गत शुक्रवार की रात बांग्लादेश की राजधानी ढाका के गुलशन क्षेत्र स्थित होली आर्टीजन बेकरी रेस्त्रां में आइएस द्वारा किया गया हमला बेहद चिंताजनक और भयानक है। इस पूरे मामले पर गौर करें तो विगत शुक्रवार की शाम आइएस आतंकियों ने आर्टीजन बेकारी रेस्त्रां पर धावा बोल दिया। हालाकि बांग्लादेश की तरफ से अब ये कहा जा रहा है कि ये हमला आइएस ने नहीं, पाकिस्तानी ख़ुफ़िया संगठन आइएसआई द्वारा कराया गया है और बांग्लादेश में आइएस का कोई वजूद नहीं है। पर इस बात पर इतनी जल्दी यकीन करना मुश्किल है, क्योंकि पहले पहल तो यही कहा गया कि इस हमले में आइएस का हाथ है। संभव है कि अब बांग्लादेश अपने यहाँ आइएस के वजूद के कारण खुद पर उठ रहे सवालों से बचने के लिए ऐसा कर रहा हो। खैर! हमला जिसने भी किया हो, मगर उससे हमले की निर्ममता कम नहीं होती और न ही मारे गए लोगों की जानें ही वापस आ जाएंगी। बीस लोगों को बंधक बनाकर आतंकियों ने उनसे इस्लामिक धर्मग्रन्थ कुरआन शरीफ की आयतें सुनाने को कहा और जब वे आयतें नहीं सुना पाए तो बेरहमी से गला रेत कर उनकी हत्या कर दी गई। हालांकि बांग्लादेशी पैरा फोर्सेस की कार्रवाई में छः आतंकी मारे गए और एक को पकड़ लिया गया। भारत की तरफ से पक्ष-विपक्ष सभी दलों के नेताओं द्वारा इस हमले की निंदा की गई है और बांग्लादेश के साथ खड़े होने की बात कही गई है। भारत का यह रुख स्वाभाविक भी है, क्योंकि यह आतंकी हमला बांग्लादेश के लिए तो दुखद और भयानक है ही, भारत के लिए भी बेहद चिंताजनक है। कारण कि बांग्लादेश उसका बेहद निकटवर्ती पडोसी है और उसके यहाँ होने वाली प्रत्येक घटना का भारत पर भी सीधा-सीधा असर पड़ने की पूरी संभावना होती है। ऐसे में, यह बात सोचने भर से कितना भय पैदा करती है कि हमारे एक निकटवर्ती पड़ोसी देश के प्रतिष्ठित राजनयिक क्षेत्र गुलशन के एक रेस्त्रां में अगर वर्तमान समय में दुनिया के सबसे खूंखार आतंकी संगठन आइएस की इस कदर पहुँच कायम हो गई है कि वो वहाँ भयानक आतंकी हमले को अंजाम दे दे रहा है, तो ऐसे में यह आशंका कत्तई निर्मूल नहीं होगी कि आइएस की ये पहुँच जल्द ही भारत में भी कायम हो सकती है। हालांकि यह कहा जा सकता है कि भारत के सुरक्षा तंत्र को भेदकर यहाँ अपनी पैठ कायम करना आइएस के लिए बांग्लादेश जैसे आसान नहीं होगा। क्योंकि भारतीय सुरक्षा व्यवस्था बांग्लादेश की अपेक्षा कहीं अधिक उन्नत और बेहतर है। लेकिन यहाँ हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बांग्लादेश से पहले आइएस ब्रसेल्स और पेरिस जहां की सुरक्षा व्यवस्था भारत से भी अधिक अभेदनीय मानी जाती है, जैसी जगहों पर घुसकर भीषण आतंकी हमलों को अंजाम दे चुका है। इसलिए अगर वो बांग्लादेश में अपनी मजबूत पैठ कायम कर लिया है, जैसा कि इस ढाका हमले से जाहिर होता है, तो फिर भारत को अपनी सुरक्षा व्यवस्था को और अधिक मजबूत करते हुए सतर्क हो जाना चाहिए। क्योंकि अभी ये शुरुआत है, अगर अभी इसपर नियंत्रण के लिए प्रभावी कदम नहीं उठाए गए तो आगे कहीं ऐसा न हो कि बांग्लादेश की जमीन भारत में आतंकी हमलों के लिए दूसरा पाकिस्तान बन जाय।
वैसे, यह आतंकी हमला सिर्फ चिंता और भय ही पैदा नहीं करता, बल्कि इससे कई गंभीर सवाल भी खड़े होते हैं। गौर करें तो बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने इस आतंकी हमले को अंजाम देने वाले आतंकियों के लिए कहा है, “ये किस तरह के मुसलमान हैं ? इनका कोई धर्म नहीं है। इनका धर्म आतंकवाद है।” अब एक तरफ बांग्लादेशी प्रधानमंत्री की इस बात को रखें और दूसरी तरफ उन आतंकियों के इस कृत्य को देखें कि कैसे उन्होंने कुरआन की आयतें न सुना पाने पर लोगों को मार डाला, तो आतंकवाद से जुडी एक बड़ी समस्या हमारे सामने आती है। शेख हसीना का ये कहना कि ये आतंकी मुसलमान नहीं थे, हकीकत से मुंह चुराने की मुस्लिम समाज की उसी प्रवृत्ति को प्रदर्शित करता है, जो आज इस समाज की एक बड़ी समस्या बन चुकी है। यह वास्तविक और जमीनी हकीकत है कि दुनिया में फैला अधिकांश आतंकवाद इस्लाम की विस्तारवादी मानसिकता से अभिप्रेरित है और अधिकांश आतंकियों का मजहब इस्लाम है। समझा जा सकता है कि ये इस्लाम की एक आतंरिक समस्या है। लेकिन दिक्कत ये है कि कभी भी मुस्लिम समुदाय द्वारा इस बात को स्वीकार नहीं किया जाता, बल्कि हर बार ‘आतंकवाद का कोई मजहब नहीं’ जैसे बयान देकर अपने मजहब से जुडी इस समस्या से मुह चुराने का उपक्रम ही किया जाता है। लेकिन, क्या मुह चुराने से समस्या ख़त्म हो जाती है ? मुस्लिम समुदाय को समझना चाहिए कि उनके आँख बंद कर लेने से उनके मजहब में मौजूद दिक्कतें ख़त्म नहीं हो जाएंगी बल्कि दिन ब दिन और नासूर बनती जाएंगी। और वैश्विक स्तर पर उनकी जो संदिग्ध स्थिति होती जा रही है, उसे और बढ़ाने का ही काम करेंगी। अगर ये समुदाय इस समस्या से बचना चाहता है तो जरूरत है कि ईमानदारी और हिम्मत के साथ इसको स्वीकार करे। यह कहने की बजाय कि आतंकवाद का कोई मजहब नहीं होता, यह मानें कि आतंकवाद उनके मजहब की एक समस्या बन चुका है और खुलकर पूरी तरह से इसका विरोध करें। अब अगर वे समस्या को स्वीकारेंगे तो ही इसका समाधान कर पाने में भी सक्षम होंगे। मगर विडंबना ये है कि मुस्लिम समुदाय समस्या को स्वीकारता तो नहीं ही है, इसका विरोध भी पूरी तरह से खुलकर नहीं करता। उदाहरण के तौर पर देखें तो जब पेरिस के शार्ली हेब्दो पत्रिका द्वारा नबी मुहम्मद का कार्टून प्रकाशित करने के कारण आतंकियों द्वारा हमला करके अनेक निर्दोष लोगों को निर्दयतापूर्वक मौत के घाट उतार दिया गया था, तो भारत के मुस्लिमों की तरफ से इस हमले की निदा में भी यही जताया गया कि शार्ली हेब्दो ने मुहम्मद का कार्टून प्रकाशित करके बड़ा गुनाह किया था, जिसकी उसे सजा मिली। दरअसल बात ये है कि इस्लाम में असहिष्णुता के लिए पूरी गुंजाइश रही है। उदाहरणार्थ, कुरआन में कहा गया है कि इस्लाम को न मानने वाला काफिर होता है। क्या ये बात इस्लाम में मौजूद असहिष्णुता को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त नहीं है ? क्या अन्य धर्मों को खारिज करना बहुत सहिष्णुतापूर्ण कार्य है ? यक़ीनन नहीं! इस सम्बन्ध में एक उदाहरण पर गौर करें तो विहिप नेता कमलेश तिवारी जिनने कुछ समय पहले नबी मुहम्मद को लेकर कुछ आपत्तिजनक टिप्पणी कर दी थी, जिस कारण रासुका के तहत उनकी गिरफ्तारी हुई और अब भी वो जेल में ही हैं। लेकिन, इतने से मुस्लिम समुदाय को संतोष नहीं मिला और उन्होंने ऐसा हंगामा मचाया जैसे कि उनके ऊपर कोई बहुत बड़ा अत्यचार कर दिया गया हो। मालदा में लाखों की संख्या में सड़कों पर निकलकर मुस्लिमों ने उत्पात मचाया तथा इस्लामी झंडाबरदारों द्वारा कमलेश तिवारी की हत्या जैसे फतवे भी जारी किए गए। ध्यान रहे कि ये सब करने वाले कोई आतंकवादी नहीं थे, बल्कि मुस्लिम बुद्धिजीवी और मुस्लिम समुदाय के आम लोग थे। स्पष्ट है कि अपने मजहब को लेकर इस समुदाय में एक अलग किस्म का उन्माद भरा है। कहीं न कहीं यह उन्मादी मानसिकता ही है, जिससे प्रेरित होकर आतंकी भी विश्व भर में हिंसा का तांडव मचाए हुए हैं। अब ढाका हमले में आतंकियों द्वारा लोगों को कुरआन की आयतें न सुना पाने के कारण मार देने की मानसिकता और इस्लामिक झंडाबरदारों द्वारा कमलेश तिवारी की हत्या का फतवा जारी करने की मानसिकता में क्या कोई अंतर दिखता है ?
हम यह बिलकुल नहीं कह रहे कि इस्लाम बतौर मजहब खराब है या इसे नहीं होना चाहिए, बल्कि उक्त सभी बातों का अभिप्राय केवल यह है कि इसमे दिक्कते हैं, जिन्हें दूर किया जाना चाहिए। इस मामले में मुस्लिमों को हिन्दू समुदाय से सीखना चाहिए। सनातन हिन्दू धर्म में भी सती प्रथा, विधवा विवाह निषेध आदि अनेक खामियां थीं, लेकिन खुद हिन्दुओं ने ही इनका विरोध किया और आज हिन्दू धर्म में इन बुराइयों का कोई नामो-निशाँ नहीं है। हालांकि अब भी इसमे कुछ बुराइयां हैं और उनके खिलाफ भी आवाज उठती रहती है तथा उनके निर्मूलन के लिए प्रयास भी होते रहते हैं। कहने का अर्थ यही है कि अपनी बुराइयों को स्वीकार कर ही उन्हें दूर किया जा सकता है। मुस्लिम ऐसा नहीं कर रहे इसीलिए आज आतंकवाद उनके मजहब के साथ-साथ पूरी दुनिया के लिए एक बड़ा संकट बन चुका है, जो कभी ब्रसेल्स, कभी पेरिस, कभी पठानकोट और कभी ढाका के रूप में सामने आता रहता है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)