राजनेताओं को यह समझना होगा कि अपने राजनीतिक नफे-नुकसान के लिए किसी व्यक्ति या संस्था पर झूठे आरोप लगाना उचित परंपरा नहीं है। कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी शायद यह भूल गए थे कि अब वह दौर नहीं रहा, जब नेता प्रोपोगंडा करके किसी को बदनाम कर देते थे। आज पारदर्शी जमाना है। आप किसी पर आरोप लगाएंगे तो उधर से सबूत मांगा जाएगा। बिना सबूत के किसी पर आरोप लगाना भारी पड़ सकता है। भले ही कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष इस मामले पर माफी माँगने से इनकार करके मुकदमे का सामना करने के लिए तैयार दिखाई देते हैं लेकिन, कहीं न कहीं उन्हें यह अहसास हो रहा होगा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर महात्मा गांधी की हत्या का अनर्गल आरोप लगाकर उन्होंने गलती की है। इसका सबूत यह भी है कि वह अदालत गए ही इसलिए थे ताकि यह प्रकरण खारिज हो जाए। गौरतलब है कि गांधी हत्या का आरोप संघ पर लगाने के मामले में कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके सीताराम केसरी को भी माफी का रास्ता चुनना पड़ा था। प्रसिद्ध स्तम्भकार एजी नूरानी को भी द स्टैटसमैन अखबार के लेख के लिए माफी मांगनी पड़ी थी।
वर्ष 1948 में जब नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या की, तब संघ को बदनाम करने और उसे खत्म करने का मौका प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को मिल गया। ‘नाथूराम गोडसे संघ का स्वयंसेवक है और गांधीजी की हत्या का षड्यंत्र आरएसएस ने रचा है।’ यह आरोप लगवाकर कांग्रेसनीत तत्कालीन सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर न केवल प्रतिबंध लगाया, बल्कि देशभर में उससे संबंद्ध नागरिकों को जेल में ठूंस दिया। परंतु, साँच को आँच क्या? तमाम षड्यंत्र के बाद भी सरकार गांधीजी की हत्या में संघ की किसी भी प्रकार की भूमिका को साबित नहीं कर सकी। संघ अग्नि परीक्षा में निर्दोष साबित हुआ। नतीजा, सरकार को संघ से प्रतिबंध हटाना पड़ा।
बहरहाल, वर्ष 2014 में ठाणे जिले के सोनाले में आयोजित चुनावी सभा में संघ को गांधी का हत्यारा बताने पर राहुल गांधी के खिलाफ आपराधिक मानहानि के मामले की सुनवाई कर रहे उच्चतम न्यायालय ने उन्हें चेतावनी देते हुए कहा है कि राहुल गांधी इस मामले में माफी माँगे या फिर मुकदमे का सामना करें। उच्चतम न्यायालय ने राहुल गांधी के भाषण पर सवाल उठाए और आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि ‘उन्होंने गलत ऐतिहासिक तथ्य का उद्धरण लेकर भाषण क्यों दिया? राहुल गांधी को इस तरह एक संगठन की सार्वजनिक रूप से निंदा नहीं करनी चाहिए थी।’ हमें गौर करना होगा कि कांग्रेस का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति विरोध और द्वेष प्रारंभ से ही है। वैचारिक विरोध और द्वेष के कारण ही कांग्रेस का एक धड़ा अनेक अवसर पर संघ को बदनाम करने का प्रयास करता रहा है।
पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर राहुल गांधी तक संघ के प्रति वही संकीर्ण नजरिया और द्वेष कायम है। साम्यवादी विचारधारा के प्रति झुकाव रखने के कारण जवाहरलाल नेहरू संघ का विरोध करते थे। वह किसी भी प्रकार संघ को दबाना चाहते थे। वर्ष 1948 में जब नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या की, तब संघ को बदनाम करने और उसे खत्म करने का मौका प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को मिल गया। ‘नाथूराम गोडसे संघ का स्वयंसेवक है और गांधीजी की हत्या का षड्यंत्र आरएसएस ने रचा है।’ यह आरोप लगवाकर कांग्रेसनीत तत्कालीन सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर न केवल प्रतिबंध लगाया, बल्कि देशभर में उससे संबंद्ध नागरिकों को जेल में ठूंस दिया। परंतु, साँच को आँच क्या? तमाम षड्यंत्र के बाद भी सरकार गांधीजी की हत्या में संघ की किसी भी प्रकार की भूमिका को साबित नहीं कर सकी। संघ अग्नि परीक्षा में निर्दोष साबित हुआ। नतीजा, सरकार को संघ से प्रतिबंध हटाना पड़ा। क्या राहुल गांधी और संघ विरोधी बता सकते हैं कि जब संघ ने महात्मा गांधी की हत्या की थी, तब कांग्रेस ने ही उससे प्रतिबंध क्यों हटाया? राहुल गांधी संभवत: अब भी यह नहीं समझ पाए हैं कि गांधीजी की हत्या नाथूराम गोडसे ने की थी, संघ ने नहीं। उन्हें इसके लिए उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी पर ध्यान देना होगा। न्यायालय ने कहा है कि गोडसे ने गांधी को मारा और संघ या संघ के लोगों ने गांधी को मारा, दोनों कथनों में बहुत बड़ा अंतर है। बहरहाल, नाथूराम गोडसे और संघ के संबंध में स्वयं गोडसे ने अदालत में कहा था कि वह किसी समय संघ की शाखा जाता था लेकिन बाद में उसने संघ छोड़ दिया। बहरहाल, यदि यह माना जाए कि एक समय गोडसे संघ का स्वयंसेवक था, इसलिए संघ गांधी हत्या के लिए जिम्मेदार है। तब यह भी बताना उचित होगा कि एक समय नाथूराम गोडसे कांग्रेस का पदाधिकारी रह चुका था। लेकिन, संघ विरोधियों ने नाथूराम गोडसे और कांग्रेस के संबंध को कभी भी प्रचारित नहीं किया। इससे स्पष्ट होता है कि आज की तरह उस समय का तथाकथित बौद्धिक नेतृत्व, वामपंथी लेखक/इतिहासकार और कांग्रेस का नेतृत्व ऐन केन प्रकारेण संघ को कुचलना चाहता था। यह सच है कि एक समय में नाथूराम गोडसे संघ की गतिविधियों में शामिल रहा। लेकिन, यह भी उतना ही सच है कि वह संघ की विचारधारा के साथ संतुलन नहीं बैठा सका। संभवत: वह संघ को कट्टर हिन्दूवादी संगठन समझकर उससे जुड़ा था। लेकिन, बाद में जब आरएसएस के संबंध में गोडसे की छवि ध्वस्त हुई, तब गोडसे न केवल संघ से अलग हुआ बल्कि एक हद तक संघ का मुखर विरोधी भी बन गया था। उनके समाचार पत्र ‘हिन्दू राष्ट्र’ में संघ विरोधी आलेख प्रकाशित होते थे। गोडसे ने संघ की आलोचना करते हुए सावरकर को पत्र भी लिखा था। इस पत्र में उसने लिखा कि संघ हिन्दू युवाओं की ऊर्जा को बर्बाद कर रहा है, इससे कोई आशा नहीं की जा सकती। स्पष्ट है कि गोडसे संघ समर्थक नहीं, बल्कि संघ विरोधी था। गांधी हत्या की जांच के लिए गठित कपूर आयोग को दी अपनी गवाही में आरएन बनर्जी ने भी इस सत्य को उद्घाटित किया था। बनर्जी की की गवाही इस मामले में बहुत महत्त्वपूर्ण थी। क्योंकि, गांधीजी की हत्या के समय आरएन बनर्जी केन्द्रीय गृह सचिव थे। ‘बनर्जी ने अपने बयान में कहा था कि यह साबित नहीं हुआ है कि वे (अपराधीगण) संघ के सदस्य थे। वे तो संघ की गतिविधियों से संतुष्ट नहीं थे। संघ के खेलकूद, शारीरिक व्यायाम आदि को वे व्यर्थ मानते थे। वे अधिक उग्र और हिंसक गतिविधियों में विश्वास रखते थे।’ (कपूर आयोग रिपोर्ट खंड 1 पृष्ठ 164) इसमें कोई शक नहीं बिना साक्ष्यों को ठीक से समझे, अथवा सबकुछ समझकर साजिशन संघ के खिलाफ बौद्धिक कुचक्र रचने की कोशिश हुई है। अदालत के हालिया आदेश के बाद इन साजिशों को एकबार और झटका लगा है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)