कृषि कानूनों के विरोध के लिए शुरू हुआ आंदोलन अब राजनीतिक रूप लेते हुए योगी-मोदी को हटाने की मुहिम में जुट गया है। यहां सबसे अहम सवाल यह है कि क्या किसानों की बदहाली नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री और योगी आदित्यनाथ के उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के बाद शुरू हुई। सच्चाई यह है कि 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद खेती-किसानी की बदहाली दूर करने के लिए कई नवोन्मेषी योजनाएं लागू की गईं और हर किसान के बैंक खाते में सालाना 6000 रूपये भेजे जाने लगे। इसीका नतीजा है कि किसान आत्महत्याओं में उल्लेखनीय कमी आई है।
केंद्र सरकार ने हाल ही में रबी विपणन सत्र 2022-23 के लिए फसलों का समर्थन मूल्य घोषित किया है। इसमें सबसे बड़ी बात यह रही कि गेहूं का समर्थन मूल्य 1975 रूपये प्रति क्विंटल से बढ़ाकर 2015 रूपये प्रति क्विंटल किया गया। अर्थात गेहूं के एमएसपी में 40 रूपये की बढ़ोत्तरी की गई। दूसरी ओर सरसों के एमएसपी को 4650 रूपये से बढ़ाकर 5050 रूपये प्रति क्विंटल कर दिया गया है। अर्थात सरसों की एमएसपी में 400 रूपये प्रति क्विंटल की बढ़ोत्तरी की गई है।
इससे स्पष्ट है कि सरकार धीरे-धीरे खेती को गेहूं-धान के कुचक्र से निकालने की नीति पर काम कर रही है ताकि देश का संतुलित कृषि विकास हो। सरकार की यही नीति बिचौलियों, आढ़तियों, बड़े किसानों को नहीं भा रही है इसलिए वे तीन नए कृषि कानूनों का विरोध कर रहे हैं।
सबसे बड़ी विडंबना है कि कृषि कानूनों के विरोध के लिए शुरू हुआ आंदोलन अब राजनीतिक रूप लेते हुए योगी-मोदी हटाने की मुहिम में जुट गया है। यहां सबसे अहम सवाल यह है कि क्या किसानों की बदहाली नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री और योगी आदित्य नाथ के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने के बाद शुरू हुई। सच्चाई यह है कि 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद खेती-किसानी की बदहाली दूर करने के लिए कई नवोन्मेषी योजनाएं लागू की गईं और हर किसान के बैंक खाते में सालाना 6000 रूपये भेजे जाने लगे। इसीका नतीजा है कि किसान आत्महत्याओं में उल्लेखनीय कमी आई है।
देखा जाए तो मौजूदा कृषि कानून उस वक्त में बने थे जब देश खाद्यान्न के मामले में विदेशों पर निर्भर था। इसलिए खाद्यान्न फसलों की प्रमुखता देते हुए कृषि उपज खरीद, भंडारण, विपणन ढांचा तैयार किया गया था।
यह नीति एक सीमा तक कामयाब रही और देश खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बना लेकिन इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि पंजाब, हरियाणा, पश्चिम उत्तर प्रदेश और देश के कुछेक हिस्सों में स्थानीय पारिस्थितिक दशाओं की उपेक्षा करके उन फसलों की खेती को बढ़ावा मिला जिनकी सरकारी खरीद सुनिश्चित थी। इससे फसल चक्र रूका और मिटटी की कुदरती ताकत घटती चली गई। इसकी भरपाई के लिए रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों, रसायनों का इस्तेमाल बढ़ा जिससे खेती की लागत में इजाफा हुआ। इसका नतीजा यह हुआ कि खेती घाटे का सौदा बन गई।
दुर्भाग्यवश राज्य सरकारों ने खेती-किसानी की बदहाली दूर करने के बजाए मुफ्त बिजली-पानी का पासा फेंका जिससे समस्या और गंभीर हुई। एकांगी और वोट बटोरू योजनाओं का यह दुष्परिणाम हुआ कि जिस देश के गोदाम गेहूं-चावल से भरे हैं वही देश खाद्य तेल और दालों का दुनिया में सबसे बड़ा आयातक है।
खेती-किसानी की इन्हीं विसंगतियों को दूर करने के लिए मोदी सरकार तीन नए कृषि कानून लाई है। इन कानूनों का दूरगामी उद्देश्य है गेहूं, धान, गन्ना, कपास की एकफसली खेती के बजाए पारिस्थितिक दशाओं के अनुरूप विविध फसलों की खेती को बढ़ावा दिया जाए। दलहनी-तिलहनी फसलों के समर्थन मूल्य में भरपूर बढ़ोत्तरी और गेहूं-धान-गन्ना के समर्थन मूल्य में कम बढ़ोत्तरी के पीछे यही दूरगामी सोच निहित है।
सबसे बड़ी बात यह है कि नए कृषि कानूनों के तहत करोड़ों लघु व सीमांत किसानों को देश के कृषि विपणन ढांचे से जोड़ा जाएगा ताकि समर्थन मूल्य का लाभ चुनिंदा फसलों व क्षेत्रों की खेती करने वाले बड़े किसानों को ही न मिले।
दलहनी फसलों की खेती के मामले में मोदी सरकार की नीति कामयाब रही। दलहनी फसलों को प्रोत्साहन और समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद का ही नतीजा है कि दशकों बाद भारत दालों के मामले में लगभग आत्मनिर्भर बन चुका है। इससे हर साल 15,000 करोड़ रूपये की विदेशी मुद्रा की बचत हो रही है।
समग्रत: किसान आंदोलन खेती-किसानी को बदलते वक्त के साथ ढालने की सरकारी कवायद में अवरोध पैदा कर रहा है। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि इस आंदोलन को वे राजनीतिक दल समर्थन दे रहे हैं जो कृषि क्षेत्र में उदारीकरण लागू करने की पुरजोर वकालत करते रहे हैं। यही कारण है कि किसान आंदोलन का उदेश्य किसान हित न होकर राजनीतिक रूप ले चुका है।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)