरी पंडितों का नाम भी आज तक अपनी जुबान पर नहीं लाए।
देश देख रहा है कि इन्हें कश्मीर में सेना के जवानों पर पत्थर बरसा कर देशद्रोह के आचरण में लिप्त युवक “भटके हुए नौजवान” दिखते हैं और उनके मानवाधिकार इन्हें सताने लगते हैं, लेकिन देश सेवा में घायल और शहीद होते सैनिकों और उनके परिवारों के कोई अधिकार इन्हें दिखाई नहीं देते?
देश देख रहा है कि ये लोग विपक्ष में रहते हुए सरकार के विरोध और देश के विरोध के बीच मौजूद अन्तर को भूल गए हैं। काश कि यह विपक्षी दल देश की सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर अपने आचरण से विपक्ष की गरिमा को उस ऊंचाई पर ले जाते कि देश की जनता पिछले चुनावों में दिए अपने फैसले पर दोबारा सोचने के मजबूर होती, लेकिन उनका आज का आचरण तो देश की जनता को अपना फैसला दोहराने के लिए ही प्रेरित कर रहा है।
(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)