शिवानन्द द्विवेदी
किसी रचना अथवा कृति का एक भाषा से दुसरी भाषा में अनुवाद तो साहित्य-सृजन की एक आम प्रक्रिया है,मगर भाषा के साथ-साथ बिना भावार्थ बदले किसी कृति की मूल विधा को अन्य विधा में अनुवादित करना एक अद्दभुत किस्म का रचनाकर्म है। वेद-व्यास कृत श्रीमदभगवद गीता भारतीय संस्कृति की एक ऐसी पुस्तक है जो महज पुस्तक नहीं बल्कि घर-घर एवं व्यक्ति-व्यक्ति के आस्था का केंद्र-बिंदु भी है। अट्ठारह अध्यायों एवं सात सौ संस्कृत श्लोकों वाली पुस्तक श्रीमदभगवद गीता का अट्ठारह अध्यायों एवं सात सौ दोहों में “आत्मतोषिणी गीता” नाम से पद्यानुवाद का अनूठा रचना-कर्म पं. जुगुल किशोर तिवारी द्वारा किया गया है।
साहित्य और कृति एक विधा से दुसरी विधा में जाकर और अधिक संपन्न एवं समृद्ध होती है। उदाहरणार्थ, पुस्तक के चौथे अध्याय में एक श्लोक का दोहनुवाद करते हुए अनुवादक लिखते हैं “कर्मयोग करते हुए,करो समर्पण कर्म/कर्म बंध मिट जाय सब,यही धर्म का मर्म” । कुछ इसी ढंग से सहज शब्दों एवं सामान भावार्थों के साथ लेखक नें गीता के समस्त सात सौ श्लोकों का पद्यानुवाद किया है। कुल मिलाकर अगर देखा जाय तो विजय प्रकाशन मंदिर, वाराणसी से प्रकाशित यह अनुवादित पुस्तक अपने आप में एक अनोखी एवं अद्वितीय अनुवाद कृति है, क्योंकि अब से पहले गीता का अनुवाद दोहा विधा में संभवत: पहले कभी नही हुआ है।
मूल रूप से संस्कृत भाषा की इस पुस्तक का हिन्दी भाषा में अनुवाद तो आमतौर पर सहज उपलब्ध रहता है लेकिन इस कृति का पद्यानुवाद करना अभी तक अद्वितीय रचनाकर्म है। इस पुरे अनुवाद-कर्म की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि सात सौ श्लोकों के लिए लिखे गए सात सौ दोहों में कहीं भी मूल भावार्थ नहीं बदला है बल्कि वही बात दोहे भी कहते नजर आते हैं जो बातें श्लोक में कही गयी है। हिन्दी साहित्य में दोहा-छंद एक ऐसी विधा है जो शुरुआती दौर में तो खूब प्रचलित रही लेकिन वर्तमान के रचनाकर्म में इस विधा को ही हाशिए पर धकेल दिया गया। पारंपरिक साहित्यिक कृतियों में दोहा विधा की जितनी उपस्थिति देखी जाती है उसकी अपेक्षा आधुनिक साहित्य के रचनाकर्म में उसकी उपस्थिति न के बराबर है। ऐसे में जब दोहा,चौपाई,सोरठा जैसे छंद हाशिए का विषय बनते जा रहे हों तब किसी अन्य विधा एवं भाषा की कृति को दोहा विधा में अनुवादित करना अनुवाद के माध्यम से विधाओं के प्रसार में कारगर हो सकता है। सेवा से एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के तौर पर सेवारत पं. जुगुल किशोर तिवारी बताते हैं “गीता आस्था की पूजनीय पुस्तक ही नही बल्कि समाज के लिए सबसे बड़ी उपदेशिका भी है। लिहाजा, यह नि:तांत आवश्यक है कि इसको अत्यंत सहज शब्दावलियों,विधाओं एवं भाषाओं में समाज के समक्ष रखा जाय। अनेकानेक बार आम जनमानस की पठनीयता की दृष्टि श्लोक जितने कठिन हैं गद्य उतना ही बोझिल होने लगता है। ऐसे में काव्य विधाओं में साहित्य और कथ्य की उपस्थिति होना पाठकों के लिहाज से बेहतर होता है। गीता हर आम और खास तक पहुंचनी चाहिए, चाहें वो जिस भाषा में, जिस विधा में पहुंचे।“
इस पुरे कृति को न सिर्फ एक धार्मिक पुस्तक के तौर पर देखे जाने की जरुरत है बल्कि इसे साहित्य समृद्धि एवं अनुवाद-कर्म के दृष्टिकोंण से परखने की भी जरुरत है। अगर भावार्थ बदले बिना किसी अन्य विधा का दुसरी विधा में अनुवाद होता हो तो यह एक सार्थक साहित्यिक सेवाकार्य है। साहित्य और कृति एक विधा से दुसरी विधा में जाकर और अधिक संपन्न एवं समृद्ध होती है। उदाहरणार्थ, पुस्तक के चौथे अध्याय में एक श्लोक का दोहनुवाद करते हुए अनुवादक लिखते हैं “कर्मयोग करते हुए,करो समर्पण कर्म/कर्म बंध मिट जाय सब,यही धर्म का मर्म” । कुछ इसी ढंग से सहज शब्दों एवं सामान भावार्थों के साथ लेखक नें गीता के समस्त सात सौ श्लोकों का पद्यानुवाद किया है। कुल मिलाकर अगर देखा जाय तो विजय प्रकाशन मंदिर, वाराणसी से प्रकाशित यह अनुवादित पुस्तक अपने आप में एक अनोखी एवं अद्वितीय अनुवाद कृति है, क्योंकि अब से पहले गीता का अनुवाद दोहा विधा में संभवत: पहले कभी नही हुआ है।