हिंसक घटना उत्तर प्रदेश में होती है और बंद का आयोजन महाराष्ट्र में हो रहा है। महाराष्ट्र में बंद का आयोजन करने वाली पार्टियों ने कभी विदर्भ में हजारों किसानों की आत्महत्या पर बंद का आयोजन क्यों नहीं किया ? स्पष्ट है, यह कथित आंदोलन मोदी-योगी विरोधियों के लिए अपनी राजनीतिक जमीन बचाने का दांव बन गया है। लेकिन जनता सब देख भी रही है और समझ भी रही है, इसलिए विरोधियों का यह दांव चलने वाला नहीं है।
लखीमपुर में हुई हिंसक घटना और उसके बाद जनता की अदालत में ठुकराए गए कांग्रेस आदि दलों और उनके नेताओं में जिस तरह राजनीतिक रोटी सेंकने की मुहिम शुरू हुई है उससे यह साबित हो जाता है कि यह किसानों का किसानों के लिए आंदोलन है ही नहीं। यह आढ़तियों-बिचौलियों की ताकतवर लॉबी द्वारा संचालित आंदोलन है जिसे मोदी-योगी विरोधी खेमा उर्वर जमीन मुहैया करा रहा है। इस आंदोलन की क्या परिणति होती है यह तो वक्त बताएगा लेकिन इतना तो तय है कि ऐसे कथित आंदोलनों से खेती-किसानी को बाजार अर्थव्यवस्था से जोड़ने की राह कठिन हो जाएगी।
पिछले साल भर से जिन पुराने कृषि कानूनों को जारी रखने के पक्ष में तथाकथित किसान नेता आंदोलन कर रहे हैं वे यह नहीं बता रहे हैं कि पुराने कानूनों के चलते खेती घाटे का सौदा क्यों बन गई? 2012-13 में एक औसत भारतीय किसान परिवार की खेती से होने वाली मासिक आमदनी 3081 रूपये थी। छह साल बाद अर्थात 2018-19 में यह बढ़कर महज 3798 रूपये पर पहुंची। दूसरी ओर इन छह वर्षों में मजदूरी से होने वाली कमाई 2071 रूपये से करीब दोगुना बढ़कर 4063 रूपये हो गई।
पुराने कृषि कानूनों की ही देन है कि अब किसानों से ज्यादा मजदूरों की संख्या बढ़ रही है। उदाहरण के लिए 2013 से 2019 के बीच खेती करने वाले परिवारों की संख्या जहां 9 करोड़ से बढ़कर 9.3 करोड़ हुई वहीं कृषि कार्य में शामिल नहीं होने वाले परिवारों की संख्या 6.6 करोड़ से बढ़कर आठ करोड़ पर पहुंच गई।
2011 की जनगणना में भी बताया गया है कि हर रोज 2000 किसान खेती छोड़ रहे हैं। इसका एक कारण यह भी है कि पारिवारिक बंटवारे से खेतों का आकार इतना छोटा हो गया है कि उनमें खेती लाभकर नहीं रह गई है। खेती के घाटे का सौदा बनने का ही नतीजा है किसान का बेटा खेती करने का इच्छुक नहीं है। इतना ही नहीं कृषि विश्वविद्यालयों से स्नातक करने वाले अधिकांश छात्र अन्य व्यवसायों में जा रहे हैं।
भारतीय किसानों की बदहाली की एक बड़ी वजह यह है कि उनकी उपज की वाजिब कीमत नहीं मिलती और इसका कारण है, हर स्तर पर बिचौलियों का प्रभुत्व। इन बिचौलियों को हटाकर उत्पादकों को सीधे उपभोक्ताओं से जोड़ने की मुहिम में जुटी है मोदी सरकार। इसके लिए हर स्तर पर सूचना प्रौद्योगिकी आधारित व्यवस्था की जा रही है।
मोदी सरकार की इस मुहिम में दूसरे के श्रम पर मलाई खाने वाले बिचौलियों-आढ़तियों की कोई जगह नहीं है। सबसे बढ़कर महाराष्ट्र से लेकर पंजाब तक जो घराने इन बिचौलियों-आढ़तियों के दम पर अपनी राजनीति चमकाते थे वे अपनी राजनीति के सूख जाने की आशंका से परेशान हैं।
यही कारण है कि हिंसक घटना उत्तर प्रदेश में होती है और बंद का आयोजन महाराष्ट्र में हो रहा है। महाराष्ट्र में बंद का आयोजन करने वाली पार्टियों ने कभी विदर्भ में हजारों किसानों की आत्महत्या पर बंद का आयोजन क्यों नहीं किया ? स्पष्ट है, यह आंदोलन मोदी-योगी विरोधियों के लिए अपनी राजनीतिक जमीन बचाने का दांव बन गया है। लेकिन जनता सब देख भी रही है और समझ भी रही है, इसलिए विरोधियों का यह दांव चलने वाला नहीं है।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)