दीनदयाल उपाध्याय : जिनके लिए राजनीति साध्य नहीं, साधन थी !

भारत की एकता और अखंडता पर वह हमेशा कहा करते थे कि ‘‘भारत की एकता और अखंडता की साधना हमने हमेशा की है, हमारे राष्ट्र का इतिहास इस साधना का ही इतिहास है’’ पंडित जी के दर्शन का सार राष्ट्र की उन्नति ही थी।  उनका मानना था कि इसके लिए कर्म ही नहीं, साधना भी जरूरी है।

भारतीय राजनीति में दीनदयाल जी का प्रवेश कतिपय लोगों को नीचे से ऊपर उठने की कहानी मालुम पड़ती है। किन्तु वास्तविक कथा दूसरी है। दीनदयाल जी ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में रहकर जिस आंतरिक व महती सूक्ष्म भूमिका को प्राप्त कर लिया था, उसी पर वे अपने शेष कर्म शंकुल जीवन में खड़े रहे। उस भूमिका से वे लोकोत्तर हो सकते थे, लोकमय तो वो थे ही। देश के चिन्तक वर्ग को कभी-कभी लगता है कि दीनदयाल जी की राजनीतिक उपलब्धियां कम हैं। लेकिन सवाल ये है कि क्या अन्य नेताओं की तरह उनमें भी राजनीतिक मत्वाकांक्षा थी?

जीवन में एक बार उनको चुनाव लड़ाया गया, लेकिन उसके लिए उनको किस प्रकार से तैयार किया गया, यह तत्कालीन जनसंघ के नेता अथवा कार्यकर्ता ही बता सकते हैं। जिस दौर में राजनीतिक कुटिलता और जातियों के तिलिस्म से पूरी भारतीय राजनीति ग्रसित थी, उस दौर में ऐसे व्यक्ति का चुनाव लड़ना जो झूठे वादे तो छोड़ दीजिए झूठ बोलने के बारे में सोच भी नहीं सकता था। कमोबेश यही स्थिती जनसंघ के अध्यक्ष बनने के समय भी उनके साथ हुई थी। अनेक विद्वानों और पंडित जी को करीब से जानने वाले इस बात को बड़े गर्व से स्वीकार करते हैं कि पंडित जी के लिए राजनीति साधन नहीं, साध्य थी; यह शत प्रतिशत सही और उन लोगों का अनुभव भी है।

उनके चिंतन में एक ऐसी मौलिकता थी, जो भारतीय इतिहास, परंपरा, राजनीति और भारतीय अर्थनिति से प्रस्फुटित है तथा आधुनिक स्थितियों और आवश्यकताओं की पूर्ति करने में समर्थ दिशाओं का निर्देशन करती है। उनके चिंतन की प्रेरणा-बिंदु भारत का वह निर्धन, अनिकेत और रूढ़ियों से ग्रस्त नागरिक है, जिससे काल और हर प्रकार के विदेशी आक्रमणों के थपेड़ों के बीच ‘स्व’ और ‘स्वाभिमान’ को अपने निर्बल, दुर्बल और शोषित शरीर में जीवित रखा। समाजिक जीवन में पिछड़ेपन की समाप्ति की परम आवश्यकता उनके मानस में गहरी बैठी थी।  वे दरिद्रनारायण की हृदय से सेवा करने में विश्वास करते थे। उनका मानना था कि जब तक अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति का संपूर्ण विकास नहीं हो जाता, तब तक राष्ट्र के पुननिर्माण का स्वप्न अधूरा है।

दीनदयाल उपाध्याय

भारत की एकता और अखंडता पर वह हमेशा कहा करते थे कि ‘‘ भारत की एकता और अखंडता की साधना हमने हमेशा की है, हमारे राष्ट्र का इतिहास इस साधना का ही इतिहास है’’ पंडित जी के दर्शन का सार राष्ट्र की उन्नति ही थी।  उनका मानना था कि इसके लिए कर्म ही नहीं, साधना भी जरूरी है। 24 अगस्त 1953 में पांचजन्य में प्रकाशित अपने लेख में पंडित जी भारतीयता और राष्ट्रवाद को विस्तार से परिभाषित किए हैं।

वे लिखते हैं कि ‘‘यदि हम एकता चाहते हैं तो भारतीय राष्ट्रीयता, जो हिन्दू राष्ट्रीयता है तथा भारतीय संस्कृति जो हिंदू संस्कृति है, उसका दर्शन करें। उसे मानदंड बनाकार चलें। भागीरथी की पुष्यधाराओं में सभी प्रवाहों का संगम होने दें। यमुना भी मिलेगी और  अपनी सभी कालिमा खोलकर गंगा की धवल धारा में एकरूप् हो जाएगी, किंतु इसके लिए भी भागीरथ प्रयत्नों की निष्ठा ‘एक सद्विप्राःबहुधा वदन्ति’ की मान्यता लेकर हमनें सस्कृति और राष्ट्र की एकता का अनुभव किया है। हजारों वर्षों की असफलता अधिक है। अतः हमें हिम्मत हारने की जरूरत नहीं। यदि पिछले सिपाही थके हैं, तो नए आगे आएंगे। पिछलों को अपनी थकान को हिम्मत से मान लेना चाहिए, अपने कर्मों की कमजोरी स्वीकार कर लेनी चाहिए। लड़ाई जीतेंगे ही नहीं, यह कहना ठीक नहीं। यह हमारी आन और शान के खिलाफ है; राष्ट्र की प्रकृति और परंपरा के प्रतिकूल है।’’ अपने जीवन को राष्ट्र पुननिर्माण के लिए समर्पित कर देना ही उनका एक मात्र अंतिम लक्ष्य था।

(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च एसोसिएट हैं। स्त्रोत: दीनदयाल सम्पूर्ण वांगमय,उत्तर प्रदेश सन्देश, पांचजन्य।)