किसान आंदोलन के नामपर अराजकता का प्रदर्शन

सवाल है कि क्‍या किसी के विरोध करने से संसद में पारित विधेयक वापस हो सकते हैं। यह अपने आप में कितनी बचकानी मांग है। वह भी तब, जबकि सरकार ने पूरे लोकतांत्रिक ढंग से संसद के दोनों सदनों में इसे प्रस्‍तुत किया, पारित किया और राष्‍ट्रपति के हस्‍ताक्षर से यह कानून के रूप में सामने आया है।

इन दिनों देश में तथाकथित किसान आंदोलन चल रहा है। तथाकथित इसलिए क्‍योंकि इसे किसान आंदोलन तो कहा जा रहा है लेकिन यह हंगामा कहीं से आंदोलन नहीं प्रतीत होता है। यह भी आश्‍चर्य की बात है कि इस तथाकथित आंदोलन में जुट रहे लोगों को ठीक से यह भी नहीं पता है कि वे यहां क्‍यों आए हैं, उन्‍हें किस बात का विरोध करना है और वह कृषि विधेयक आखिर क्‍या है जिसके कारण ये खुद को कथित तौर पर ठगा हुआ पा रहे हैं।

साभार : KhabarUttarakhand

बीते दिनों केंद्र सरकार ने कृषि सुधारों को लेकर तीन अहम विधेयक पास कराए। अब किसान संगठन इन्‍हें वापस लेने का दबाव सरकार पर बना रहे हैं। इन तीनों कानूनों को कृषक उत्पाद व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सरलीकरण) विधेयक 2020; कृषक (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) कीमत आश्वासन समझौता और कृषि सेवा पर करार विधेयक-2020; और आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक 2020 नाम दिया गया है।

मोटे तौर पर देखा जाए तो क्रमश: इन कानूनों में स्‍पष्‍ट प्रावधान किए गए हैं कि किसान अब अपने उत्पाद मंडी से बाहर बेचने के लिए स्वतंत्र होंगे। इनमें दो राज्यों के बीच व्यापार को बढ़ावा देने की भी बात कही गई है। सरकार के इन कानूनों ने किसान के लिए संभावनाओं के बाजार खोल दिए हैं। अब किसी भी किसान को देश में कहीं भी अपना उत्पाद बेचने के लिए खुला बाजार मिलेगा।

यह तो हुई क़ानून की बात लेकिन जो बात गौर करने योग्‍य है, वह यह है कि ये कानून पूरे देश के किसानों के लिए लागू किए गए हैं और इसका विरोध केवल चंद लोग ही कर रहे हैं। केवल पंजाब, राजस्‍थान एवं हरियाणा के ही किसानों को ऐसा क्‍यों लगा कि ये बिल उनके हितैषी नहीं हैं एवं वे बिना सोचे समझे इसके विरोध में उतर आए।

वे जनजीवन प्रभावित कर रहे हैं। कुल मिलाकर इस हंगामे ने चौतरफा अराजकता मचा रखी है, इस पर भी यदि सरकार इनसे विनम्रतापूर्वक बातचीत के रास्‍ते समाधान निकालना चाहती है तो ये वहां भी हठधर्मिता दिखाने से बाज नहीं आ रहे हैं।

पिछले दिनों गृहमंत्री अमित शाह से 13 किसान नेता मिले लेकिन घंटों लंबी चली बातचीत भी बेनतीजा ही निकली। अब चूंकि सरकार से छठे दौर की वार्ता रद्द हो चुकी है, ऐसे में बातचीत के अलावा निराकरण का और क्‍या रास्‍ता हो सकता है, सरकार यह सोच ही रही थी कि इन तथाकथित आंदोलनकारियों ने फिर से अराजकता मचाना शुरू कर दिया है।

ऐसा लगता है इनका मकसद समस्‍या का हल पाना नहीं, बल्कि अराजकता की स्थिति को बनाए रखना है। यह बहुत ही चिंता की बात है कि इस आंदोलन में अब दंगा आरोपियों के भी पोस्टर नजर आने लगे हैं।

साभार : Navbharat Times

अब शरजील इमाम, उमर खालिद और सुधा भारद्वाज जैसे अराजक और देश विरोधी तत्‍वों के पक्ष में पोस्‍टर देखे गए हैं। यह निश्चित ही ठीक स्थिति नहीं है। यह भी क्‍या विडंबना है कि किसानों को खेती से जुड़ी बातों पर सरकार से बात करनी थी और वे दिल्‍ली दंगों के आरोपियों को बीच में ले आए। अपने मंच पर अब वे आसामाजिक तत्‍वों का प्रवेश करा रहे हैं। यह तो पूरा आंदोलन ही पटरी बदलता दिख रहा है। बात शुरू कहां से हुई थी और कहां जा पहुंची है।

अब तो किसान, खेती, फसल, समर्थन मूल्‍य सब गौण हो गया है और सामने केवल देशविरोधी लोग आ चुके हैं। सरकार से बातचीत में बुरी तरह नाकाम होने के बाद अब अपनी खीझ मिटाने के लिए ये हंगामेबाज लोग अनावश्‍यक रूप से दिल्‍ली, जयपुर, आगरा हाईवे बाधित करके लोगों को अभी और अधिक परेशान करने की इच्‍छा रखते हैं।

केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने स्‍पष्‍ट रूप से कहा है कि कुछ लोग इस आंदोलन का माहौल बिगाड़ने में जुटे हैं। सरकार आगे भी बात करने को तैयार है लेकिन यहां तो पूरा आंदोलन ही भटक रहा है। सवाल है कि किसानों के मंडी में फसल लाने का और दिल्‍ली दंगों के आरोपियों को रिहा कराने का आपस में क्‍या संबंध है। ये दोनों तो अलग-अलग बातें हैं।

सवाल है कि क्‍या किसी के विरोध करने से संसद में पारित विधेयक वापस हो सकते हैं। यह अपने आप में कितनी बचकानी मांग है। वह भी तब, जबकि सरकार ने पूरे लोकतांत्रिक ढंग से संसद के दोनों सदनों में इसे प्रस्‍तुत किया, पारित किया और राष्‍ट्रपति के हस्‍ताक्षर से यह कानून के रूप में सामने आया है।

यदि सरकार इसे पिछले दरवाजे से येन-केन-प्रकारेण मंजूर कराकर सामने लाती तो इसे कानून लागू करना नहीं, थोपना कहा जाता। लेकिन चूंकि संसद जैसी जगह से ये विधेयक पारित हुए हैं। जिन गिने-चुने राज्‍यों के लोग किसान के वेश में आकर यहां प्रदर्शन कर रहे हैं, वे वास्‍तविक किसानों को भी भड़का रहे हैं।

अब किसानों को यह आशंका है कि सरकार न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य की व्‍यवस्‍था समाप्‍त कर देगी जबकि पंजाब, राजस्‍थान जैसे राज्‍यों में 80 फीसदी धान सरकार ने स्‍वयं खरीदा है। कृषि कानून लागू होने के कुछ समय बाद ही केंद्रीय कैबिनेट ने बड़ा फैसला करते हुए गेहूं पर समर्थन मूल्‍य बढ़ा दिया था।

यदि सरकार को किसानों से उपज नहीं खरीदनी होती तो वो एमएसपी में इजाफा क्‍यों करती। क्‍या यह सीधा सा तर्क इन प्रदर्शनकारियों को समझ में नहीं आ रहा है। किसानों का कहना है कि ये तीनों बिल कृषि का निजीकरण करेंगे। जबकि वास्तविकता इससे एकदम परे है।

असल में, इन प्रदर्शनकारियों के पास कोई ऐसी ठोस वजह नहीं है जिसके आधार पर ये लोग हंगामा कर सकें। यदि प्रचार माध्‍यमों के जरिये आपने इनकी भाषा ध्‍यान से सुनी होगी तो पाया होगा कि किसानों के कंधे पर बंदूक रखकर कुछ राजनीतिक तत्‍व अपनी नफरत की राजनीति फैला रहे हैं।

विरोधियों को केवल और केवल केंद्र सरकार से तकलीफ है, ना कि सरकार की नीतियों या निर्णयों से। यदि ये प्रदर्शनकारी प्रधानमंत्री के खिलाफ सार्वजनिक रूप से हिंसा करने की बात बोल सकते हैं तो जरा सोचिये ये कहां से लाचार नजर आते हैं।

ऐसा नहीं है कि देश के सारे किसान केवल विरोध ही कर रहे हैं या सड़कों पर उतर आए हैं। ये केवल चंद लोग हैं। समानांतर रूप से किसानों का दूसरा बड़ा वर्ग है जो कृषि कानूनों का समर्थन भी कर रहा है और इसके अमल में आने के बाद खेती में होने वाले लाभों को भी गिना रहा है।

जाहिर है, राजधानी में चलाया जा रहा तथाकथित किसान आंदोलन पूरी तरह से राजनीति से दुष्‍प्रेरित है और इन लोगों का ध्‍येय केवल अराजकता मचाना है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)