आर्थिक संपन्नता और स्वतंत्रता की दिशा में ठोस कदम है जीएसटी

अगर स्वतंत्र भारत के शुरूआती चार दशकों का इतिहास देखें तो हम पायेंगे कि तत्कालीन कांग्रेस सरकार की समाजवादी एवं साम्यवादी आर्थिक नीतियों ने एक बंद अर्थव्यवस्था विकसित की थी, जहाँ परमिट और लायसेंस की प्रणाली हमारी आर्थिक सुगमता में बाधक की तरह काम करती रही। वह नीतियों इस देश की मूल अर्थ चिन्तन के अनुरूप नहीं थीं, परिणामत: सार्वजनिक वस्तुओं के वितरण एवं अवसरों की उपलब्धता आदि की स्थिति बेहद लचर होती गयी। जीडीपी विकास की दर भी बेहद औसत दर्जे की बनी रही। ऐसे में आर्थिक सुधारों की शुरुआत के बाद से अबतक अप्रत्यक्ष करों में सुधार से जुड़ा यह कार्य नहीं हो सका था, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार में अब पूरा किया गया है।

भाजपानीत केंद्र सरकार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बहुप्रतीक्षित गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) को संसद से पारित कराने में ऐतिहासिक सफलता प्राप्त की है। केंद्र सरकार के इस सफल प्रयास की बदौलत अब अप्रत्यक्ष करों के मामले में देश में ‘एक राष्ट्र एक कर” की अवधारणा को मूर्त रूप दिया जाना संभव हो सका है। अप्रत्यक्ष कर प्रणाली में सुधार के लिहाज से अगर जीएसटी को देखा जाए तो यह सरकार द्वारा उठाया गया एक महत्वपूर्ण कदम है। रोजगार के अवसर, व्यापार में सुगमता और निवेश की दृष्टि से जीएसटी के फायदे भविष्य में स्पष्ट तौर पर दिखने लगेंगे। इससे होने वाले फायदों और बदलावों पर बात करने से पहले में भारतीय कर प्रणाली के परंपरागत चिन्तन व दर्शन पर विचार करना होगा। पिछले दिनों मैंने राज्यसभा में अपने भाषण के दौरान भी जिक्र किया था और इस लेख के माध्यम से भी कुछ ऐसे तथ्यों को रखना चाहता हूँ जो भारतीय अर्थचिन्तन और कर प्रणाली के मूल को प्रदर्शित करते हैं।

कर प्रणाली के संबंध में महाभारत के शांतिपर्व का भीष्म-युधिष्ठिर संवाद उल्लेखनीय है। शान्तिपर्व के अध्याय 88 में भीष्म कहते हैं कि जैसे मधुमक्खी फूलों से धीरे-धीरे मधु इकट्ठा करती है, उसी प्रकार राजा को भी अपने राज्य से धीरे-धीरे कर संग्रहण करना चाहिए। अर्थात, कर वह अच्छा है जो राज्य की जनता को तकलीफ न दे और उसपर जरूरत से अधिक भार न पड़े। जीएसटी पर बात करते समय हमें यह गौर करना होगा कि हम देश को एक राजनीतिक संघ के रूप में तो देखते आए हैं, लेकिन आर्थिक संघ बनाने की दिशा में ठोस काम अबतक नहीं हुआ था। जीएसटी आने के बाद जब पूरे देश में समान अप्रत्यक्ष कर प्रणाली लागू हो रही है, तो हम देश को आर्थिक यूनियन के तौर पर विकसित करने की दिशा में कदम बढ़ा चुके हैं।

साभार : गूगल

साधारण मान्यता है कि जब अप्रत्यक्ष कर लगाया जाता है, तो समान रूप से उसका बोझ देश के सभी अमीर और गरीब तबकों पर पड़ता है। ऐसे में करों के ऊपर कर के अधिभार से देश की गरीब और आम जनता ज्यादा प्रभावित होती है, लिहाजा इससे होने वाली दिक्कतें गरीब तबके को ही ज्यादा परेशान करती हैं। हमें गौर करना होगा कि हमारे देश में क्षेत्रीय स्तर पर, भौगोलिक स्तर पर, आर्थिक स्तर पर और सामजिक स्तर पर असमानता और विविधता की स्थिति है। ऐसे में अप्रत्यक्ष कर प्रणाली में सुधार की जरूरत को महसूस किया जा रहा था।

इस समस्या पर ध्यान देते हुए भाजपानीत सरकार ने संघवाद के ढांचागत आधार को मजबूत करते हुए विधानमंडलों और संसद के माध्यम से एक प्रतिनिधि संस्था जीएसटी काउंसिल की रचना के माध्यम से इस कार्य को मूर्त रूप देने का कार्य किया है। संघीय ढाँचे में लोकतान्त्रिक प्रणाली से सहमति और न्यूनतम साझेदारी की नीति पर चलते हुए जीएसटी काउंसिल का निर्माण किया गया, जिससे उन विषयों पर कर सुधार से जुड़े प्रगति कार्य को आगे बढ़ाया जाए जो अनिवार्य हों। इसी के आधार पर इस कांउसिल ने चार स्तरों पर अप्रत्यक्ष कर प्रणाली को वर्गीकृत किया है।

देश में औद्योगिक वातावरण को सुदृढ़ बनाने के लिए चाहें कारोबार में सुगमता अर्थात ईज ऑफ़ डूइंग बिजनेस का प्रश्न हो अथवा आधारभूत संरचना का बेहतरी के साथ इस्तेमाल कैसे हो, इस विषय पर समाधान देने की दिशा में जीएसटी एक कारगर उपाय के रूप में साबित होगा। अप्रत्यक्ष कर प्रणाली समान नहीं होने के कारण अलग-अलग राज्यों में करों में असमानता की वजह से एक व्यापारिक असंतुलन की स्थिति भी पैदा हुई है, जिसका समाधान जीएसटी से प्राप्त किया जा सकेगा।

उदाहरण के तौर पर देखें तो अगर कश्मीर से कोई मालवाहक ट्रक कन्याकुमारी तक जाता है, तो रास्ते में उसे कर असामनता के अनेक बैरियर झेलने पड़ते हैं। लेकिन जीएसटी लागू होने के बाद हम व्यापरिक दृष्टि से पैदा होने वाली बाधाओं को काफी हद तक कम करते हुए एक निर्बाध व्यापारिक माहौल दे पाने में सफलता हासिल कर सकेंगे। देश में रोजगार के अवसरों में कमी की बात अकसर लोग करते हैं; लेकिन ये कमी कैसे पूरी हो, जब इस विषय पर हम ध्यान देते हैं, तो व्यापारिक सुगमता का प्रश्न साफ़ तौर पर कारक के रूप में नजर आता है।

साभार : गूगल

इसमें कोई दो राय नहीं कि अगर हम देश में निर्बाध और सुगम व्यापारिक माहौल दे पाने में कामयाब होते हैं, तो रोजगार के अवसर स्वत: पैदा होने लगेंगे। हालांकि इस दिशा में प्रयास किया जाता है, तो कुछ लोग इसे गलत तथ्यों के साथ तोड़-मरोड़ कर पेश करने लगते हैं। लेकिन भारतीय अर्थचिंतन के मूल में जाने पर हमें ज्ञात होता है कि व्यापारिक सुगमता को लेकर भारत की दृष्टि बेहद सकारात्मक रही है। महाभारत के शांतिपर्व में इस बात का जिक्र है कि राज्य को व्यापारियों की रक्षा और उनके हितों का ख्याल पुत्र की भांति करना चाहिए।

अगर स्वतंत्र भारत के शुरूआती चार दशकों का इतिहास देखें तो हम पायेंगे कि तत्कालीन कांग्रेस सरकार की समाजवादी एवं साम्यवादी आर्थिक नीतियों ने एक बंद अर्थव्यवस्था विकसित की थी, जहाँ परमिट और लायसेंस की प्रणाली हमारी आर्थिक सुगमता में बाधक की तरह काम करती रही। वह नीतियों इस देश की मूल अर्थ चिन्तन के अनुरूप नहीं थीं, परिणामत: सार्वजनिक वस्तुओं के वितरण एवं अवसरों की उपलब्धता आदि की स्थिति बेहद लचर होती गयी। जीडीपी विकास की दर भी बेहद औसत दर्जे की बनी रही। ऐसे में आर्थिक सुधारों की शुरुआत के बाद से अबतक अप्रत्यक्ष करों में सुधार से जुड़ा यह कार्य नहीं हो सका था, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार में पूरा किया गया है।

आज जब भाजपानीत सरकार ने जीएसटी के माध्यम से समान अप्रत्यक्ष कर प्रणाली को विकसित किया है तो इससे न सिर्फ देश की आम और गरीब जनता लाभान्वित होगी, बल्कि व्यापार क्षेत्र में भी तेजी आएगी। व्यापारिक दृष्टि से कारोबार में आसानी होने से जब रोजगार के अवसर पैदा होंगे, तो इसका लाभ देश की गरीब जनता को ही सर्वाधिक मिलेगा। कर असमानता को गैर-वाजिब प्रॉफिट के लिए इस्तेमाल करने वालों पर लगाम लगेगी और देश के विविध क्षेत्रों के विकास को बल मिलेगा। कहने को तो जीएसटी महज एक कर सुधार की प्रक्रिया है, मगर इसके दूरगामी और बहुयामी परिणाम सकारात्मक होंगे।

पारदर्शिता और स्वस्थ प्रतिस्पर्धायुक्त वातावरण देकर देश में विकास की धारा को तेज करने के लिए जीएसटी एक कारगर उपकरण के रूप में साबित होगी। स्वामी विवेकानंद द्वारा वर्ष 1893 में अपने एक शिष्य अलासिंगा को लिखे गए एक पत्र, जिसमे उन्होंने सामजिक सुधारों को मूर्त रूप देने और असमानता को समाप्त करने के लिए आर्थिक स्वतंत्रता को बेहद अनिवार्य तत्व बताया है, पर भी गौर करना चाहिए। उस पत्र के अनुसार आर्थिक स्वतंत्रता और प्रतिस्पर्धा से सामजिक उत्थान स्वत: होता है। आज के सन्दर्भ में अगर स्वामी विवेकानंद द्वारा कही गयी उन बातों को देखें तो जीएसटी के माध्यम से आर्थिक संपन्नता और स्वतंत्रता के लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में वर्तमान सरकार ने ठोस कदम बढ़ाया है।

(लेखक भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव एवं राज्य सभा सांसद हैं। वर्तमान गुजरात और बिहार में पार्टी के प्रभारी हैं। सुप्रीम कोर्ट में एडवोकेट हैं।)