जब कोई पार्टी किसी विचारधारा के साथ राजनीति में प्रवेश करती है और फिर सत्तारूढ़ होती है, तो उसकी नीतियों और कार्य-कलापों का एक स्वरूप निर्धारित होता है। लेकिन, आम आदमी पार्टी इस कसौटी पर एकदम विफल सिद्ध हुई है तथा उसने अबतक स्वयं को ऊपर से नीचे तक सिर्फ स्वार्थ-प्रेरित लोगों के एक समूह के रूप में ही सिद्ध किया है। अब ऐसे दल में स्वार्थ-सिद्धि के लिए नियमों की अनदेखी और स्वार्थों की टकराहट में अंतर्कलह की उत्पत्ति के अलावा और हो भी क्या सकता है। आम आदमी पार्टी में बस यही सब हो रहा है, जो कि देर-सबेर इस विचार विहीन पार्टी के पूर्ण पतन का सबब बन सकता है।
आम आदमी पार्टी (आप) के लिए कुछ भी ठीक नहीं चल रहा है। पिछले दिनों राज्यसभा के टिकट दो धनाढ्य लोगों को दिए जाने के बाद से ही लगातार आंतरिक एवं बाहरी विरोधी झेल रही पार्टी को अब सबसे बड़ा झटका लगा है। पार्टी के 20 विधायकों की सदस्यता खत्म होने की कगार पर है। यह मामला लाभ के पद का है, जिसे लेकर निर्वाचन आयोग ने राष्ट्रपति से इन जनप्रतिनिधियों की सदस्यता समाप्त करने की सिफारिश की है।
यह बात सामने आते ही उक्त सभी विधायक हाईकोर्ट की शरण पहुँच गए और अपना वजूद बचाने का प्रयास कर रहे हैं। हालांकि चुनाव आयोग ने फिलहाल कोई बयान जारी नहीं किया है। उक्त विधायक 2015 से 2016 तक डेढ़ वर्ष की अवधि में लाभ के पदों पर रहे हैं, जो कि भारतीय संवैधानिक व्यवस्था का खुला उल्लंघन है। यहां यह उल्लेख करना ज़रूरी होगा कि आम आदमी पार्टी के पास विधायकों की संख्या 66 है और यदि ये 20 चले भी जाते हैं, तो भी पार्टी के पास अभी 46 विधायक बचे रहेंगे, लेकिन दिल्ली विधानसभा में दलीय स्थिति ही निर्धारक नहीं है, यहां अब पार्टी का तेजी से घटता जनाधार, तेजी से बढ़ती आंतरिक कलह बची खुची कसर पूरी कर रही है और पार्टी को अधोपतन की ओर ले जा रही है।
वैसे जहां तक लाभ के पदों पर काबिज विधायकों की बात है, इनकी संख्या 21 थी। राजौरी गार्डन असेंबली के जरनैल सिंह ने पिछले साल इस्तीफा दिया था, इसलिए उन पर आयोग द्वारा कार्रवाई का अब प्रश्न नहीं उठता है। शेष 20 विधायकों पर ही अभी कार्रवाई की तलवार अटकी है। यदि राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद आयोग द्वारा भेजी सिफारिश को मान लेते हैं, तो 20 विधायकों की क्षति आम आदमी पार्टी को होगी। ऐसे में, संबंधित सीटों पर उपचुनाव होंगे जो कि ‘आप’ के लिए किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं कहे जा सकते, क्योंकि उसके लिए इन सीटों पर फिर जीतकर आना बेहद कठिन होगा।
अब सबसे महत्वपूर्ण सवाल उठता है कि आखिर इतनी बड़ी संख्या में केजरीवाल के विधायकों को लाभ के पदों का लालच क्यों पकड़ गया? 20 की संख्या कम नहीं होती। जो पार्टी समाजसेवा का मूलमंत्र लेकर और आम आदमी के विचारों, अधिकारों को संरक्षण देने का हवाला देकर सत्ता में आई थी, वहां आखिर यह नौबत कैसे आ गई कि उसी के नेता भ्रष्टाचार, लालच, अनियमितता, अवैधानिक कृत्यों में आकंठ डूबे पाए गए। इतना बड़ा पाखंड एवं द्वंद आखिर आया तो कैसे?
विधायक तो गौण हैं, असली सवाल तो आप के कर्ता-धर्ता अरविंद केजरीवाल के प्रति ही है और इसका जवाब भी उन्हीं से अपेक्षित होना चाहिये। यह भी सोचने वाली बात है कि जो व्यक्ति लगातार मोदी सरकार पर सतही प्रहार करता रहा और बहुमत से चुनकर आई सरकार पर उद्योगपतियों की सरकार जैसा बेतुका आक्षेप लगाता रहा, आखिर उसी व्यक्ति ने पार्टी के वरिष्ठ और सक्रिय लोगों को नज़रअंदाज करके धनकुबेरों को राज्यसभा के टिकट कैसे दे डाले।
अरविंद केजरीवाल की कथनी व करनी में कितना अंतर है, यह तो अब खुली कि़ताब की तरह सबके सामने आ ही गया है लेकिन क्या स्वयं केजरीवाल सार्वजनिक रूप से अपनी गलतियों को उसी आत्मविश्वास के साथ स्वीकार करने की हिम्मत करेंगे, जिस आत्मविश्वास के साथ वे अभी तक वे दूसरों की सच्ची-झूठी गलतियाँ गिनवाते आए हैं?
इसमें आश्चर्य नहीं है कि केजरीवाल अभी तक जिस प्रकार की तर्कहीन, आधारहीन, बेसिर-पैर के आरोपों की गैरजिम्मेदाराना राजनीति करते आए हैं, अपनी पार्टी के नेताओं को भी उन्होंने वही राजनीतिक संस्कार सिखाए हैं। पार्टी के 20 विधायक अयोग्य होने की कगार पर हैं और प्रवक्ता अभी भी रट लगाए जा रहे हैं कि उनकी पार्टी के खिलाफ साजिश हो रही है। यही भाषा केजरीवाल की भी है, जो चुनाव हारने पर ईवीएम पर आरोप मढ़ देते हैं। आज उनके प्रवक्ता कार्रवाई करने पर आयोग पर ही आरोप लगा रहे हैं।
असल में, अरविंद केजरीवाल अपनी पार्टी के भीतर संतुलन साधने में असफल रहे हैं। इसका कारण उनका आत्म केंद्रित होना, हठी होना और अहंकारी होना है। वे भूल जाते हैं कि भारतीय राजनीति में उन्होंने पर्दापण भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वाले नेता के रूप में किया था, लेकिन आज वे स्वयं इन आरोपों के कठघरे में खड़े हैं। उनकी पार्टी के बर्खास्त मंत्री कपिल मिश्रा ने लगातार मीडिया के सामने आकर केजरीवाल सरकार के सिलसिलेवार भ्रष्टाचार की पोल सबूतों के साथ खोली, जिनका केजरीवाल कभी आत्मविश्वास के साथ खंडन नहीं कर सके।
राजनीति में सभी को साथ लेकर चलना होता है, तभी यह सफल हो पाती है। यदि केजरीवाल इसे एकल व्यक्ति कार्यक्रम समझने की भूल कर रहे हैं तो वे इसका नुकसान भी झेलेंगे। निश्चित ही उनकी अहितकारी नीतियां आज उनकी पार्टी को बरबादी की कगार पर ले आई है। वास्तव में एक विचारविहीन पार्टी की ये दशा बहुत चौंकाती नहीं है।
जब कोई पार्टी किसी विचारधारा के साथ राजनीति में प्रवेश करती है और फिर सत्तारूढ़ होती है, तो उसकी नीतियों और कार्य-व्यवहारों का एक स्वरूप निर्धारित होता है। लेकिन, आम आदमी पार्टी इस कसौटी पर एकदम विफल सिद्ध हुई है तथा उसने अबतक स्वयं को ऊपर से नीचे तक सिर्फ स्वार्थ-प्रेरित लोगों के एक समूह के रूप में ही सिद्ध किया है। अब ऐसे दल में स्वार्थ-सिद्धि के लिए नियमों की अनदेखी और स्वार्थों की टकराहट में अंतर्कलह की उत्पत्ति के अलावा और हो भी क्या सकता है। आम आदमी पार्टी में बस यही सब हो रहा है, जो कि देर-सबेर इस विचार विहीन पार्टी के पूर्ण पतन का सबब बन सकता है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)