बिहार चुनाव : पराजितों का ईवीएम राग शुरू

2014 लोकसभा चुनाव से पहले दस वर्षों का समय भाजपा के लिये गर्दिश का था। लोकसभा चुनाव, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, कर्नाटक, असम, राजस्थान में उसे निराशा का सामना करना पड़ रहा था। तब ईवीएम में गड़बड़ी नहीं थी, तब बैलेट पेपर से चुनाव की मांग नहीं उठी, तब विदेशों का उदाहरण नहीं दिया गया। सारी गड़बड़ी छह वर्षों में हो गयी है।

शास्त्रीय संगीत में रागों के गायन का समय व मौसम निर्धारित होता है। वर्षा काल की राग मल्हार प्रसिद्ध है। भारत की चुनावी राजनीति में भी राग ईवीएम का सृजन महान गुणीजनों ने किया है। इसके भी गायन का समय तय है। चुनाव में भाजपा गठबंधन के विजयी होते ही इस राग का गायन होता है। अन्य कोई जीते तब इसका आलाप वर्जित है।

इस राग के गायन से अनेक लाभ होते हैं। इसके माध्यम से पराजित नेतृत्व अपना बखूबी बचाव कर लेता है। वह इस राग के गायन से अपनी लोकप्रियता व बेहतर छवि का सन्देश देता है। यह बताने का प्रयास करता है कि ईवीएम में गड़बड़ी ना होती तो उसकी पार्टी ही सत्ता में पहुंचती। इस राग के गायन का दूसरा लाभ यह है कि पराजित दल व नेतृत्व आत्मचिंतन से साफ बच निकलता है। पराजय का पूरा ठीकरा ईवीएम पर फोड़ कर वह निश्चिंत हो जाता है।

साभार : Hindi News

इसके बाद यह बताने की जहमत नहीं होती कि मतदाताओं ने उसे सत्ता में क्यों नहीं पहुंचाया। बिहार चुनाव परिणाम पर चर्चा दिलचस्प थी। एक ही दिन में कई बार ईवीएम को अच्छा व खराब बताया गया। महागठबन्धन के आगे होने पर ईवीएम से कोई शिकायत नहीं होती थी, लेकिन एनडीए के बढ़ते ही उस बेचारी पर हमले शुरू हो जाते थे। जबकि विचार यह होना चाहिए कि पन्द्रह वर्ष बाद भी नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली एडीए सरकार पर लोगों का विश्वास क्यों कायम है ? क्यों आरजेडी का अतीत उसका पीछा नहीं छोड़ रहा है ?

महागठबन्धन को यह क्यों लगता है कि उसकी पराजय ईवीएम खराबी से हुई है। हकीकत यह कि नीतीश की छवि के सामने वह कमजोर पड़ गए थे। बिहार पुनः राजद के दौर में लौटना नहीं चाहता था। इसलिए लालू यादव द्वारा बनाया गया ‘माई’ समीकरण विफल रहा। ईवीएम के बेसुरे राग पर विपक्षी नेताओं को कई बार शर्मिंदगी उठानी पड़ी।

लेकिन उन्होंने हारने के बाद इसका आरोप बन्द नहीं किया। यह सीधा चुनाव आयोग पर आरोप माना गया था। इसलिए कुछ समय पहले चुनाव आयोग ने सभी राजनीतिक दलों को ईवीएम में छेड़छाड़ करके दिखाने की चुनौती दी थी। इसके लिये पर्याप्त समय भी दिया गया था।

अधिकांश पार्टियां जानती थीं कि उन्होंने पराजय से झेंप हटाने के लिये यह मुद्दा उठाया था। अतः जब परीक्षण का समय आया तो इनकी हिम्मत जवाब दे गयी। उन्होंने किसी न किसी बहाने से चुनाव आयोग की चुनौती से बच निकलने का इंतजाम कर लिया था। सार्वजनिक फजीहत से अपने को अलग कर लिया। कुछेक दलों ने कुछ हिम्मत दिखाई। वे चुनौती स्थल तक पहुंचे। लेकिन ईवीएम मशीन को सामने देखते ही पानी के बुलबुले की भांति इनका आत्मविश्वास बैठ गया।

अंततः अंगूर खट्टे की तर्ज पर चुनाव आयोग पर आरोप लगाया, फिर भाग खड़े हुए। वस्तुतः खोट ईवीएम में नहीं, इनकी नीयत में थी। उत्तर प्रदेश में वह कहीं की न रही, इसलिये वहाँ उसकी नजर में ईवीएम खराब थी। वहीं पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखंड में कांग्रेस को जीत मिली तो ईवीएम ठीक थी। इसका भी जवाब देना चाहिये कि इन नेताओं की परेशानी भाजपा की जीत के बाद क्यों शुरू होती है।

2014 लोकसभा चुनाव से पहले दस वर्षों का समय भाजपा के लिये गर्दिश का था। लोकसभा चुनाव, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, कर्नाटक, असम, राजस्थान में उसे निराशा का सामना करना पड़ रहा था। तब ईवीएम में गड़बड़ी नहीं थी, तब बैलेट पेपर से चुनाव की मांग नहीं उठी, तब विदेशों का उदाहरण नहीं दिया गया। सारी गड़बड़ी छह वर्षों में हो गयी है।

ऐसी बात करने वालों नेताओं को अपना गिरेबां देखना चाहिये। मतदाताओं ने नाराजगी के कारण उनको इस मुकाम पर पहुंचाया है। अतः ईवीएम में गड़बड़ी का बेसुरा राग गाकर उन्हें मतदाताओं व चुनाव आयोग के अपमान से बचना चाहिए।

(लेखक हिन्दू पीजी कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)