कांग्रेस अस्थिरता के दौर से गुज़र रही है। किसी भी पदाधिकारी की नियुक्ति होती है और कुछ ही दिन बाद उसे बदल दिया जाता है। ऐसा लगता है जैसे पार्टी को पता ही नहीं है कि उसे जाना किधर है और करना क्या है। जागरूक होता मतदाता अब कांग्रेस की वोटबैंक की राजनीति, तुष्टिकरण की कोरी बातों में नहीं आना चाहता। वह सकारात्मकता, प्रगति और समकालीनता चाहता है। तुष्टिकरण की राजनीति, लचर संगठन, नेतृत्व का अभाव और परिवारवाद जैसी दिक्कतों के कारण आज कांग्रेस अपने सबसे बुरे राजनीतिक दौर में पहुँच गयी है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि कांग्रेस अपने अब तक के सर्वाधिक बुरे दौर से गुजर रही है। देश के हर मोर्चे पर, हर इकाई पर होने वाले चुनावों में लगातार मिल रही हार से स्पष्ट है कि जनता ने इस सवा सौ साल पुरानी पार्टी को ताक पर रख दिया है। हाल ही में संपन्न हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने जब समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन किया था, तब वहां यह चुनाव जीतना कांग्रेस के लिए प्रतिष्ठा का ही नहीं, अस्तित्व का भी प्रश्न बन गया था।
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने इस अभियान में बढ़-चढ़कर पहल की और हर मोर्चे पर आगे रहे। लेकिन नतीजा उलट रहा। इसके पूर्ववर्ती और बाद के चुनाव, उपचुनावों में भी कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा है। कांग्रेस की असफलता से खीझकर पार्टी के भीतर ही असहमति की लहर चलने लगी है। इस दल से पीढ़ियों से जुड़े रहे क्षेत्रीय क्षत्रप और जमीनी नेताओं को संगठन के शीर्ष पर बैठे लोग रास नहीं आ रहे हैं। भीतर ही भीतर सुगबुगाहट चलती रहती है, विरोध के स्वर गूंज रहे हैं; लेकिन राहुल गांधी और सोनिया गांधी का खुला विरोध करने की हिम्मत करें भी तो कैसे करें।
दरअसल कांग्रेस ने देश पर साठ वर्षों से अधिक समय तक शासन किया जिस दौरान अधिकांश समय तक उसका रवैया किसी राजनीतिक दल का कम और घराने का अधिक रहा। दल की छवि नेहरू-गांधी परिवार की रही और सामंतशाही की जड़ें इतनी गहरी रहीं कि देश भर में वरिष्ठ पदों पर रहे कांग्रेसी अपनी क्षेत्रीयता में स्वयं को सर्वस्व समझते हुए मनमानी करते हुए देशहित और जनहित को हाशिये पर रखते रहे। धर्मनिरपेक्षता की आड़ में मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति कांग्रेस को बेहद प्रिय रही। कांग्रेस ने मुस्लिमों को सदा एक वोटबैंक के तौर पर इस्तेमाल किया। मुस्लिम वर्ग से कांग्रेस को केवल वोट के न्यस्त स्वार्थ की प्राप्ति करना होती थी, इसके सिवाय कांग्रेस ने कभी मुस्लिमों के उन्नयन पर ध्यान नहीं दिया। नतीजा, मुस्लिम पिछड़े ही रहे। कांग्रेस की इस तरह की राजनीति ने आज उसकी ये दुर्दशा कर दी है कि देश में कहीं भी चुनाव हो उसकी हार निश्चित होती है।
फलस्वरूप अब कांग्रेस के उन नेताओं का भी उससे मोहभंग हो रहा है, जिन्होंने वर्षों तक कांग्रेस की सेवा की लेकिन कांग्रेस के कुप्रशासन को सहन नहीं कर पाए। दिल्ली एमसीडी चुनाव के बाद अरविंदर सिंह लवली जैसा ख्यात नाम भाजपा में शामिल हुआ तो दिल्ली कांग्रेस अध्यक्ष अजय माकन बुरी तरह बौखला उठे। एक टीवी पर साक्षात्कार देते समय वे रो ही पड़े। असल में, कांग्रेस से हो रहा ब्रेन ड्रेन अब नियंत्रण के बाहर की बात हो गया है। दिल्ली प्रदेश महिला कांग्रेस की अध्यक्ष रहीं बरखा सिंह ने नगर निगम चुनाव में मतदान से एक दिन पहले भाजपा का दामन थाम लिया। महिला कांग्रेस अध्यक्ष बरखा शुक्ला सिंह ने भी अपने पद से इस्तीफा दिया और अजय माकन पर गंभीर आरोप भी लगाते हुए राहुल गांधी पर भी निशाना साधा। बरखा ने कहा कि पार्टी भले ही महिला सुरक्षा के मुद्दे जोर-शोर से उठाती है लेकिन इसके अंदर ही हालात दूसरे हैं।
कांग्रेस के लिए बड़ा झटका तब लगा जब कर्नाटक के पूर्व सीएम एसएम कृष्णा ने कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया। कृष्णा कांग्रेस सरकार में विदेश मंत्री भी रह चुके हैं। भाजपा की सदस्यता लेकर उन्होंने राहुल गांधी पर जमकर सियासी तीर दागे। राहुल की नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठाते हुए उन्होंने कहा कि अगर कांग्रेस को अपना राजनीतिक स्थान फिर से हासिल करना है तो उसे गांधी परिवार के वंशवादी नेतृत्व का मोह छोड़ना होगा। यह भी क्या अजीब संयोग है कि जिस नफरत की राजनीति को हथकंडा बनाकर कांग्रेस सदा भाजपा के लिए अड़चनें खड़ी करती रही, उसी नीति ने आज कांग्रेस को लगभग हर जगह से अपदस्थ कर दिया है।
यूपीए सरकार ने लोकसभा चुनाव के कुछ समय पहले जब राहुल गांधी को कांग्रेस का उपाध्यक्ष बनाया था, तभी ये अटकलें शुरू हो गईं थी कि राहुल अब कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व का संभावित चेहरा होंगे। उन्होंने संगठनात्मक बदलाव के लिए राज्यों में दौरे किए, इकाईयों का पुर्नगठन किया; लेकिन होमवर्क, मैदानी हकीकत से कटे होने और दूरदर्शिता के अभाव में राहुल गांधी अपने हर निर्णय व नीति में बुरी तरह विफल रहे। मगर जब भी राहुल गाँधी के खिलाफ संगठन में किसीने खुले तौर पर कुछ कहा, तो तत्काल उस नेता को पार्टी से बाहर का मुंह देखना पड़ा।
कांग्रेस अस्थिरता के दौर से गुज़र रही है। किसी भी पदाधिकारी की नियुक्ति होती है और कुछ ही दिन बाद उसे बदल दिया जाता है। ऐसा लगता है जैसे पार्टी को पता ही नहीं है कि उसे जाना किधर है और करना क्या है। जागरूक होता मतदाता अब कांग्रेस की वोटबैंक की राजनीति, तुष्टिकरण की कोरी बातों में नहीं आना चाहता। वह सकारात्मकता, प्रगति और समकालीनता चाहता है। वंशवाद, तुष्टिकरण की राजनीति और राजनीति में परिवारवाद लाने जैसी बुराइयों में आकंठ डूबी कांग्रेस का यदि आज पतन हो रहा है, तो इसके पीछे उसकी पाखंडपूर्ण नीतियां ही हैं। कांग्रेस का रवैया सदा दोहरा रहा है।
उदाहरण के तौर पर उल्लेखनीय होगा कि हाल ही में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने दिग्विजय सिंह को कर्नाटक और गोवा के प्रभारी महासचिव की जिम्मेदारी से हटा दिया। दिग्विजय पर गाज गिरना कांग्रेस के पाखंड का ही उदाहरण है। जब उन्हें गोवा में असफल रहने पर पद से निष्कासित किया जा सकता है, तो उप्र जैसे महत्वाकांक्षी चुनाव में मिली करारी हार के बाद भी राहुल गांधी का पद पर बने रहना किस बात का संकेत है? ऐसे ही और भी कई राज्यों के अध्यक्ष और प्रभारी कांग्रेस ने बदले हैं, मगर ये सब सिर्फ मुख्य समस्या से मुंह चुराने की कवायद लगती है। मुख्य समस्या पार्टी के नेतृत्व में है। जबतक कांग्रेस वहाँ बदलाव नहीं करती, संगठन को पुनः मजबूत नही करती और परिवारवाद जैसी बुराइयों को दूर नहीं करती तबतक उसका पतन रुकने वाला नहीं।
आज कांग्रेस के पास कोई विश्वसनीय और बड़ा लोकप्रिय चेहरा नहीं है, जिसके दम पर वह सत्ता में वापसी कर सके। हालत यह हो गयी है कि राहुल गांधी दल के संगठनात्मक बदलाव के लिए अब बकायदा साक्षात्कार आयोजित करके सवेतनिक भर्ती कर रहे हैं, लेकिन उन्हें यह पता होना चाहिए कि संगठन नौकरी की तरह लोग भर्ती करके नहीं चलता, बल्कि लोगों से जुड़ने और उनको खुद से जोड़ने से चलता है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)