सुषमा स्वराज का निधन, देश की राजनीति के एक दीर्घ और सुनहरे अध्याय का अवसान है। देश के कई युवाओं ने सोशल मीडिया पर उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए बहुत मार्मिक बात कही है कि सुषमा में उन्हें अपनी माताजी दिखाई देती थीं। यह महज भावातिरेक नहीं है, तथ्य भी है। सुषमा जी का व्यक्तित्व एक ऐसी संपूर्ण स्त्री का था जो निर्भीकता से दहाड़ना भी जानती थी और स्नेह से दुलारना भी। उनका जाना भारतीय राजनीति के लिए एक ऐसी क्षति है, जिसकी भरपाई नहीं हो सकती।
सुषमा स्वराज अब हमारे बीच नहीं हैं। उनके जाने से राजनीति ही नहीं, बल्कि देश व दुनिया के समाज को भी क्षति पहुंची है। उनके जैसी महिलाएं राजनीति के क्षेत्र से आती हैं, तो समूचा समाज उनसे प्रभावित होता है, उनका लोहा मानता है। भाजपा की कद्दावर नेता और पूर्व विदेश मंत्री होने के अलावा भी वे बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी थीं।
कदाचित, अटल बिहारी वाजपेयी के बाद वे ही ऐसी राजनेता के रूप में याद आती हैं जिनका विपक्ष भी न केवल कायल था, बल्कि उनके जाने से दुखी भी है। राजनीति में ऐसे उदाहरण कम देखने को मिलते हैं जहां कोई नेता किसी दल विशेष का ना होकर, समूचे राष्ट्र का होता है। सुषमा स्वराज भाजपा में कई अहम पदों पर रहीं। पिछले लोकसभा चुनाव में उन्होंने चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया था। इसके लिए उन्होंने खराब सेहत का हवाला दिया था।
6 अगस्त की रात उन्हें हृदयाघात हुआ और नई दिल्ली के एम्स में उन्होंने अंतिम सांस ली। बिरले ही लोग होते हैं, जिन्हें अपनी मृत्यु का पूर्वाभास होता है। सुषमा द्वारा मृत्यु के कुछ समय पहले किए गए ट्वीट से कुछ ऐसा ही प्रतीत होता है। इसमें उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अनुच्छेद-370 पर उठाए गए ऐतिहासिक कदम पर कुछ असाधारण अंदाज में धन्यवाद दिया।
उन्होंने लिखा कि, वे इस दिन को अपने जीवनकाल में देखने की लंबी प्रतीक्षा कर रही थीं। उनके इस संदेश के 3 घंटों बाद जब उनके निधन की सूचना आई तो देश स्तब्ध रह गया। वास्तव में, सुषमा जी जैसे समर्पित और संपूर्ण लोग बिरले ही देखने-सुनने को मिलते हैं, चाहे वह कोई भी क्षेत्र हो।
जेपी आंदोलन से हुई थी शुरुआत
जेपी मूवमेंट को सुषमा के राजनीतिक जीवन का आरंभ माना जा सकता है। अंबाला छावनी में जन्मी सुषमा ने एस.डी. कालेज अम्बाला छावनी से बी.ए. तथा पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ़ से कानून की डिग्री ली थी। अपनी शिक्षा पूरी होने के बाद उन्होंने 70 के दशक में जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन में जोरशोर और उत्साह से हिस्सा लिया था। उस दौर में आपातकाल का विरोध कर वो सक्रिय राजनीति का हिस्सा बन गई थीं।
संघ की विरासत, लाहौर से भी था नाता
वे एक सच्ची राष्ट्रवादी थीं। इस राष्ट्रवाद की नींव उनके बचपन में ही पड़ चुकी थी। यूं कहें कि देश भक्ति का गुण उन्हें विरासत में ही मिला था। उनके पिता हरदेव शर्मा आरएसएस के प्रमुख सदस्य रहे थे। स्वराज का परिवार लाहौर के धरमपुरा क्षेत्र का रहने वाला था। इस बात का यह भी अर्थ हुआ कि उनके परिवार ने विभाजन की त्रासदी को भोगा है। शायद यही वजह रही होगी कि वे सरहद पार मुसीबत में फंसे हर व्यक्ति की मदद के लिए सदा तैयार रहती थीं, भले ही वह किसी भी कौम का हो।
सामाजिक समरसता और समृद्ध सांस्कृतिक परिवार
सुषमा जी का प्रखर और मुखर व्यक्तित्व बहुत सारी चीज़ों का जोड़ था। संघ से जुड़े पिता से मिले संस्कार तो थे ही, वे स्वयं भी जनसंघ की सक्रिय कार्यकर्ता रहीं। 1975 में जब उनका विवाह स्वराज कौशल से हुआ तो कौशल भी उच्चतम न्यायालय में उनके सहकर्मी हुआ करते थे। बाद के वर्षों में कौशल राज्यसभा सांसद, मिजोरम के राज्यपाल भी रहे। इनकी पुत्री वर्तमान में लंदन में वकालत कर रही हैं।
एक प्रकार से पूरा परिवार ही साक्षर, सुलझा हुआ और वैचारिक रूप से समृद्ध रहा है। यह सांस्कृतिक विरासत सुषमा जी के आचरण में भी झलकती थी। मतभेदों के बावजूद वे विपक्षियों के प्रति कटुता नहीं रखती थीं और इसी गुण के कारण उन्हें विपक्षी दलों के नेता भी मानते रहे हैं।
ऐसा रहा उपलब्धियों भरा राजनीतिक सफर
जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के बाद 80 के दशक में वे भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गईं थीं। वर्ष 1987 से 1990 तक अम्बाला छावनी से विधायक रहीं। इसके अलावा भाजपा-लोकदल संयुक्त सरकार में शिक्षा मंत्री बनी। अप्रैल, 1990 में वे राज्यसभा के सदस्य के रूप में निर्वाचित हुई।
वर्ष 1996 में उन्होंने दक्षिण दिल्ली संसदीय क्षेत्र से चुनाव जीता। जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की मात्र 13 दिनों की सरकार बनी थी, तब उन्होंने सूचना और प्रसारण मंत्रालय का दायित्व संभाला था। मार्च 1998 में उन्होंने दक्षिण दिल्ली संसदीय क्षेत्र को एक बार फिर जीता था। एक बार फिर से वे अटल सरकार में दूरसंचार मंत्रालय के अतिरिक्त प्रभार के साथ सूचना एवं प्रसारण मंत्री बनीं। 19 मार्च 1998 से 12 अक्टूबर 1998 तक वह इस पद पर रही थीं।
दिल्ली की पहली महिला मुख्यमंत्री
नारी सशक्तिकरण की जब भी मिसाल दी जाएगी, सुषमा जी का नाम सदा सामने आएगा। उन्होंने सही मायनों में नारी सशक्तिकरण को साकार कर दिखाया। दिल्ली की पहली महिला मुख्यमंत्री होने का गौरव उन्हीं को प्राप्त है। अक्टूबर, 1998 में उन्होंने केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया और 12 अक्टूबर, 1998 को दिल्ली की पहली महिला मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली थी। फिर 1998 में उन्होंने अपनी विधानसभा सीट से इस्तीफा दे दिया, और राष्ट्रीय राजनीति में वापस लौट गई।
सितंबर 1999 में उन्होंने कर्नाटक के बेल्लारी निर्वाचन क्षेत्र से कांग्रेस पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ा था। ये सीट गांधी परिवार की पारंपरिक सीट थी, बावजूद इसके सुषमा ने सोनिया गांधी को कड़ी टक्कर दी। अपने चुनाव अभियान में उन्होंने स्थानीय कन्नड़ भाषा में ही सार्वजनिक बैठकों को संबोधित किया था। बताते हैं कि इसके लिए उन्होंने महीने भर में ही मेहनत से कन्नड़ भाषा सीखी थी।
राज्यसभा और केंद्रीय मंत्रालयों की जिम्मेदारी
ज़मीन से जुड़ी राजनीति करते हुए शीर्ष पर पहुंची सुषमा प्रादेशिक और केंद्रीय स्तर पर बड़े दायित्वों का निर्वहन करने में माहिर थीं। वर्ष 2000 में वह उत्तर प्रदेश से राज्यसभा सदस्य चुनी गई थीं। सुषमा स्वराज को फिर से केन्द्रीय मंत्रिमंडल में सूचना और प्रसारण मंत्री के रूप में शामिल किया गया, इस पद पर वह सितंबर 2000 से जनवरी 2003 तक रही। वर्ष 2003 में उन्हें स्वास्थ्य, परिवार कल्याण और संसदीय मामलों में मंत्री बनाया गया।
वर्ष 2006 में स्वराज मप्र से राज्यसभा में तीसरे कार्यकाल के लिए चुनी गईं। इसके बाद 2009 में वे मप्र के विदिशा लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र से 4 लाख से अधिक मतों से जीतीं। साल 2014 में वे विदिशा लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र से दोबारा लोकसभा की सांसद निर्वाचित हुईं और भारत की पहली पूर्णकालिक महिला विदेश मंत्री होने का गौरव प्राप्त किया।
विदेश मंत्रालय को दिया नया आयाम
2014 में विदेश मंत्री का कार्यभार संभालने के बाद सुषमा स्वराज ने इस मंत्रालय के कामकाज का ढर्रा ही बदल दिया। उन्होंने अपनी नीतीगत सूझबूझ और प्रभावी वक्तृत्व क्षमता के जरिये भारत की वैश्विक धाक को तो बढ़ाया ही, ट्विट के जरिये परेशानी बताने वालों की मदद करके मंत्रालय के काम को संवेदना का एक नया आयाम दिया। अनेक मामले हैं, जिनमें देश-विदेश में परेशान लोगों ने ट्विटर पर सुषमा स्वराज को अपनी समस्या बताई और उन्होंने उसका समाधान किया।
याद आएंगे उनके ओजस्वी भाषण
एक ओजस्वी वक्ता के रूप में उनकी दमदार छवि रही। वे धाराप्रवाह और धारदार भाषणों के लिए विख्यात थीं। संसद सहित देश-विदेश के कई मंचों पर अपनी मुखरता के चलते श्रोताओं को मुग्ध करने वालीं सुषमा के भाषण संयुक्त राष्ट्र संघ में खासे चर्चित थे। वे अपने ओजस्वी भाषणों से ना केवल भारत की धाक जमाती थीं बल्कि पाकिस्तान को बेनकाब भी करती थीं।
देश की राजनीति के अध्याय का अवसान
सुषमा स्वराज का निधन, देश की राजनीति के एक दीर्घ और सुनहरे अध्याय का अवसान है। देश के कई युवाओं ने सोशल मीडिया पर उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए बहुत मार्मिक बात कही है कि सुषमा में उन्हें अपनी माताजी दिखाई देती थीं। यह महज भावातिरेक नहीं है, तथ्य भी है। सुषमा जी का व्यक्तित्व एक ऐसी संपूर्ण स्त्री का था जो निर्भीकता से दहाड़ना भी जानती थी और स्नेह से दुलारना भी। उनका अवसान भारतीय राजनीति के लिए एक ऐसी क्षति है, जिसकी भरपाई नहीं हो सकती।