दलित-मुस्लिम एकता एक छलावा भर है

अभिनव प्रकाश

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि बहुत कम लोगों का ध्यान इस पर गया कि 2016 में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद हुए सबसे बड़े नरसंहार के 45 वर्ष पूरे हो रहे हैं, जबकि यह नरसंहार भारतीय उपमहाद्वीप बांग्लादेश में हुआ था, जो उस समय पूर्वी पाकिस्तान के नाम से जाना जाता था। पाकिस्तान ने 45 वर्ष पहले 26 मार्च को पूर्वी पाकिस्तान में बंगाली राष्ट्रवाद को दबाने के लिए सैनिक कार्रवाई आरंभ की और केवल आठ महीने में ही 25-30 लाख लोगों को मौत के घाट उतार दिया। ध्यान रहे हिटलर को 60 लाख लोगों को मारने में पांच साल से ज्यादा लगे थे। यहां उस घटनाक्रम को दोहराना नहीं है जो पहले से ही सर्वविदित है, बल्कि पूर्वी पाकिस्तानी की त्रसदी से भारत की मौजूदा राजनीति को ऐतिहासिक दृष्टि से परखना है। पिछले कुछ महीनों में सभी ने देखा है कि किस प्रकार से विभिन्न विश्वविद्यालयों में अफजल गुरु और याकूब मेनन के ‘शहादत दिवस’ मनाए जा रहे हैं और कश्मीर में अलगाववाद के समर्थन में नारे लग रहे हैं। इन घटनाओं को दलित-विमर्श के नाम पर वैधता देने का प्रयास किया जा रहा हैं। ऐसा या तो रोहित वेमुला और उसके परिजनों को आगे करके किया जा रहा हैं या फिर कन्हैया कुमार और उमर खालिद के जरिये। इस क्रम में कश्मीर की आजादी और दलितों की दमन से आजादी को एक ही मुद्दे के तौर पर पेश किया जा रहा है। 1 दरअसल 2014 के बाद से ही ‘दलित-मुस्लिम एकता’ के नारे पर कुछ ज्यादा ही जोर दिया जा रहा है। जहां इस नारे पर जोर देने वाले नेता हर दूसरे वाक्य में दलित-मुस्लिम मुद्दे एक साथ रख रहे वहीं कुछ विचारक लेख लिखकर यह साबित कर रहे कि किस प्रकार दलित-मुस्लिम एकता स्वाभाविक है। दलितों के नाम पर भारत की बर्बादी के नारों और अराजकतावाद को जायज ठहराने का शोर यहां तक बढ़ा कि मायावती तक को कहना पड़ा कि कन्हैया जैसे लोग ख़ुद को झूठ ही दलित बताकर फर्जी दलित-विमर्श कर रहे हैं। उन्होंने यह अपील भी की कि लोग ऐसे तत्वों से सावधान रहें। यहां पर बांग्लादेश का जिक्र करना इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि वहां हुए नरसंहार में हिंदुओं को खास तौर पर निशाना बनाया गया था और कम लोग ही जानते हैं कि इन हिंदुओ में सबसे अधिक संख्या दलितों और अन्य समांतर जातियों की थी। भारत के बंटवारे के बाद पाकिस्तान के दोनों हिस्सों में बची हिंदू आबादी में से ज्यादातर दलित और शुद्र मानी जाने वाली जातियां थीं। ऐसा दो कारणों से था। एक तो अधिकतर सक्षम हिंदुओं ने भारत पलायन कर लिया था। ऐसा दलित नहीं कर सके और दूसरे, पाकिस्तान ने दलितों को भारत जाने से इसलिए रोका भी, क्योंकि वे चले जाते तो फिर उनके द्वारा किए जाने वाले ‘छोटे काम’ कौन करता? बंगाल में एक कारण और था।1 भारत विभाजन के पहले बंगाल के सबसे बड़े दलित नेता जोगेंद्रनाथ मंडल ने ‘दलित-मुस्लिम एकता’ के शिगूफेमें आकर मुस्लिम लीग और पाकिस्तान की मांग का समर्थन किया और अंबेडकर द्वारा दलितों को पाकिस्तान छोड़कर भारत आने की सलाह को नजरंदाज कर दिया। इसके कारण भी बहुत बड़ी संख्या में दलित पूर्वी पाकिस्तान में रह गए। मंडल 1950 में ही पाकिस्तान सरकार के कैबिनेट पद से इस्तीफा देकर भारत भाग आए। उनका इस्तीफा-पत्र पढ़ने योग्य है। इसमें इस्लामी पाकिस्तान में दलितों और ऐसी ही अन्य जातियों पर होने वाले ज़ुल्म की इंतेहा पार हो जाने का जिक्र है। ये जोगेंद्रनाथ मंडल ही थे जिनके कारण बंगाल के कई बड़े हिस्से पाकिस्तान में गए, क्योंकि उन्होंने जिन्ना के कहने पर इन इलाकों में दलितों से पाकिस्तान के पक्ष में मतदान कराया। ये वही दलित थे जो 1971 में तब लाखों की संख्या में मारे गए जब पाकिस्तानी सेना ने जमाते-ए-इस्लामी के साथ मिल कर ‘काफिरों’ के खिलाफ जिहाद घोषित कर दिया। यह कत्लेआम इतना भीषण था कि 28 मार्च को ही ढाका स्थित अमेरिकी काउंसलेट ने इसे हिंदुओ का सेलेक्टिव कत्लेआम करार दिया। इस प्रसंग के अलावा भी कथित ‘दलित-मुस्लिम एकता’ की ऐसी ही मिसालों से तारीखें भरी पड़ी हैं। 1आजादी के समय हैदराबाद रियासत में रजाकारों द्वारा कत्लेआम और जबरन धर्मपरिवर्तन का जो खुला खेल खेला गया उसमें भी दलित और समांतर जतियों को सबसे ज्यादा दमन ङोलना पड़ा। आज हैदराबाद वाले ही सबसे ज्यादा ‘दलित-मुस्लिम’ राग अलापने में लगे हैं। उस दौर में हैदराबाद के दलित नेता भाऊसाहब मोरे ने अंबेडकर को हैदराबाद की दलित जनता को संबोधित करने बुलाया था, लेकिन निजाम ने अनुमति नहीं दी। आज भी पाकिस्तान में हिंदुओं पर होने वाले अत्याचारों की जो खबरें आती हैं उनमें अधिकतर पीड़ित दलित ही होते हैं। बांग्लादेश में भी दलितों के हालात कोई कम बुरे नहीं हैं। वहां जबरन धर्मपरिवर्तन आम है। क्या यही ‘दलित-मुस्लिम एकता’ का असली मतलब है? 1दरअसल ‘दलित-मुस्लिम एकता’ के नारे का कोई मतलब है ही नहीं। दलित एक सामाजिक तबका है और मुस्लिम एक मजहबी। दलितों और सैयद, पठानों के बीच भला कौन सी समानता है? क्या उनके बीच ऐसे कोई साझा मसले हैं जो भारत के हर एक नागरिक के बीच में नहीं हैं? दलितों को इस राजनीतिक छलावे की भारी कीमत चुकानी पड़ी। अतीत की कटु सच्चाई के बावजूद फिर से पुराना खेल खेलने की चेष्टा हो रही है। इसके तहत बताया जा रहा है कि किस तरह दलितों ने इस्लाम अपनाया और आज जो तमाम मुस्लिम हैं वे वस्तुत: पुराने दलित ही हैं। जबकि सच्चाई यह है कि इस्लाम कुबूल करने वालों में ऊंची जातियों का भी बड़ा हिस्सा था। गांव के गांव मिल जाएंगे मुस्लिम राजपूतों के। कश्मीर में तो मुसलमानों के नाम ही उनके ब्राह्मण मूल को दर्शाते हैं। एक बड़ी आबादी का मूल तुर्क, ईरानी और मध्य-एशिया का है। इस्लाम में परिवर्तन एक जटिल प्रक्रिया है, जिसके अनेक कारण हैं। यह कहना कि केवल दलितों ने जातिवाद से मुक्ति के लिए इस्लाम अपनाया असत्य है। यह कहना सच्चाई के करीब है कि अधिकतर दलितों ने इसे ठुकराया वरना सैकड़ों सालों की इस्लामी हुकूमत में उन्हें रोकने वाला कौन था? यह जरूरी है कि जनता दलित-मुस्लिम एकता के नाम पर हो रहे नए मिथ्या प्रचार को समङो और यह देखे कि राजनीति से लेकर मीडिया में जो लोग ‘दलित-मुस्लिम’ राग अलाप रहे हैं वे दलित नहीं हैं।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में असि. प्रोफ़ेसर हैं। यह लेख दैनिक जागरण में प्रकाशित है। ये लेखक के निजी विचार हैं।)