भारत वर्ष में महापुरुषों के अवतरण की एक पौराणिक परंपरा रही है। हर युग में माँ भारती का गोद महापुरुषों की दिव्य कीर्ति से आलोकित होता रहा है। और इन महापुरुषों ने अपने तपश्चर्य और साधना की परंपरा में एक ही ध्येय को शामिल किया, वो था माँ भारती को परम वैभव तक पहुंचाने का लक्ष्य। मानों इश्वर ने इन महापुरुषों के माध्यम से भारत भूमि में सत्कर्मों की परंपरा शुरु की है। दत्तोपंत ठेंगड़ी जी भी इसी परंपरा के अनुयायी थे। अपने मन, कर्म और वचन से समाज को दिशा देना और व्यवहार से राष्ट्र का उत्थान करने का उनका ध्येय था। वे अपने आप में एक संस्था थे, जो समाज के हर अंग को लेकर चिंतित रहते थे। स्वयं को मानव-सेवा, समाज-सेवा और देश सेवा के लिए समर्पित कर दिया था। उनकी कथनी और करनी में तनिक भी भिन्नता नहीं थी। वे एक महान देशभक्त, कुशल संगठनकर्ता और प्रखर विचारक थे। सादा जीवन उच्च विचार की जीती जागती प्रतिमा थे।
दत्तोपंत ठेंगड़ी जी भारतीय मजदूरों को संगठित करने के साथ-साथ उनमें राष्ट्रवाद की लौ को जलाने तथा उनकी क्षमता का उपयोग राष्ट्र के पुनिर्माण में करने की वकालत किया करते थे। वह एक ऐसा दौर था जब पूरे एशिया में मजदूरों और सर्वहारा समाज के हक की लड़ाई के नाम पर हजारों संगठन तैयार हो रहे थे। भारत भी इसमें अग्रणी था। लेकिन भारतीय मजदूरों का जो शोषण हो रहा था तथा उनको संघर्ष के नाम पर देश के मुख्य धारा से जिस प्रकार अलग किया जा रहा था, वह चिंताजनक विषय था। इसी चिंता को ध्यान में रखते हुए दत्तोपंत ठेंगड़ी ने भारतीय मजदूरों को संगठित करने तथा उनको राष्ट्र की मुख्य धारा से जोड़ने का संकल्प किया तथा उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ स्वयंसेवक रामनरेश सिंह जी के साथ मिलकर भारतीय मजदूर संघ की स्थापना की।
उनका हृदय भारतीय समाज में अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्तियों के लिए हमेशा द्रवित रहता था। खासकर मजदूर वर्ग के लिए। उनके जीवन का एक ही ध्येय था कि कैसे मेहनतकश हाथों को उनका उचित हक मिले। वो इस बात पर भी विशेष ध्यान रखते थे कि स्वामी द्वारा उत्पीड़न किए जाने से मजदूरों के मन में नकारात्क विचार ना उत्पन्न हो जाए। वे हमेशा सकारात्मक तरीके से संघर्ष करने की प्रेरणा देने में विश्वास करते थे। भारतीय मजदूरों को संगठित करने के साथ-साथ उनमें राष्ट्रवाद की लौ को जलाने तथा उनकी क्षमता का उपयोग राष्ट्र के पुनिर्माण में करने की वकालत किया करते थे। वह एक ऐसा दौर था जब पूरे एशिया में मजदूरों और सर्वहारा समाज के हक की लड़ाई के नाम पर हजारों संगठन तैयार हो रहे थे। भारत भी इसमें अग्रणी था। लेकिन भारतीय मजदूरों का जो शोषण हो रहा था तथा उनको संघर्ष के नाम पर देश के मुख्य धारा से जिस प्रकार अलग किया जा रहा था, वह चिंताजनक विषय था। इसी चिंता को ध्यान में रखते हुए दत्तोपंत ठेंगड़ी ने भारतीय मजदूरों को संगठित करने तथा उनको राष्ट्र की मुख्य धारा से जोड़ने का संकल्प किया तथा उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ स्वयंसेवक रामनरेश सिंह जी के साथ मिलकर भारतीय मजदूर संघ की स्थापना की।
दत्तोपंत ठेंगड़ी का मन बचपन से ही बेसहारा और गरीबों के लिए व्यथित रहता था और वे हर समय गरीब और बेसहारा लोगों की मदद को आतुर रहते थे। उनका मन मानवीय संवेदनाओं की अतल गहराइयों वाला था। जब वे महज 15 वर्ष के थे, तब अपने गृहनगर आर्वी (यह स्थान महाराष्ट्र के वर्धा जनपद के अंतर्गत आता है) नगरपालिका हाईस्कूल के अध्यक्ष निर्वाचित हुए और इसके तुरंत बाद उन्होंने निर्धन विद्यार्थियों के लिए स्कॉलरशिप की व्यवस्था हेतु एक योजना के तहत कर डाली। इनका सेवा का यह व्रत यहीं नहीं रुका वे हर रोज सेवा और समर्पण की नयी गाथा लिखते थे। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा गठित की गयी वानर सेना के नगर अध्यक्ष भी रहे। जहां वे प्रतिदिन अंग्रेजी हुकुमत से लोहा लेते रहे तथा राष्ट्रवाद और भारतीय संस्कृति के संरक्षण कार्य में लगे रहे।
ठेंगडी जी के जीवन और उनके संघर्षों का अवलोकन करें तो कई बाते उभर कर सामने आती हैं। वे संघ रूपी ब्रम्हांड की परिक्रमा भगवान भास्कर की तरह किया करते थे। उनका स्नेह और संरक्षण संघ के लगभग सारे आनुषांगिक संगठनों को मिला। हजारों स्वयंसेवकों को उनका आर्शिवाद मिला तथा उचित मार्ग दर्शन मिला। वे अत्यंत मृदुभाषी, मित्तव्ययी और इन सबसे बढ़कर मानवीय संवेदनाओं के प्रतिमुर्ति थे। उनका हृदय वात्सल्य की अतल गहराइयों वाला था। उनकी प्रासंगिकता हर युग में बनी रहेगी।
(लेखक श्यामा प्रसाद मुखर्जी शोध प्रतिष्ठान में रिसर्च एसोसिएट हैं।)