आज़ाद भारत के पुनर्निर्माण के प्रति चिंतित थे दीनदयाल उपाध्याय

देेश जब गुलामी के दौर से गुजर रहा था, उस समय देश के नागरिकों और तत्कालीन नेताओं, बुद्धिजीवियों, छात्रों एवं समाजसेवियों का एक मात्र उद्देश्य था कि देश को अग्रेजों से आजाद कराया जाए। भारत माँ की गुलामी की बेड़ियों को किस प्रकार से तोड़ा जाए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए, इस देश के असंख्य आजादी के दीवानों ने अपने-अपने तरीके से कार्य किया तथा आजादी की लड़ाई लड़ी। इनमें कई वर्ग ऐसे थे जो अहिंसा के सहारे देश को आजाद करानेे को संकल्पित थे, तो कई समूह और दलों ने हिंसात्मक तरीके से आजादी की लड़ाई में भाग लिया और वंदे मातरम व भारतमाता की जय बोलकर फांसी के फंदे को चूम लिया। लेकिन, यहां मुख्य विषय अहिंसा अथवा हिंसा नहीं है। यहां मुख्य मुद्दा देश की आजादी है, जिसमें सभी लोगों का समवेत सहयोग रहा। आजादी की लड़ाई में शामिल सभी लोगों ने मां भारती के पुत्र होने का धर्म निभाया। सोच एवं विचार का अंतर तो स्वभाविक है।

उस समय एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते पं. दीनदयाल उपाध्याय ने देश की आजादी के बाद की सोच को रेखांकित करते हुए कहा है कि ‘‘देश को आजादी मिलने के बाद मैंने विभिन्न संगठनों के प्रमुखों राजनेताओं एवं अन्य विचारधाराओं के प्रमुखों से सवाल किया कि बताइए क्या देश आजाद हो गया है? क्या अंग्रेजों का देश से पलायन हो गया है? क्या हम स्वतंत्र हैं? अगर इन सभी बातों का उत्तर ‘हां’ है, तो इस स्वतंत्र भारत का राजनैतिक दृष्टिकोण क्या होना चाहिए? हमारी आर्थिक व्यवस्था किन नीतियों पर अधारित होनी चाहिए? हमारी युवा नीति क्या होनी चाहिए? हमारा समाजिक ढांचा  कैसा होना चाहिए?’’ इन लोगों के जवाब को रंखांकित करते हुए पंडित जी लिखे हैं कि ‘‘जब मैने उन लोगों का जवाब सुना तो आवाक् रह गया, जवाब था अभी-अभी तो हमने आजादी प्राप्त की है। अभी-अभी तो हमें चैन मिला है? अभी हमें आराम करना है, क्योंकि हम काफी थक गए हैं। थोड़ा आराम कर लें फिर देश के बारे में सोच लिया जाएगा। इतनी भी जल्दी क्या है?’

ऐसे उत्तर से पंडित जी अत्यंत क्षुब्ध हुए थे। उन्होने कई बार यह विचार किया कि देश की आजादी के बाद से सारे सवाल गौण हो जाते हैं क्या? क्या आजाद भारत के नेता इतने थक गए हैं कि इन्हे आराम देने की जरूरत है और कितना वक्त चाहिए? फिर उन्होने स्वयं से प्रश्न किया कि जिस देश के नेता आजादी के बाद थक गए हों, जहां सोचने के लिए वक्त चाहिए या आराम से सोच लेंगे अभी तो बहुत समय है; देश कोई भागा तो नहीं जा रहा है; इस प्रकार की सोच हो उस देश का क्या होगा। पंडित जी ने इन सब बातों पर गंभीरता से विचार किया कि जिस देश के नेता देश को शैशवावस्था में छोड़कर अपनी आराम की फिक्र कर रहे हैं उस देश का क्या होगा, आगामी भविष्य क्या होगा और किस ओर जाएगा।

यह वह समय था जब देश में चारों ओर समस्याओं का दौर था; देशी रियासतें भारतीय गणराज्य से जुड़ने के लिए अपनी-अपनी शर्तें थोप रही थी। असम, बंगाल, कश्मीर, पंजाब और पूर्वोत्तर में समस्याएं अपने चरम पर थी। कश्मीर नासूर स्थिति की और बढ़ रहा था। ऐसे में किसी राजनेता का यह कहना कि अभी आराम के दिन हैं, ऐसी सोच निश्चित तौर पर देश के अंधकारमय भविष्य की ओर ही इंगित करती है। इन सब के पीछे का कारण यही था कि हमारे जिम्मेदार नेता आराम कर रहे थे। देश में व्याप्त समस्याओं से लड़ने के लिए जिस ज़ज्बे और दृष्टीकोण की आवश्यकता थी, वैसा कुछ ज़मीन पर नहीं दिखा और ना ही इस दिशा में सार्थक सोच ही विकसित की गयी।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय का मानना था कि देश जिस दौर से गुजर रहा है, उससे लड़ने और राष्ट्र के पुर्ननिर्माण एवं विकास की तीव्रता के लिए व्यक्ति, समाज और राष्ट्र सभीका एकदूसरे से एकात्म होना आवश्यक है। लेकिन, आज़ादी के बाद लम्बे समय तक देश की सत्ता में रही कांग्रेसी सरकारों ने देश के लिए कुछ करने की बजाय सत्ता में बने रहने के लिए अनुचित निणर्य और साधनों का प्रयोग करना शुरू कर दिया। इसमें लोकलुभावने वादों सहित कई ऐसे फैसले भी थे, जिनसे देश का किसी भी प्रकार से भला होने वाला नहीं था।  

(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च एसोसिएट हैं। स्रोतः- विश्व संवाद केन्द्र गुजरात, दीनदयाल संपूर्ण वांगमय, उत्तर प्रदेश संदेश, मैं दीनदयाल बोल रहा हूं, पांलिटिकल डायरी।)