शंकर शरण
हमारे अनेक बुद्धिजीवी एक भ्रांति के शिकार हैं, जो समझते हैं कि गौतम बुद्ध के साथ भारत में कोई नया ‘धर्म’ आरंभ हुआ। तथा यह पूर्ववर्ती हिन्दू धर्म के विरुद्ध ‘विद्रोह’ था। यह पूरी तरह कपोल-कल्पना है कि बुद्ध ने जाति-भेदों को तोड़ डाला, और किसी समता-मूलक दर्शन या समाज की स्थापना की। कुछ वामपंथी लेखकों ने तो बुद्ध को मानो कार्ल मार्क्स का पूर्व-रूप जैसा दिखाने का यत्न किया है। मानो वर्ग-विहीन समाज बनाने का विचार बुद्ध से ही शुरू हुआ देखा जा सकता है, आदि। लेकिन यदि गौतम बुद्ध के जीवन, विचार और कार्यों पर संपूर्ण दृष्टि डालें, तो उन के जीवन में एक भी प्रसंग नहीं कि उन्होंने वंश और जाति-व्यवहार की अवहेलना करने को कहा हो। उलटे, जब उन के मित्रों या अनुयायों के बीच दुविधा के प्रसंग आए, तो बुद्ध ने स्पष्ट रूप से पहले से चली आ रही रीतियों का सम्मान करने को कहा।
एक बार जब गौतम बुद्ध के मित्र प्रसेनादी को पता चला कि उन की पत्नी पूरी शाक्य नहीं, बल्कि एक दासी से उत्पन्न शाक्य राजा की पुत्री है, तब उस ने उस का और उस से हुए अपने पुत्र का परित्याग कर दिया। किन्तु बुद्ध ने अपने मित्र को समझा कर उस का कदम वापस करवाया। तर्क यही दिया कि पंरपरा से संतान की जाति पिता से निर्धारित होती है, इसलिए शाक्य राजा की पुत्री शाक्य है। यदि बुद्ध को जाति-प्रथा से कोई विद्रोह करना होता, या नया मत चलाना होता, तो उपयुक्त होता कि वे सामाजिक, जातीय परंपराओं का तिरस्कार करने को कहते। बुद्ध ने ऐसा कुछ नहीं किया। कभी नहीं किया। बुद्ध का यह व्यवहार सुसंगत था। तुलनात्मक धर्म के प्रसिद्ध ज्ञाता डॉ. कोएनराड एल्स्ट ने इस पर बड़ी मार्के की बात कही है कि जिसे संसार को आध्यात्मिक शिक्षा देनी हो, वह सामाजिक मामलों में कम से कम दखल देगा। कोई क्रांति करना, नया राजनीतिक-आर्थिक कार्यक्रम चलाना तो बड़ी दूर की बात रही! एल्स्ट के अनुसार, ‘यदि किसी आदमी के लिए अपनी ही मामूली कामनाएं संतुष्ट करना एक विकट काम होता है, तब किसी कल्पित समानतावादी समाज की अंतहीन इच्छाएं पूरी करने की ठानना कितना अंतहीन भटकाव होगा!
अपने जीवन के अंत में बुद्ध ने जीवन के सात सिद्धांतों का उल्लेख किया था, जिन का पालन करने पर कोई समाज नष्ट नहीं होता। प्रसिद्ध इतिहासकार सीताराम गोयल ने अपने सुंदर उपन्यास ‘सप्त-शील’ (1960) में उसी को वैशाली गणतंत्र की पृष्ठभूमि में अपना कथ्य बनाया है। इन सात सदगुणों में यह भी हैं – अपने पर्व-त्योहार का आदर करना एवं मनाना, तीर्थ व अनुष्ठान्न करना, साधु-संतों का सत्कार करना। हमारे अनेक त्योहार वैदिक मूल के हैं। बुद्ध से समय भी पर्व-त्योहार अपने से पहले के ही थे।
अतः यदि बुद्ध को अपना आध्यात्मिक संदेश देना था, तो यह तर्कपूर्ण था कि वे सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व्यवस्थाओं में कम-से-कम हस्तक्षेप करते। उन की चिन्ता कोई ‘ब्राह्मण-वाद के विरुद्ध विद्रोह’, राजनीतिक कार्यक्रम, आदि की थी ही नहीं, जो आज के मार्क्सवादी, नेहरूवादी या कुछ अंबेदकरवादी उन में देखते या भरते रहते हैं। इसीलिए स्वभावतः बुद्ध के चुने हुए शिष्यों में लगभग आधे लोग ब्राह्मण थे। उन्हीं के बीच से वे अधिकांश प्रखर दार्शनिक उभरे, जिन्होंने समय के साथ बौद्ध-दर्शन और ग्रंथों को महान-चिंतन और गहन तर्क-प्रणाली का पर्याय बना दिया। यह भी एक तथ्य है कि भारत के महान विश्वविद्यालय बुद्ध से पहले की चीज हैं। तक्षशिला का प्रसिद्ध विश्वविद्यालय गौतम बुद्ध के पहले से था, जिस में बुद्ध के मित्र बंधुला और प्रसेनादी पढ़े थे। कुछ विद्वानों के अनुसार स्वयं सिद्धार्थ गौतम भी वहाँ पढ़े थे। अतः यह कहना उपयुक्त होगा कि बौद्धों ने उन्हीं संस्थाओं को और मजबूत किया जो उन्हें हिन्दू समाज द्वारा पहले से मिली थी। बाद में, बौद्ध विश्वविद्यालयों ने भी आर्यभट्ट जैसे अनेक गैर-बौद्ध वैज्ञानिकों को भी प्रशिक्षित किया। इसलिए, वस्तुतः चिंतन, शिक्षा और लोकाचार किसी में बुद्ध ने कोई ऐसी नई शुरुआत नहीं की थी जिसे पूर्ववर्ती ज्ञान, परंपरा या धर्म का प्रतिरोधी कहा जा सकता हो। ध्यान दें, बुद्ध ने भविष्य में अपने जैसे किसी और ज्ञानी (‘मैत्रेय’, मित्रता-भाईचारा का पालक) के आगमन की भी भविष्यवाणी की थी, और यह भी कहा कि वह ब्राह्मण कुल में जन्म लेगा। यदि बुद्ध के लिए कुल, जाति और वंश महत्वहीन होते, तो वे ऐसा नहीं कह सकते थे। उन्होंने अपने मित्र प्रसेनादी को वही समझाया, जो सब से प्राचीन उपनिषद में सत्यकाम जाबालि के संबंध में तय किया गया था। कि यदि उस की माता दासी भी थी, तब भी परिस्थिति उस के पिता को ब्राह्मण कुल का ही कोई व्यक्ति दिखाती थी, अतः वह ब्राह्मण बालक था और इस प्रकार अपने गुरू द्वारा स्वीकार्य शिष्य हुआ। उसी पारंपरिक रीति का पालन करने की सलाह बुद्ध ने अपने मित्र को दी थी। इसीलिए वास्तविक इतिहास यह है कि पूर्वी भारत में गंगा के मैदानों वाले बड़े शासकों, क्षत्रपों ने गौतम बुद्ध का सत्कार अपने बीच के विशिष्ट व्यक्ति के रूप में किया था। क्योंकि बुद्ध वही थे भी। उन्हीं शासकों ने बुद्ध के अनुयायियों, भिक्षुओं के लिए बड़े-बड़े मठ, विहार बनवाए। जब बुद्ध का देहावसान हुआ, तब आठ नगरों के शासकों और बड़े लोगों ने उन की अस्थि-भस्मी पर सफल दावा किया थाः ‘हम क्षत्रिय हैं, बुद्ध क्षत्रिय थे, इसलिए उन के भस्म पर हमारा अधिकार है।’ बुद्ध के देहांत के लगभग आधी शती बाद तक बुद्ध के शिष्य सार्वजनिक रूप से अपने जातीय नियमों का पालन निस्संकोच करते मिलते हैं। यह सहज था, क्योंकि बुद्ध ने उन से अपने जातीय संबंध तोड़ने की बात कभी नहीं कही। जैसे, अपनी बेटियों को विवाह में किसी और जाति के व्यक्ति को देना, आदि।
अतः ऐतिहासिक तथ्य यह है कि हिन्दू समाज से अलग कोई अ-हिन्दू बौद्ध समाज भारत में कभी नहीं रहा। अधिकांश हिन्दू विविध देवी-देवताओं की उपासना करते रहे हैं। उसी में कभी किसी को जोड़ते, हटाते भी रहे हैं। जैसे, आज किसी-किसी हिन्दू के घर में रामकृष्ण, श्रीअरविन्द या डॉ. अंबेदकर भी उसी पंक्ति में मिल जाएंगे जहाँ शिव-पार्वती या राम, दुर्गा, आदि विराजमान रहते हैं। गौतम बुद्ध, संत कबीर या गुरू नानक के उपासक उसी प्रकार के थे। वे अलग से कोई बौद्ध या सिख लोग नहीं थे। पुराने बौद्ध विहारों, मठों, मंदिरों को भी देखें तो उन में वैदिक प्रतीकों और वास्तु-शास्त्र की बहुतायत मिलेगी। वे पुराने हिन्दू नमूनों का ही अनुकरण करते रहे हैं। बौद्ध मंत्रों में, भारत से बाहर भी, वैदिक मंत्रों की अनुकृति मिलती है। जब बुद्ध धर्म भारत से बाहर फैला, जैसे चीन, जापान, स्याम, आदि देशों में, तो यहाँ से वैदिक देवता भी बाहर गए। उदाहरण के लिए, जापान के हरेक नगर में देवी सरस्वती का मंदिर है। सरस्वती को वहाँ ले जाने वाले ‘धूर्त ब्राह्मण’ नहीं, बल्कि बौद्ध लोग थे!
अपने जीवन के अंत में बुद्ध ने जीवन के सात सिद्धांतों का उल्लेख किया था, जिन का पालन करने पर कोई समाज नष्ट नहीं होता। प्रसिद्ध इतिहासकार सीताराम गोयल ने अपने सुंदर उपन्यास ‘सप्त-शील’ (1960) में उसी को वैशाली गणतंत्र की पृष्ठभूमि में अपना कथ्य बनाया है। इन सात सदगुणों में यह भी हैं – अपने पर्व-त्योहार का आदर करना एवं मनाना, तीर्थ व अनुष्ठान्न करना, साधु-संतों का सत्कार करना। हमारे अनेक त्योहार वैदिक मूल के हैं। बुद्ध से समय भी पर्व-त्योहार अपने से पहले के ही थे। महाभारत में भी नदी किनारे तीर्थ करने के विवरण मिलते हैं। सरस्वती और गंगा के तटों पर बलराम और पांडव तीर्थ करने गए थे। अतः जहाँ तक सामाजिक और धार्मिक व्यवहारों की बात है, बुद्ध ने कभी पुराने व्यवहारों के विरुद्ध कुछ नहीं कहा। यदि कुछ कहा, तो उन का आदर और पालन करने के लिए ही। इस प्रकार, कोई विद्रोही या क्रांतिकारी होने से ठीक उलट, गौतम बुद्ध पूरी तरह परंपरावादी थे। उन्होंने चालू राजनीतिक या सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने की सलाह दी थी। वे आजीवन एक हिन्दू दार्शनिक रहे। डॉ. एल्स्ट के शब्दों में, ‘बुद्ध अपने पोर-पोर में हिन्दू थे।’ लेकिन ठीक इसी बात को नकारने के लिए बुद्ध धर्म की भ्रांत व्याख्या की जाती रही है। इसे परखना चाहिए।