लाल बत्ती एक ऐसे संस्कृति के रूप में उभर चुकी थी, जिसने नेताओं व अधिकारियों को इस मानसिकता से ग्रस्त कर दिया था कि वह शासक हैं और जनता पर शासन करेंगे जो लोकतंत्र के मूल चरित्र के खिलाफ़ था। अक्सर यह देखने को मिलता कि जब भी हमारे द्वारा चुने गये प्रतिनिधि अथवा लाल बत्ती से लैस शासन-प्रशासन के लोग अपने काफिले के साथ सड़क से गुजरते थे, तब उनके लिए ट्रेफिक को रोक दिया जाता था। इससे बहुतेरे आम लोगों को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता था। पर, अब मोदी सरकार ने इस लाल बत्ती संस्कृति का अंत कर इन समस्याओं को समाप्त कर दिया है। इस निर्णय से लोकतान्त्रिक मूल्यों को और मजबूती मिलेगी।
नरेंद्र मोदी को सत्ता संभाले तीन वर्ष होने को हैं। इस दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने कई ऐसे फैसले लिए हैं जिसने लोगो को चौकाया ही नहीं बल्कि यह भरोसा भी पैदा किया है कि वह आम जनमानस के हित में कोई भी बड़ा फैसला लेने से गुरेज नहीं करेंगें। मोदी ने जैसे नोटबंदी जैसा बड़ा फैसला लेकर चौका दिया था, उसी तरह विगत सप्ताह हुए कैबिनेट बैठक में मोदी सरकार ने लाल बत्ती संस्कृति पर भी पाबंदी लगाने जैसा शानदार निर्णय लिया है। यह फैसला एक मई यानी मजदूर दिवस से पूरे देश में लागू हो जायेगा। इसके दायरे में प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति समेत प्रधान न्यायाधीश, मंत्री, अफसर आदि सभी को शमिल किया गया है। यानी स्पष्ट है कि अब लालबत्ती लगी गाड़ियाँ सड़कों पर सायरन बजाते हुए नहीं दिखेंगी।
सरकार ने इस फैसले में कुछेक आपात सेवाओं मसलन फायर बिग्रेड तथा एम्बुलेंस के वाहनों पर नीलीबत्ती लगाने की छुट दे रखी है। इस फैसले के साथ ही कई मंत्री तथा मुख्यमंत्री ने अपनी गाड़ियों से लालबत्ती हटाने का सिलसिला शुरू कर दिया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि एक मई से सभी अधिकारी व नेतागण इस फैसले पर अमल करेंगें। दरअसल लालबत्ती वीआईपी संस्कृति का प्रतीक मानी जाती थी और इसको लेकर आम जनता में यह अवधारणा बन चुकी थी कि लालबत्ती लगी गाड़ियों में बैठा व्यक्ति उससे उच्च व विशिष्ट है, पर मोदी सरकार ने इस विशिष्टता के आडम्बर को तोड़ते हुए जनता को यह संदेश देने का काम किया है कि प्रत्येक भारतीय अपने आप में विशिष्ट है।
लाल बत्ती एक ऐसे संस्कृति के रूप में उभर चुकी थी, जिसने नेताओं व अधिकारियों को इस मानसिकता से ग्रस्त कर दिया था कि वह शासक हैं और जनता पर शासन करेंगे जो लोकतंत्र के मूल चरित्र के खिलाफ़ था। लालबत्ती के रसूख का खामियाजा समय–समय पर जनता भुगतती रही है। अक्सर यह देखने को मिलता कि जब भी हमारे द्वारा चुने गये प्रतिनिधि अथवा लाल बत्ती से लैस शासन-प्रशासन के लोग अपने काफिले के साथ सड़क से गुजरते थे, तब उनके लिए ट्रेफिक को रोक दिया जाता था। इस दौरान बहुतेरे आम लोगों को दिक्कतों का सामना करना पड़ता था। किसी को दफ्तर के लिए विलंब हो जाता था, तो छात्रों को अपने क्लास जाने में देरी हो जाती थी। उससे भी बड़ी बिडम्बना यह थी कि कभी–कभी मरीज समय से अस्पताल नहीं पहुंच पाते थे, जिसके परिणामस्वरुप वह लालबत्ती के दंश का शिकार हो जाते थे। किन्तु, मोदी सरकार ने आम जनता की इन सभी पीड़ाओं को समझते हुए यह ऐतिहासिक फैसला लिया है।
ध्यान दें तो, लालबत्ती कि यह संस्कृति अंग्रेजों की देन थी और फिरंगी सरकार ने इस विशिष्ट वाली परम्परा को खूब फलने-फूलने दिया था। उसकी छाप आज तक हमारे लोकतंत्र में देखने को मिलता है। विडम्बना यह है कि इस औपनिवेशिक परम्परा को आजार भारत की हमारी लोकतान्त्रिक सरकारें भी ढोती रहीं। इस दौरान लगभग समय कांग्रेस का ही शासन रहा, मगर किसी हुक्मरान ने यह इच्छाशक्ति नहीं दिखाई कि भारत को इस औपनिवेशिक परम्परा से भी मुक्त किया जाए। यही कारण है कि हम उस मानसिकता से आजतक उभर नहीं पाए थे।
हालाँकि समय–समय पर इसपर पाबंदी की मांग उठती रही थी, पर वह आवाज महज़ बयानों तक सीमित रह जाती। बहरहाल, लोकतंत्र की यह अवधारणा रही है कि जनता मालिक है, फिर भी विशिष्ट वाली भावनाओं से हमारे जनप्रतिनिधि उभर नहीं पाते थे और खुद को राजा मान लेते थे। अब केंद्र सरकार के इस अभूतपूर्व निर्णय के बाद इस संस्कृति का अंत होना न केवल लोक और तंत्र के बीच विशिष्ट-अतिविशिष्ट के भेदभाव को खत्म करेगा बल्कि औपनिवेशिक शासन की जो दुर्गन्ध हमारे लोकतंत्र में फैली थी, उसपर भी यह फैसला बड़ा प्रहार सिद्ध होगा।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)