भारतीय स्वतंत्रता के पूर्व हिन्दू राष्ट्र और राम राज्य की जो परिकल्पना पेश की गयी थी, उसे कांग्रेस की छद्म धर्मनिरपेक्षता निगल गयी। कांग्रेस ने आजादी के पहले ही अपने लिए एक रास्ता तय कर लिया था, जहां मुस्लिम तुष्टिकरण को धर्मनिपेक्षता का आवरण ओढ़ा दिया गया और इसके सहारे बहुसंख्यक हिंदुओं के मूल भावना से लगातार खिलवाड़ किया जाने लगा। इस कुकृत्य में तब के कांग्रेस के सभी शीर्ष नेता शामिल थे। तत्कालीन कांग्रेस मुस्लिम तुष्टिकरण में इस क़दर आकंठ डूब चुकी थी कि इसके सिवा उसे कुछ भी नहीं सुहाता था। और यहीं से प्रारंभ हुआ हिंदू संस्कृति को भारतीय परंपरा के मूल से हटाने का कार्यक्रम जो आजतक अनवरत जारी है।
पंडित जी अक्सर युवा नेतृत्व का समर्थन करते थे। उनका मानना था कि उम्र के साथ-साथ मनुष्य की क्रियाशीलता भी समाप्त होने लगती है। उन्होने भारतीय राजनीति में एक लकीर खींची थी, एक आदर्श स्थापित किया था। लेकिन कांलांतर की घटनाओं ने तथा वाम समर्थित कांग्रेस सरकारों ने इसका मतलब ही बदल दिया। वह समाज में योद्धा के रूप् में नहीं, सर्जक के रूप में काम करना पसंद करते थे, उनकी भावना राजनीति की नहीं राष्ट्रवाद की पोषक थी।
उस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन प्रांत प्रचारक पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी कांग्रेस और वामपंथियों के इस कुकृत्य का पुरजोर विरोध किए थे। भारतीयता पर सवाल खड़ा करने पर पंडित जी कहते थे, ‘भारत में एक ही संस्कृति रह सकती है। एक से अधिक संस्कृतियों का नारा देश के टुकड़े-टुकड़े करके हमारे जीवन का विनाश कर देगा। लीग का द्विसंस्कृतिवाद, कांग्रेस का प्रच्छन्न द्विसंस्कृतिवाद तथा साम्यवादियों का बहुसंस्कृतिवाद नहीं चल सकता।’ साझी संस्कृति के नाम पर हो रहे राष्ट्रातंरण के खिलाफ पंडित जी हर मोर्चे पर लड़ने के लिए तैयार रहते थे। छद्म सेकुलरिज्म पर प्रहार करते हुए पंडित जी कहते थे, ‘अत्याचारी धर्म विहिन राज्य को नष्ट करना ही हमारे देश का चिरंतन आदर्श है। आज सेकुलर राज्य का नारा लगाया जा रहा है। किंतु देश की राष्ट्रीय परंपराओं और सांस्कृतिक जीवन पद्धति की अवमानना करना ‘सेक्युलरिज्म’ नहीं है। भौतिकवाद पर अधारित सेकुलरिज्म का सिद्धांत हमारे देशवासियों के स्वभाव के अनुकूल नहीं हो सकता।’
पंडित जी की सबसे बड़ी इच्छा महापुरुषों के खंडित स्वप्न को पूर्ण करना था। हिंदू साम्राज्य स्थापना दिवस अर्थात छत्रपति शिवाजी के जयंती पर 17 जून 1951 को पांचजन्य में प्रकाशित उनके लेख में यह व्यथा स्पष्ट दिखती है। लेख के प्रारंभ में उन्होंने लिखा, ‘छत्रपति शिवाजी ने हिंदू राष्ट्र की आत्मा का साक्षात्कार किया था और अपने जीवन काल में जब चारो ओर परकीयों के अत्याचारों से देशवासी त्रस्त थे, एक हिंदू साम्राज्य की स्थापना का उन्होने देश की जनता के सम्मुख आदर्श उपस्थित किया तथा उसको हिंदू राष्ट्र के ऐतिहासिक सत्य का साक्षात्कार कराया। बाद की घटनाओं के कारण यद्यपि उनका स्वप्न अधूरा ही रह गया, किंतु हम उस भग्न स्वप्न को पूर्ण करने के लिए कृत संकल्पित हों। यही देश के सारे दुःखों और कष्टों को दूर करने का एकमेव मार्ग है।’’
पंडित जी ने अपने इसी लेख में देश में चल रहे असहाय नेतृत्व पर भी प्रहार किया। वह अक्सर युवा नेतृत्व का समर्थन करते थे। उनका मानना था कि उम्र के साथ-साथ मनुष्य की क्रियाशीलता भी समाप्त होने लगती है। उन्होने भारतीय राजनीति में एक लकीर खींची थी, एक अदर्श स्थापित किया था। लेकिन कांलांतर की घटनाओं ने तथा वाम समर्थित कांग्रेस सरकारों ने इसका मतलब ही बदल दिया। वह समाज में योद्धा के रूप् में नहीं सर्जक के रूप में काम करना पसंद करते थे, उनकी भावना राजनीति की नहीं राष्ट्रवाद की पोषक थी। वे हमेशा अपने आचरण से भारतीय समाज में एक आदर्श स्थापित किया करते थे।
(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च एसोसिएट हैं।)