उत्तर प्रदेश की सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी में अभी जो घमासान मचा हुआ है, उसको लेकर लोग भ्रम में हैं कि इसे राजनीतिक घमासान कहें या पारिवारिक। अब चूंकि, ये सब एक राजनीतिक दल में हो रहा है तो इसे राजनीतिक घमासान कह सकते हैं, लेकिन जब उस दल की हालत पर गौर करते हैं तो स्पष्ट हो जाता है कि ये तो पारिवारिक घमासान है। बाप-बेटा, चाचा-भतीजा, भाई-भाई यही सब तो हो रहा है अभी इस पार्टी में।
राष्ट्रीय स्तर पर सिर्फ एक भाजपा ही ऐसी पार्टी है, जिसे परिवारवाद का दीमक छू तक नहीं सका है। यही कारण है कि जब इस देश की जनता का भरोसा कांग्रेस से ख़त्म हो गया तो उन्होंने और किसी पर नहीं, भाजपा पर ही अपना भरोसा जताया। क्योंकि जनता को पता था कि कांग्रेसी कुशासन के अंत की सामर्थ्य तो सिर्फ भाजपा में ही है, बाकी सब पार्टियां तो किसी न किसी तरह कांग्रेस की ही अनुयायी हैं। एक भाजपा ही है, जो सबसे अलग और विचारधारा पर आधारित पार्टी है।
एक तरफ सपा प्रमुख मुलायम यादव बेटे अखिलेश को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाकर वहाँ अपने भाई शिवपाल को बिठाते हैं तो गुस्से में आए अखिलेश शिवपाल को मंत्रिमंडल से हटा देते हैं। इसी तरह की उठापटक में मुलायम यादव कहते हैं, ‘पार्टी के लिए मैंने और शिवपाल ने खून-पसीना बहाया है, अखिलेश ने क्या किया है!’ इसपर नेताजी से पूछा जाना चाहिए कि सही है कि अखिलेश ने पार्टी के लिए कुछ नहीं किया, लेकिन उनको सीएम की कुर्सी आपने क्यों दी थी ? इसके जवाब में अपने पुत्रमोह और परिवारवाद में आकंठ डूबी पार्टी पर मुलायम शायद ही कुछ कह पाएं। दरअसल बात ये है कि परिवारवादी राजनीति जहां होगी और परिवार में सियासी महत्वाकांक्षाएं अधिक होंगी, वहाँ यही सब होगा। अब यूपी चुनाव आया है, इसलिए ये सब लोग उछल-कूद मचाए हैं क्योंकि पांच साल तक सत्ता की मलाई खाकर चैन की नींद सोने के बाद अब इन्हें अपने पैरों के नीचे से जमीन खिसकती महसूस हो रही है। लेकिन, इन सबसे कुछ होगा नहीं क्योंकि जनता समाजवाद की आड़ में छिपे इन परिवारवादियों को ठीक ढंग से पहचान चुकी है।
आज़ाद भारत की राजनीति में परिवारवाद की परम्परा का सूत्रपात करने और अबतक उसको निभाते आने वाली कांग्रेस में भी एक समय में इस तरह का उठापटक था, जब इंदिरा गांघी के दोनों पुत्र संजय गांधी और राजीव गांधी दोनों थे। लेकिन संजय की मृत्यु के बाद जिस तरह से मेनका को बायकाट किया गया, राजीव राजनीति में आए और फिर उनकी मृत्यु के बाद सोनिया का जिस तरह से पदार्पण हुआ, उसके बाद से कांग्रेस में परिवारवाद तो रहा, मगर परिवारवादी घमासान की संभावना का अंत हो गया। आज सिर्फ एक सोनिया का सिक्का इस पार्टी में चलता है और उन्हीके राजनीतिक रूप से असफल पुत्र राहुल गाँधी को सफल बनाने के चक्कर में इस पार्टी का विनाश किया जा रहा है। ऐसे ही लालू की राजद तथा वामपंथी पार्टियों समेत और भी कई पार्टियों में ये परिवारवाद ऐसे ही मौजूद है।
इन सब बातों को देखने के बाद स्पष्ट है कि राष्ट्रीय स्तर पर सिर्फ एक भाजपा ही ऐसी पार्टी है, जिसे परिवारवाद का दीमक छू तक नहीं सका है। यही कारण है कि जब इस देश की जनता का भरोसा कांग्रेस से ख़त्म हो गया तो उन्होंने और किसी पर नहीं, भाजपा पर ही अपना भरोसा जताया। क्योंकि जनता को पता था कि कांग्रेसी कुशासन के अंत की सामर्थ्य तो सिर्फ भाजपा में ही है, बाकी सब पार्टियां तो किसी न किसी तरह कांग्रेस की ही अनुयायी हैं। एक भाजपा ही है, जो सबसे अलग और विचारधारा पर आधारित पार्टी है। एक सम्मलेन में जब भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से पूछा गया कि भाजपा कैसे पार्टी विद अ डिफरेंस है तो उन्होंने कहा – आप बड़े आराम से बता सकते हैं कि कांग्रेस का अगला अध्यक्ष कौन होगा, लेकिन भाजपा का अगला अध्यक्ष कौन होगा, इसका आप कोई अंदाजा भी नहीं लगा सकते। ऐसा इसलिए है कि भाजपा में कोई परिवारवाद नहीं है और उसके हिसाब से पद वितरण नहीं होता, तभी तो एक सामान्य कार्यकर्ता एक राज्य का मुख्यमंत्री होते हुए प्रधानमंत्री बन जाता है। ऐसा सिर्फ भाजपा में ही हो सकता है। इसीलिए भी भाजपा ‘पार्टी विद अ डिफरेंस’ है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं।)