लंबे अरसे की उपेक्षा के बाद मोदी सरकार ने देसी बीजों की सुध ली है। इसकी शुरूआत कपास से हो रही है। सरकार ने 2017 के आखिर तक कपास किसानों को नए देसी कपास के बीज मुहैया कराने का लक्ष्य रखा है। ज्यादा उपज देने वाले इन बीजों की लागत कम आएगी और इनसे तैयार होने वाली फसल पर ह्वाईट फ्लाई, पिंक वालवर्म और लीफ कर्ल जैसी बीमारियों व कीटाणुओं का असर नहीं होगा। इसी तरह दलहनी-तिलहनी फसलों के अधिक उपज देने वाले देसी बीजों का विकास हो रहा है।
भले ही विरोधी मोदी सरकार को सूट-बूट वालों की सरकार का तमगा दें लेकिन सच्चाई यह है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही नरेंद्र मोदी किसानों, मजदूरों, गरीबों के कल्याण के लिए दिन-रात एक किए हुए हैं। ग्रामीण सड़क, बिजली, मृदा कार्ड, सिंचाई, फसल बीमा, राष्ट्रीय कृषि मंडी, खाद्य प्रसंस्करण के क्षेत्र में जितना काम पिछले तीन वर्षों में हुआ उतना तीन दशकों में भी नहीं हुआ था।
प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने न सिर्फ घरेलू बीज विकास की ओर ध्यान दिया बल्कि दिग्गज अमेरिकी कंपनी मोनसेंटों को झटका देते हुए बीटी कपास की एक समान कीमत तय कर दी। इसका नतीजा है कि पहले कपास के बीज के जिस पैकेट के लिए किसानों को साढ़े आठ सौ से डेढ़ हजार रूपये तक चुकाने पड़ते थे, उसकी कीमत 635 रूपये तय कर दिया गया। इससे 80 लाख कपास किसानों को फायदा हो रहा है। इतना ही नहीं, सरकार ने कठोर कदम उठाते हुए घरेलू बीज कंपनियों की ओर से मानसेंटों को दी जाने वाली रॉयल्टी में भी 70 फीसदी तक की कटौती कर दी है।
गौरतलब है कि भारत में मोनसेंटों महिको बॉयोटेक इंडिया (एमएमबीएल) तकरीबन 50 घरेलू बीज उत्पादक देसी कंपनियों को अपनी पेटेंट बोलगार्ड-2 कपास की किस्म बनाने की तकनीक रॉयल्टी लेकर देती रही है। देसी कंपनियां लंबे अरसे से इसका विरोध करती रही हैं, क्योंकि उन्हें मोनसेंटों को जीएम तकनीक लेने के लिए 50 लाख रूपये की एकमुश्त राशि देनी पड़ती है और फिर हर पैकेट पर अलग से रॉयल्टी का भुगतान भी करना पड़ता है। अब भारत में एमएमबीएल को प्रति पैकेट सिर्फ 49 रूपये की रॉयल्टी मिल रही है।
देश के अनुसंधान संस्थानों से निकले बीजों से हरित क्रांति आई थी, लेकिन आगे चलकर अधिकांश सरकारें बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियों के आगे समर्पण करती गईं जिससे देशी बीजों का विकास थम गया। उदाहरण के लिए भारत के कृषि विश्वविद्यालय देसी बीजों के बजाय मोनसेंटों जैसी कंपनियों द्वारा चिन्हित फसलों पर शोध कार्य कर रहे हैं। यह स्थिति तब है, जब भारत में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा सार्वजनिक क्षेत्र का कृषि शोध तंत्र मौजूद है।
बीज विकास में कॉर्पोरेट घरानों के बढ़ते वर्चस्व से न सिर्फ किसान कंगाल बने बल्कि देश की खाद्य सुरक्षा पर भी खतरे के बादल मंडराने लगे। इसका कारण है कि तथाकथित उन्नत बीज स्थानीय पारिस्थितिक दशाओं की उपेक्षा करके ऊपर से थोपे जाते हैं। इसीलिए इन्हें अधिक पानी, उर्वरक, कीटनाशक, रसायन की जरूरत पड़ती है। फिर इन बीजों को खरीदने के लिए किसानों को हर साल मोटी रकम चुकानी पड़ती है। इस प्रकार महंगे बीज, उर्वरक और कीटनाशकों के चक्कर में किसान कर्ज के जाल में फंसते जाते हैं जो उन्हें आत्महत्या की दशा तक पहुंचा देता है।
कॉर्पोरेट घराने वैश्विक खाद्य तंत्र पर कब्जे की शुरूआत खेती के मूल आधार (बीज) से करते हैं और इसके लिए पेटेंट व बौद्धिक संपदा अधिकार का सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करते हैं। इससे विविधतापूर्ण बीज कारोबार मुट्ठी भर कंपनियों के हाथ में सिमटता जा रहा है। उदाहरण के लिए तीन दशक पहले जहां हजारों कंपनियां बीज उत्पादन करती थीं, वहीं आज दुनिया की दस चोटी की कंपनियां कुल बीज उत्पादन के 67 फीसदी हिस्से पर कब्जा जमा चुकी हैं और इनका हिस्सा लगातार बढ़ता ही जा रहा है।
इसी प्रकार टॉप टेन कंपनियां कीटनाशकों के 90 फीसदी कारोबार पर नियंत्रण कर चुकी हैं। जैसे-जैसे वाणिज्यिक बीज प्रणाली का आधिपत्य बढ़ रहा है, वैसे-वैसे कृषि जैव विविधता खतरे में पड़ती जा रही है। इसका सर्वाधिक खामियाजा विकासशील देशों को भुगतना पड़ रहा है। उदाहरण के लिए पिछले 50 वर्षों के दौरान विभिन्न फसलों की सूखा व बाढ़ रोधी हजारों किस्में गायब हो चुकी हैं।
सबसे बड़ी बात है कि ये कंपनियां हाइब्रिड प्रजाति के जिन बीजों को तैयार कर रही हैं, वे विकसित देशों के धनी किसानों की जरूरतों पर आधारित है। उष्ण कटिबंधीय फसलें इस शोध कार्य में पूरी तरह उपेक्षित हैं, जबकि इन फसलों से करोड़ों लघु व सीमांत किसानों की आजीविका जुड़ी हुई है। यही कारण है कि इन देशों के करोड़ों किसानों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के महंगे बीज खरीदने के लिए बाध्य होना पड़ रहा है।
दूसरे, इससे विविध फसलों के स्थान पर कुछेक चुनिंदा फसलों की खेती को बढ़ावा मिल रहा है जिनकी अंतरराष्ट्रीय बाजार में भरपूर मांग है। इस प्रक्रिया में पेट के लिए नहीं, बल्कि बाजार के लिए खेती को बढ़ावा मिला। तीसरे, बीज क्षेत्र में जो शोध कार्य हो रहे हैं, उनमें विकासशील देश बहुराष्ट्रीय बायोटेक बीज कंपनियों के इशारे पर नाचने लगे हैं।
लंबे अरसे की उपेक्षा के बाद मोदी सरकार ने देसी बीजों की सुध ली है। इसकी शुरूआत कपास से हो रही है। सरकार ने 2017 के आखिर तक कपास किसानों को नए देसी कपास के बीज मुहैया कराने का लक्ष्य रखा है। ज्यादा उपज देने वाले इन बीजों की लागत कम आएगी और इनसे तैयार होने वाली फसल पर ह्वाईट फ्लाई, पिंक वालवर्म और लीफ कर्ल जैसी बीमारियों व कीटाणुओं का असर नहीं होगा। इसी तरह दलहनी-तिलहनी फसलों के अधिक उपज देने वाले देसी बीजों का विकास हो रहा है।
सबसे बढ़कर सरकार “प्रयोगशाला से भूमि” तक की कड़ी को मजबूत बना रही है ताकि देसी बीज किसानों तक आसानी से पहुंच जाएं। इतना ही नहीं, मोदी सरकार भारत को वैश्विक बीज आपूर्तिकर्ता के रूप में स्थापित करने की दिशा में काम कर रही है। भारत के पास अन्य देशों की तुलना में सस्ती लागत पर बीज उत्पादन की क्षमता है। ऐसे में हमारे बीज बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बीजों की तुलना में सस्ते पड़ेंगे और वे उनको कड़ी प्रतिस्पर्धा देंगे। स्पष्ट है, मोदी सरकार एक ओर घरेलू किसानों को सस्ती दर पर उन्नत बीज मुहैया करा रही है, तो दूसरी ओर बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियों के लिए खतरे की घंटी बजा रही है।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)