गुजरात चुनाव परिणाम : विकास की राजनीति के आगे चारों खाने चित हुई जातिवादी राजनीति !

नरेंद्र मोदी को गुजरात के गांव गांव तक की खबर है। वह जनसभाओं में सर्वाधिक समय विकास और स्थानीय बातों में बिताते थे। इससे स्थानीय लोगों से उनका संवाद स्थापित होता था। भाषण के पांच मिनट वह राष्ट्रीय या पाकिस्तान जैसे विषयों पर देते थे। लेकिन, यही राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियाँ बन जाती थीं। कांग्रेस के दिग्गज उसी में उलझ जाते थे, जबकि मोदी के भाषण की मूल विषय-वस्तु स्थानीय होती थी। यह गुजरात के लोगों से उनका जुड़ाव था, जिसे कांग्रेस के नेता समझ नहीं सके। गुजरात में यह संभव ही नहीं था कि लोग नरेंद्र मोदी को छोड़कर कांग्रेस पर  विश्वास कर लेते।

हिमाचल को बचाने और गुजरात को पाने का कांग्रेसी सपना बिखर गया। उसकी झोली से एक राज्य और कम हो गया। इस बार उसकी उम्मीद बुलन्दी पर थी। जातिवादी आंदोलन के युवा नेताओं को गले लगाया। बड़े जतन से बनाई गई सेकुलर छवि में बदलाव के लिए प्रयास किए। लेकिन कोई भी नुस्खा काम नही आया। नोटबन्दी, जीएसटी, ईवीएम पर आरोप लगाने जैसे सभी अस्त्र-शस्त्र निरर्थक साबित हुए। इसका दूरगामी प्रभाव होगा। इन चुनावो  से तय हुआ कि आम जनता का नरेंद्र मोदी पर अब भी विश्वास कायम है और उन्हें एक बार फिर मौका देने को वह तैयार दिखाई दे रही है।

राहुल गांधी और हार्दिक पटेल

अध्यक्ष पद पर अपनी ताजपोशी के बाद राहुल गांधी ने भाजपा पर बड़ा हमला किया। कहा कि भाजपा आग लगा रही है। लेकिन, ये जो आग राहुल को दिखाई दे रही थी, उस पर गुजरात चुनाव परिणाम ने पानी अवश्य फेर दिया। यह कांग्रेस की उम्मीदों पर पानी फिरने जैसा है, क्योंकि इस बार उसे गुजरात में  जातीय समीकरण अपने अनुकूल लग रहे थे। हार्दिक पटेल को पकड़ा और मान लिया कि पाटीदार कांग्रेस में आ गए।अल्पेश ठाकोर को पकड़ा और मान लिया कि गुजरात का पिछड़ा वर्ग उनके साथ आ गया। जिग्नेश को पकड़ा और मान लिया कि दलित उसके साथ आ गए। 

कांग्रेस मान कर चल रही थी कि मुसलमानों के सामने कोई विकल्प नहीं है। इसलिए उस ओर पहले की तरह जोर नहीं लगाया। राहुल यहां हिन्दू और जनेऊधारी बनकर उभरे थे। ईसाइयों से आर्च विशप खुद भाजपा के खिलाफ मत देने की अपील कर दिए। इसके साथ ही नोटबन्दी और जीएसटी के तीर भी कांग्रेस की तरफ से जम कर चलाये गए। लेकिन, इतने हथकण्डों और दाँव-पेंचों के बाद भी परिणाम वही ढाक के तीन पात जैसा ही रहा। पराजय का सिलसिला बदस्तूर जारी रहा।

शास्त्रीय संगीत में रागों के गायन का प्रहर निर्धारित होता है। पिछले कुछ समय से ऐसा प्रहर राजनीतिक राग में भी दिखाई दे रहा है। खासतौर पर कांग्रेस, सपा, बसपा की इसमें जुगलबंदी चलती रही है। इस राग के गायन का समय अलग-अलग है। चुनाव के पहले  प्रधानमंत्री नरेंद मोदी पर एक राग आधारित होती है। यह बताने का प्रयास होता है कि कांग्रेस, सपा, बसपा के शासन में विकास की ईमानदारी के साथ गंगा बह रही थी। किसान, व्यापारी सभी खुशहाल थे; किसी प्रकार की समस्या नहीं थी। देश केवल 2014 के बाद के साढ़े तीन वर्षों में बर्बाद, तबाह हो गया है, जिसके लिये मोदी जिम्मेदार हैं।

चुनाव के बाद दूसरा राग गाने का प्रहर आ जाता है। यह राग ईवीएम पर आधारित होता है। इसके स्वर होते हैं कि ईवीएम में गड़बड़ थी, नहीं तो कांग्रेस की सरकार बनती। इसके अलावा पहली  राग में  नोटबन्दी,  जीएसटी  के स्वर भी होते हैं। इनके आधार पर बताया जाता है कि देश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह बर्बाद हो गई है।

रील लाइफ में डाकू गब्बर सिंह का प्रकोप रामपुर गांव  से  पचास कोस  तक  तक था। लेकिन, अब कहा जा रहा था कि गब्बर सिंह टैक्स ने पूरे देश को बेहाल कर दिया है। जीएसटी का यही फुलफार्म बताया गया। ये बात अलग है कि इसे पारित कराने में सर्वदलीय सहमति थी। जो जीएसटी काउंसिल बनी है, उसमें विपक्षी पार्टियों के मुख्यमंत्री भी शामिल हैं।

हार पर आत्मचिंतन करें राहुल गांधी

नोटबंदी को लेकर आमजन की ओर से कोई विरोधी प्रतिक्रिया नहीं है। लेकिन, विपक्ष के बड़े नेता साल भर बाद भी  इसे लेकर परेशान हैं। कुछ समय पहले उन्होने नोटबंदी का एक वर्ष पूरा होने पर भारत बन्द किया था, जिसकी विफलता के बाद ही उन्हें यह मुद्दा छोड़ देना चाहिए था। लेकिन, कांग्रेस गुजरात मे भी इसे प्रमुख मुद्दा बनाये रही। आम आदमी जानता है कि मोदी ने कहा था कि विदेशों में इतना धन जमा है, वह वापस आ जाये तो सबके खाते में पन्द्रह लाख पहुंच जाए। यह कथन विदेशों में जमा धन की मात्रा बताने के लिए था। लेकिन विपक्षी इसे मुद्दा बनाए फिर रहे हैं।

गुजरात उन प्रदेशों में शामिल है, जहाँ कांग्रेस और भाजपा सीधे मुकाबले में रहती हैं। किसी अन्य पार्टी का यहाँ उल्लेखनीय अस्तित्व नहीं है। ऐसे में, पहली बात तो यह कि इन प्रदेशों में कांग्रेस को अपनी दम पर चुनाव लड़ते हुए दिखना चाहिए था। इसी हैसियत में उसे किसी अन्य के साथ  तालमेल करना चाहिए था। लेकिन, यहां भी कांग्रेस कमजोर मनोबल के साथ समर में उतरी। ऐसा लगा जैसे नरेंद्र मोदी के खिलाफ बोलने के अलावा उसके पास कुछ नहीं है। उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस की यही लाचारी दिखाई दी थी। उसने उत्तर प्रदेश में सपा के पीछे चलना मंजूर किया था। यही कमजोरी  गुजरात में भी कायम रही, जहाँ वह मुख्य विपक्षी और सत्ता की प्रमुख दावेदार थी। यहां भी वह हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश जैसे जातिवादी नेताओं की खुशामद करती दिखाई दी।

इसपर भी यह कार्य प्रांतीय स्तर के नेता करते तो गनीमत थी। लेकिन इसमें सीधे राहुल गांधी का नाम आ रहा था। अल्पेश की जनसभा में राहुल शामिल हुए। हार्दिक से गोपनीय मुलाकात सुर्खिया बन गई। बाद में उसके साथ समझौता भी हुआ। इसमें भी आरक्षण पर झूठा वादा किया गया। लोग इसकी असलियत समझ गए थे। जिग्नेश ने कांग्रेस के साथ समझौते से इनकार कर दिया। फिर भी कांग्रेस उसे विधानसभा चुनाव में समर्थन देने में लग गयी।

जाहिर है कि कांग्रेस में आत्मविश्वास का नितांत अभाव था। इसी लिए उसकी बातों में असर कम था। राहुल जो प्रश्न दाग रहे थे, उनपर भी किसी ने ध्यान नहीं दिया। कई प्रश्न तो कांग्रेस को ही कठघरे में पहुंचा रहे थे। यूपीए सरकार के समय कांग्रेस ने गुजरात का विकास बाधित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। ये नरेंद्र मोदी ही थे, जो गुजरात को आगे बढाने में लगे रहे।

मोदी पर व्यक्तिगत हमलों का भी कांग्रेस को भरना पड़ा खामियाजा

नरेंद्र मोदी पर निजी हमले भी कांग्रेस को भारी पड़े। मोदी की छवि ईमानदार और सुशासन स्थापित करने वाले नेता के रूप में कायम है। कांग्रेस के नेता जब इस मजबूत छवि पर हमला करते थे, तब  इसका उल्टा असर होता था। कांग्रेस के नेता ही कठघरे में आ जाते थे। नरेंद्र मोदी को गुजरात के गांव गांव तक की खबर है। वह जनसभाओं में सर्वाधिक समय विकास और स्थानीय बातों में बिताते थे। इससे स्थानीय लोगों से उनका संवाद स्थापित होता था। भाषण के पांच मिनट वह राष्ट्रीय या पाकिस्तान जैसे विषयों पर देते थे। लेकिन, यही राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियाँ बन जाती थीं। कांग्रेस के दिग्गज उसी में उलझ जाते थे, जबकि मोदी के भाषण की मूल विषय-वस्तु स्थानीय होती थी। यह गुजरात के लोगों से उनका जुड़ाव था, जिसे कांग्रेस के नेता समझ नहीं सके। गुजरात में यह संभव ही नहीं था कि लोग नरेंद्र मोदी को छोड़कर कांग्रेस पर  विश्वास कर लेते।

कांग्रेस के लिए आत्मचिंतन का अवसर है, लेकिन वह इसके लिए तैयार नहीं दिख रही। जब कोई पार्टी ईवीएम पर अपनी  पराजय की जिम्मेदारी थोप देती है, तब सुधार की संभावना समाप्त हो जाती है। इसी ईवीएम ने इन पार्टियों को सत्ता में पहुंचाया था, अब हार में इसीपर सवाल उठाते इन्हें नैतिक तौर पर जाने कैसे लज्जा का अनुभव भी नहीं होता। ये जीतें तो ईवीएम ठीक, नहीं तो खराब।

इस प्रकार के तर्क मतदाताओं और चुनाव आयोग का अपमान करने वाले हैं। विपक्षी नेताओं की छवि इससे और बिगड़ रही है। फ़िलहाल यही तथ्य है कि सत्ता में रहते हुए इन विपक्षी दलों और नेताओं ने जो गलतियां की है, उसे लोग भूले नहीं है। ऐसे में आत्मचिंतन, आत्मसुधार और सकारात्मक राजनीति सहित समय के इंतजार के अलावा विपक्ष के पास कोई विकल्प फिलहाल नहीं है।

(लेखक हिन्दू पीजी कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)