सच से दूर और राजनीति से प्रेरित है कथित किसान आंदोलन

आंदोलन के नेता कह रहे है कि कृषि मंडी समाप्त हो जाएगी। जबकि वर्तमान सरकार ने कृषि मंडियों को आधुनिक बनाया है। कृषि मंडियों से खरीद के रिकार्ड कायम हुए हैं। आंदोलन के नेता कह रहे हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था समाप्त हो जाएगी, लेकिन वर्तमान सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य में अब तक की सर्वाधिक वृद्धि की है। जाहिर है कि यह आंदोलन भी सीएए विरोध की तरह विशुद्ध राजनीतिक और झूठ पर आधारित है। इस आंदोलन में होने वाली नारेबाजियां भी इसके राजनीतिक होने को प्रमाणित करती हैं। इससे किसानों का कोई लेना देना नहीं है। इसमें किसान हित का कोई विचार समाहित ही नहीं है।

देश में अस्सी प्रतिशत से अधिक किसान छोटे व मध्यम श्रेणी के हैं। इन सभी लोगों के लिए व्यवस्था में बदलाव व सुधार आवश्यक था। कृषि उत्पाद की खरीद से बिचौलिओं को हटाना व किसानों को विकल्प प्रदान करना जरूरी था। तीन नए कृषि कानूनों के माध्यम से यह कार्य किया गया। इससे बिचौलिया वर्ग को परेशानी हुई और उन्होंने किसानों के नाम पर आंदोलन की भूमिका बना दी। विगत छह-सात वर्षों से सक्रिय आंदोलनजीवियों ने इसे अवसर के रूप में लिया और कथित किसान आंदोलन शुरू हो गया। यह भरपूर सुविधाओं के साथ संचालित आंदोलन है।

नागरिकता संशोधन कानून को लेकर जिस प्रकार झूठ पर आधारित आंदोलन किया गया था, उसी प्रकार किसानों के नाम पर चल रहा यह कथित आंदोलन भी बड़े झूठ पर आधारित है। सीएए विरोध की तर्ज पर कहा जा रहा है कि कृषि कानूनों से किसानों की जमीन छीन ली जाएगी। वास्तविकता यह है कि पुरानी व्यवस्था में किसानों की आय का दायरा सीमित था, अतः कृषि में लाभ कम हो रहा था। वे बिचौलियों के शोषण का शिकार भी होते थे। नए कृषि कानूनों से किसानों को अपनी आय बढ़ाने के लिए कई तरह के विकल्प प्रदान किए गए हैं।

देश में अस्सी प्रतिशत से अधिक किसान छोटी जोत वाले हैं, लेकिन इस कथित किसान आंदोलन के नेताओं को इनकी कोई चिंता नहीं है। आंदोलन का स्वरूप अभिजात्य वर्गीय है। ऐसा आंदोलन नौ महीने क्या नौ वर्ष तक चल सकता है। आंदोलन के नेता कृषि कानूनों का काला बता रहे हैं, लेकिन उनके पास इस बात का जवाब नहीं है कि इसमें काला क्या है? वह कह रहे हैं कि किसानों की जमीन छीन ली जाएगी, लेकिन उनके पास इसका जवाब नहीं कि किस प्रकार किसान की जमीन छीन ली जाएगी?

साभार : Patrika.com

कॉन्ट्रैक्ट कृषि तो पहले से चल रही है। किसानों को इसका लाभ मिल रहा है। ऐसा करने वाले किसी भी किसान की जमीन नहीं छीनी गई। आंदोलन के नेता कह रहे है कि कृषि मंडी समाप्त हो जाएगी। जबकि वर्तमान सरकार ने कृषि मंडियों को आधुनिक बनाया है। कृषि मंडियों से खरीद के रिकार्ड कायम हुए हैं।

आंदोलन के नेता कह रहे हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था समाप्त हो जाएगी, लेकिन वर्तमान सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य में अब तक की सर्वाधिक वृद्धि की है। जाहिर है कि यह आंदोलन भी सीएए की तरह विशुद्ध राजनीतिक और झूठ पर आधारित है। इससे किसानों का कोई लेना देना नहीं है। इसमें किसान हित का कोई विचार समाहित नहीं है।

सीएए विरोधी आंदोलन जल्दी समाप्त हो गया लेकिन इस आंदोलन में किसान शब्द जुड़ा है। आंदोलनजीवियों को इसका लाभ मिल रहा है। किसान का नाम होने के कारण ही सरकार ने बारह बार इनसे वार्ता की। संचार माध्यम में भी किसान आंदोलन नाम चलता है, जबकि वास्तविक किसान इससे पूरी तरह अलग हैं। उन्हें कृषि कानूनों में कोई खराबी दिखाई नहीं दे रही है।

आंदोलन के नेता और उनका समर्थन करने वाले राजनीतिक दल अपनी जबाबदेही से बच रहे हैं। कांग्रेस आज भी कई प्रदेशों की सत्ता में है। नरेंद्र मोदी सरकार के ठीक पहले कांग्रेस की केंद्र में भी सरकार थी। ऐसी सभी पार्टियों को तो किसान हित पर बोलने का अधिकार ही नहीं है। दस वर्षों में एक बार किसानों की कर्ज माफी मात्र से कोई किसान हितैषी नहीं हो जाता।

आज हंगामा करने वाली पार्टियां स्वयं जबाबदेह हैं। उनको बताना चाहिए कि पुरानी व्यवस्था के माध्यम से उन्होंने किसानों को कितना लाभान्वित किया था? उन्हें बताना चाहिए कि क्या उस व्यवस्था में बिचौलिओं की भूमिका नहीं थी? क्या सभी किसानों की उपज मंडी में खरीद ली जाती थी? स्वामीनाथन समिति की सिफारिशें यूपीए सरकार के समय में आई थीं, लेकिन उनपर मोदी सरकार अमल कर रही है। कुछ दिन पहले कांग्रेस सवाल करती थी कि स्वामीनाथन रिपोर्ट कब लागू होगी। अब सरकार अमल कर रही है तो हंगामा किया जा रहा है। यह दोहरा आचरण कांग्रेस की राजनीति का चरित्र ही प्रकट करता है।

भाषण और बयान चल रहे हैं, किसानों के हित की दुहाई दी जा रही है, लेकिन इस कथित किसान आंदोलन का कोई नेता या विपक्ष का कोई नेता कोई यह नहीं बता रहा है कि अब तक चल रही व्यवस्था में किसानों को क्या लाभ मिल रहा था? कोई यह नहीं बता रहा है कि कितने प्रतिशत कृषि उत्पाद की खरीद मंडियों में होती थी? कोई यह नहीं बता रहा है कि पिछली व्यवस्था में बिचौलियों की क्या भूमिका थी? कोई यह नहीं बता रहा है कि कृषि उपज का वास्तविक मुनाफा किसान की जगह कौन उठा रहा था?

विपक्ष इन सवालों का जवाब देता तो स्थिति स्पष्ट होती। लेकिन वो तो बस कथित किसान आंदोलन का समर्थन कर सरकार पर निशाना साधने की कोशिश में लगा है। जनता सब देख रही है और वास्तविक मुद्दों पर आधारित आंदोलन तथा राजनीति प्रेरित आंदोलन का मतलब बखूबी समझती है। इस तरह के विपक्षी कुप्रयासों को जनता ने पहले भी चुनावों में आईना दिखाया है, निःसंदेह आगे भी दिखाएगी।

(लेखक हिन्दू पीजी कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।