देखा जाए तो संघ का ये इतिहास ही रहा है कि देश पर जब भी कोई बड़ी आपदा आई है, संघ के स्वयंसेवक उससे निपटने के लिए कृतसंकल्पित भाव से जुट गए हैं। फिर चाहें वो स्वतंत्रता के पश्चात् पाकिस्तान में हुए दमन से पलायन कर भारत आने वाले हिन्दुओं को आश्रय-भोजन देना हो या फिर 1962 और 1965 के युद्धों में प्रशासन के साथ मिलकर सैनिकों के लिए रसद आदि की आपूर्ति सुनिश्चित करने की दिशा में काम करना हो अथवा इस इक्कीसवीं सदी में भी आई अनेक आपदाओं के दौरान सेवाकार्य में जुटना हो, संघ के स्वयंसेवक हर कठिन समय में राष्ट्र-सेवा का भाव लेकर प्राणपण से कार्यरत रहे हैं।
बीते 26 अप्रैल को देश के सबसे बड़े सांस्कृतिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख डॉ. मोहन भागवत द्वारा नागपुर महानगर की ओर से प्रस्तावित बौद्धिक वर्ग को ऑनलाइन संबोधित किया गया। ‘वर्तमान परिदृश्य और हमारी भूमिका’ विषय पर अपने संबोधन में संघ प्रमुख ने इस संकटकाल से सम्बंधित चुनौतियों को रेखांकित करते हुए उनसे निपटने के उपायों पर भी बात की।
डॉ. भागवत ने इस संकट के समय सेवाकार्य में लगे स्वयंसेवकों को अहंकार मुक्त होकर सेवा करने का निर्देश दिया। उन्होंने कहा, ‘हमें अपने अहंकार की तृप्ति और अपनी कीर्ति-प्रसिद्धि के लिए सेवा-कार्य नहीं करना है। यह अपना समाज है, अपना देश है, इसलिए हम कार्य कर रहे हैं। स्वार्थ, भय, मजबूरी, प्रतिक्रिया या अहंकार, इन सब बातों से रहित आत्मीय वृत्ति का परिणाम है यह सेवा।‘
दरअसल कोरोना संकट के इस दौर में संघ के स्वयंसेवक प्राणपण से जरूरतमंदों की सेवा और सहायता में लगे हैं। 20 मार्च को जब देश में कोरोना को लेकर स्थिति गंभीर होने की शुरूआत हो गयी थी, तभी संघ के सह-सरकार्यवाह भैयाजी जोशी ने बयान जारी कर कहा था कि सभी स्वयंसेवक समाज में स्वच्छता व जागरूकता बढ़ाने के लिए काम करेंगे।
इसके बाद जब लॉकडाउन हुआ तो उससे उपजी चुनौतियों से निपटने के लिए भी संघ के स्वयंसेवक काम में लग गए। आंकड़ों की मानें तो बीते 20 अप्रैल तक पूरे देश में संघ के ही स्वास्थ्य क्षेत्र से सम्बंधित प्रकल्प सेवा भारती द्वारा 51 लाख भोजन पैकेट और 12 लाख कच्चे राशन की किट बनाकर वितरित किए जा चुके हैं। यह कार्य लगातार जारी है।
देखा जाए तो संघ का ये इतिहास ही रहा है कि देश पर जब भी कोई बड़ी आपदा आई है, संघ के स्वयंसेवक उससे निपटने के लिए कृतसंकल्पित भाव से जुट गए हैं। फिर चाहें वो स्वतंत्रता के पश्चात् पाकिस्तान में हुए दमन से पलायन कर भारत आने वाले हिन्दुओं को आश्रय-भोजन देना हो या फिर 1962 और 1965 के युद्धों में प्रशासन के साथ मिलकर सैनिकों के लिए रसद आदि की आपूर्ति सुनिश्चित करने की दिशा में काम करना हो अथवा इस इक्कीसवीं सदी में भी आई अनेक आपदाओं के दौरान सेवाकार्य में जुटना हो, संघ के स्वयंसेवक हर कठिन समय में राष्ट्र-सेवा का भाव लेकर प्राणपण से कार्यरत रहे हैं। अतः आज संघ के द्वारा किए जा रहे कार्य में नया कुछ भी नहीं है।
संघ विरोधियों की तरफ से उसपर एक आरोप यह लगाया जाता है कि वो समाज में सांप्रदायिक वैमनस्य और भेदभाव को बढ़ावा देता है। परन्तु, जो संघ को जानते हैं, वे इस आरोप में निहित पूर्वग्रह और अज्ञान को समझ सकते हैं। ऐसे ही आरोपों का खण्डन करते हुए संघ प्रमुख ने अपने संबोधन में कहा, ‘हम मनुष्यों में भेद नहीं करते और ऐसे प्रसंगों (संकट काल) में तो बिल्कुल नहीं करते। जो-जो पीड़ित हैं और जिस-जिस को आवश्यकता है, उन सबकी सेवा हम करेंगे।‘
यह सत्य है कि संघ की विचारधारा हिंदुत्व केन्द्रित रही है, परन्तु हिंदुत्व का जो चिंतन है उसमें देश ही नहीं, अपितु पूरे विश्व के प्राणी मात्र के कल्याण की भावना उपस्थित है। अतः हिंदुत्व केन्द्रित चिंतन के बावजूद संघ के लिए मनुष्य-मनुष्य में कोई भेद नहीं है। सामाजिक समरसता की संघ-दृष्टि का उसकी शाखाओं में प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है। वहाँ आपको एक साथ उठने-बैठने और खाने-पीने वाले हजारों-हजार लोगों के बीच कोई भेदभाव नजर नहीं आएगा। वे लोग न एकदूसरे की जाति जानते हैं और न धर्म, बस अपने-अपने ढंग से राष्ट्र-निर्माण के कार्य में निस्वार्थ भाव से जुटे रहते हैं। ये बातें राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी कह चुके हैं।
उल्लेखनीय होगा कि 1934 में जमनालाल बजाज के आमंत्रण पर संघ के एक शिविर में महात्मा गांधी पहुंचे थे, जिसमें वे संघ की कार्य-पद्धति से अत्यंत प्रभावित नजर आए। बाद में उन्होंने एकबार इस घटना का जिक्र करते हुए कहा था, ‘बरसों पहले मै वर्धा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक शिविर में गया था। वहां मैं उन लोगों का कड़ा अनुशासन, सादगी और छुआछूत की पूर्ण समाप्ति देखकर अत्यंत प्रभावित हुआ था। मैं तो हमेशा से मानता आया हूं कि जो भी सेवा और आत्म-त्याग से प्रेरित है, उसकी ताकत बढ़ती ही है।‘
बाबा साहेब आम्बेडकर भी 1939 में संघ की एक शाखा में गए थे और उन्होंने भी गांधी जी की तरह ही संघ में मौजूद समानता के तत्व की सराहना की थी। कहने का अर्थ यही है कि संघ के राष्ट्र-निर्माण और सेवा-भावना के बीच में किसी प्रकार के भेदभाव के लिए कोई स्थान ही नहीं है। अपनी स्थापना के समय से ही वो लगातार इसी विचार को ध्यान में रखकर कार्य कर रहा है।
संघ के प्रकल्पों ने प्रत्येक क्षेत्र में देश को सशक्त बनाने और गति देने का कार्य किया है। फिर चाहें वो दीनदयाल शोध संस्थान के माध्यम से देश के गांवों को स्वावलंबी बनाना हो जिसमे संघ के हजारों स्वयंसेवक बिना किसी लोभ-लालसा के कठिन परिश्रम और समर्पण के साथ काम कर रहे हैं या फिर विद्या भारती जैसी शिक्षा क्षेत्र की सबसे बड़ी गैरसरकारी संस्था हो, जिसके तहत देश भर में लगभग 18000 शिक्षण संस्थान बिना किसी सरकारी सहयोग के कार्यरत हैं अथवा वनवासी कल्याण आश्रम जैसी संस्था को ही लीजिये जिसके द्वारा देश के वनवासी लोगों के रहन-सहन, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि की समुचित व्यवस्था कर उनका सर्वांगीण विकास किया जा रहा है।
ऐसे ही, सेवा भारती जैसी संस्था के रूप में संघ, स्वास्थ्य के क्षेत्र में सक्रिय रूप से देश के दूर-दराज के उन क्षेत्रों तक पहुँच के कार्य कर रहा है जहां सरकारी मिशनरी भी ठीक ढंग से नहीं पहुंची है। इस कोरोना संकट के समय में सेवा भारती ने ही मुख्यतः सेवा-कार्यों का मोर्चा संभाला हुआ है। भारतीय मजदूर संघ और भारतीय किसान मंच के द्वारा मजदूरों और किसानों के लिए भी संघ सदैव संघर्ष करता रहा है। इनके अलावा संघ के और भी तमाम प्रकल्प हैं, जिनके माध्यम से वो देश के कोने-कोने तक में न केवल मौजूद है, बल्कि देशवासियों के लिए अथक रूप से कार्य भी कर रहा है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि संघ प्रमुख के उक्त उद्बोधन और स्वयंसेवकों के सेवा-कार्य से देश-समाज के उन सभी लोगों को यह संदेश ग्रहण करने की आवश्यकता है कि इस संकटकाल से एकता के साथ ही निपटा जा सकता है। इस समय का यही मंत्र है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)