जिस दौर में आपातकाल थोपा गया था, उससे हमारा लोकतंत्र कमजोर होने की बजाय ताकतवर व परिपक्व हुआ है। और नागरिक अधिकारों व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर सतर्कता बढ़ी है। न्यायपालिका दबावमुक्त, स्वतंत्र और सक्रिय है। मीडिया आजादी की कुलांचे भर रही है। इन सबके बीच अगर आपातकाल को शिक्षा के पाठ्यक्रम से जोड़ दिया जाए तो लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी को तो मजबूती मिलेगी ही, साथ ही आपातकाल के संबंध में युवाओं के विचार भी खुलकर सामने आएंगे।
एक जिम्मेदार राष्ट्र का कर्तव्य है कि वह अपनी आने वाली हर पीढ़ी को देश के इतिहास, संस्कृति, धर्म-दर्शन और जनतांत्रिक मूल्यों से अवगत कराए तथा साथ ही उन अलोकतांत्रिक तानाशाही विचारों को भी उद्घाटित करे जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मानवीय गरिमा के विरुद्ध रहा है। यह तभी संभव होगा जब इतिहास के प्रत्येक प्रसंगों को शिक्षा के पाठ्यक्रम से जोड़ा जाएगा। आजाद भारत के ऐसे ही कई प्रसंग हैं जो इतिहास का हिस्सा नहीं बने हैं और उन्हीं में से एक प्रसंग आपातकाल भी है।
लेकिन बिडंबना है कि आपातकाल के साढ़े चार दशक गुजर जाने के बाद भी इन प्रसंगों को अभी तक शिक्षा के पाठ्यक्रम से नहीं जोड़ा गया है। लेकिन अच्छी बात है कि अब आपाकाल के अध्याय को शिक्षा के पाठ्यक्रम से जोड़े जाने की मांग तेज होने लगी है। अगर आपातकाल के प्रसंग को इतिहास के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाता है तो निःसंदेह युवाओं को यह समझने का मौका मिलेगा कि किस तरह तानाशाही भरे विचार लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए खतरनाक होते हैं। युवाओं को यह भी जानने का मौका मिलेगा कि किस तरह लोकतंत्र के समर्थकों ने आपातकाल को लोकतंत्र के हथियार से ही हरा दिया।
एक स्वस्थ लोकतंत्र में धरना-प्रदर्शन, सत्याग्रह और सिविल नाफरमानी जनतंत्र के बुनियादी आधार होते हैं। कोई भी सरकार इन लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकती। लेकिन दुर्भाग्य रहा कि 25 जून, 1975 को देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गर्दन मरोड़कर देश को आपातकाल की आग में झोंक दिया।
इंदिरा गांधी ने संविधान की ही धज्जियां नहीं उड़ायी बल्कि जनतांत्रिक मूल्यों को भी नजरअंदाज कर मानवीय मूल्यों को निर्ममता से रौंद डाला जिसकी टीस आज भी सुनायी देती है। उसी का नतीजा है कि आपातकाल के उस काले दौर को गुजरे चार दशक से भी अधिक का समय हो गया लेकिन उस पर विमर्श बंद नहीं हुआ है।
गौर करें तो इन चार दशकों में देश में युवाओं की ऐसी पीढ़ी आ गयी है जो न सिर्फ लोकतंत्र की समर्थक है बल्कि उन सभी विचारों की विरोधी भी है जो मानवीय गरिमा को नष्ट करते हैं। फिलहाल कहना मुश्किल है कि देश की युवा पीढ़ी इंदिरा गांधी द्वारा थोपे गए आपातकाल से खुद को कितना जोड़ पायी है या इसे लेकर उसकी सोच क्या है ? ऐसा इसलिए कि आपातकाल के बारे में न तो उन्हें संपूर्ण जानकारी है और न ही उन्हें पता है कि आपातकाल क्या होता है ?
अगर दशकों पहले ही आपातकाल के प्रसंग को शिक्षा से जोड़ दिया गया होता और रेखांकित कर दिया गया होता कि आपातकाल, लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए अभिशाप है तो निःसंदेह युवाओं को भी इस मसले पर अपनी सोच जाहिर करने का मौका मिल गया होता।
आपातकाल के उस दौर को शिक्षा के पाठ्यक्रम यानी इतिहास से जोड़ा जाना इसलिए भी आवश्यक है कि आपातकाल लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों के विपरित एक ऐसी तानाशाही विचारधारा है, जिसे भारत ही नहीं दुनिया के हर लोकतांत्रिक देश ने खारिज किया है। ऐसे में आवश्यक हो जाता है कि देश के युवा लोकतंत्र और तानाशाही विचारधारा के फर्क को समझें।
युवाओं के लिए जानना जरूरी है कि आपातकाल का मूल कारण 12 जून, 1975 का इलाहाबाद उच्च न्यायालय का वह फैसला था जिसमें न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी के रायबरेली चुनाव को यह कहकर रद्द कर दिया था कि चुनाव भ्रष्ट तरीके से जीता गया। न्यायमूर्ति ने इंदिरा गांधी पर छः साल चुनाव न लड़ने का प्रतिबंध लगा दिया।
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी इस फैसले का सम्मान करने की बजाय सत्ता बचाने के लिए बौखला उठीं। उनके पास बचाव के सिर्फ दो ही रास्ते बचे। या तो वह न्यायालय के फैसले का सम्मान कर अपने पद से इस्तीफा देती या संविधान का गला घोंटती। उन्होंने दूसरे रास्ते को अपनाया और संविधान को निलंबित कर दिया। आंतरिक सुरक्षा को मुद्दा बनाकर बगैर कैबिनेट की मंजूरी लिए ही देश पर आपातकाल थोप दिया। यही नहीं उन्होंने संवैधानिक नियमों को ताक पर रख उच्चतम न्यायालय के तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों की वरिष्ठता की अनदेखी कर चौथे नंबर के न्यायाधीश को मुख्य न्यायाधीश बना दिया।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय पर स्थगनादेश जारी किए जाने के बाद इंदिरा और उग्र हो उठीं। उन्होंने संविधानेतर सरकार चला रहे अपने पुत्र संजय गांधी की मदद से उन सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं को मटियामेट करना शुरु कर दिया जो लोकतंत्र की संवाहक थीं। इंदिरा गांधी की सरकार अत्याचार की सभी सीमाएं लांघ गयी।
इंदिरा की सरकार ने जयप्रकाश नारायण समेत उन सभी आंदोलनकारियों को मीसा और डीआइआर कानूनों के तहत जेल भेज दिया जो आपातकाल का विरोध कर रहे थे। सरकार ने प्रेस की आजादी पर प्रतिबंध लगा दिया। समाचार पत्रों को अपने संपादकीय का स्थान रिक्त छोड़ने की भी अनुमति नहीं दी। दरअसल संपादकीय को रिक्त छोड़ा जाना सरकार अपने खिलाफ समझती थी। इसलिए उसने निष्पक्ष पत्रकारों और संपादकों पर भी डंडा चलाना शुरु कर दिया।
गौर करें तो मोरार जी देसाई के शासन काल में गठित शाह आयोग की रिपोर्ट में सरकार की निरंकुशता का दिल दहला देने वाला सच उजागर किया गया है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि आपातकाल के दौरान गांधी जी के विचारों के साथ-साथ गीता से भी उद्धरण देने पर पाबंदी थी।
दूसरी ओर इंदिरा गांधी के समर्थकों ने आंदोलन की धार कुंद करने के लिए यह प्रचारित करना शुरू कर दिया कि जयप्रकाश नारायण का आंदोलन फासिस्टवादी है। सरकार के अत्याचार की पराकाष्ठा का परिणाम रहा कि बिना अभियोग चलाए ही लाखों आंदोलनकारियों को हिरासत में ठूंस दिया गया। सरकारी संस्थाएं सरकार से डर गयीं और उसके सुर में सुर मिलाने लगीं।
लेकिन कहते हैं न कि लोकतंत्र में तानाशाही की उम्र ज्यादा लंबी नहीं होती है। हर बार लोकतंत्र ही जीतता है। कुछ ऐसा ही हश्र श्रीमती गांधी की तानाशाह सरकार के साथ भी हुआ। 1977 के आम चुनाव में जनता ने इंदिरा गांधी की सरकार को सत्ता से उखाड़ फेंका और आपातकाल की रीढ़ तोड़ दी।
विश्व इतिहास गवाह है कि जन आंदोलनों के आगे दुनिया की हर तानाशाह सरकार झुकती रही है। रुस की जारशाही और फ्रांस की राजशाही भी जनआंदोलनों को डिगा नहीं पायी। आखिरकार उन्हें ही घुटने टेकना पड़ा। इसी तरह इंग्लैंड के राजतंत्र को भी लोक आंदोलनों के आगे नतमस्तक होना पड़ा। मौजूदा दौर में भी लोक आंदोलनों के आगे तानाशाही सत्ता को नतमस्तक होना पड़ रहा है। भला ऐसे में भारतीय लोक आंदोलन व आग्रह के आगे इंदिरा गांधी की तानाशाह सरकार कब तक टिकी रह सकती थी।
लेकिन यह चिंताजनक है कि देश में एक बार आपातकाल थोपे जाने के बाद भी उसे रोकने का अभी तक कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं किया गया है। उचित होगा कि संविधान में इस तरह का प्रावधान किया जाए कि दोबारा आपातकाल थोपे जाने की न तो गुंजाइश बचे और न ही कोई निर्वाचित सरकार ऐसा दुस्साहस दिखाए।
पर अच्छी बात है कि जिस दौर में आपातकाल थोपा गया था, उससे हमारा लोकतंत्र कमजोर होने की बजाय ताकतवर व परिपक्व हुआ है। और नागरिक अधिकारों व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर सतर्कता बढ़ी है। न्यायपालिका दबावमुक्त, स्वतंत्र और सक्रिय है। मीडिया आजादी की कुलांचे भर रही है। इन सबके बीच अगर आपातकाल को शिक्षा के पाठ्यक्रम से जोड़ दिया जाए तो लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी को तो मजबूती मिलेगी ही, साथ ही आपातकाल के संबंध में युवाओं के विचार भी खुलकर सामने आएंगे।
(लेखक इतिहास के प्राध्यापक हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)