मुलायम सिंह यादव इन दिनों अपने कार्यकर्ताओं को लगातार चेता रहे हैं। उनके इस चेतावनी का मकसद कार्यकर्ता से ज्यादा उन नेताओं को हड़काना नजर आता है, जो सत्ता की मलाई खा रहे हैं, जो मंत्री हैं, विधायक हैं, निगमों के पदाधिकारी हैं या जिला पंचायतों-परिषदों के अध्यक्ष, सदस्य आदि हैं। उत्तर भारत की राजनीति में नेताजी के नाम से विख्यात मुलायम बार-बार अपने नेताओं को बता रहे हैं कि कौन भ्रष्टाचार कर रहा है, कौन सत्ता की ताकत से जमीनें पर कब्जा कर रहा है, सब पर उनकी निगाह है। लगे हाथों वे बार-बार यह भी ताकीद कर रहे हैं कि अगर कार्यकर्ता-नेता नहीं संभलें तो जनता उन्हें नकार देगी और उन्हें सत्ता से बाहर कर देगी। मुलायम की यह चेतावनी उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों के ठीक पहले एक बार नहीं, बार-बार आ रही है। इससे क्या यह मान लिया जाय कि नेताजी जनसंख्या के लिहाज से सबसे बड़े सूबे की सत्ताधारी पार्टी के जरिए हो रहे भ्रष्टाचार से परेशान हैं? सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या मुलायम सिंह सचमुच उत्तर प्रदेश की सत्ताधारी पार्टी को पाक-साफ बनाना चाहते हैं।
यह पहला मौका नहीं है कि मुलायम सिंह यादव ने अपने कार्यकर्ताओं-नेताओं की भ्रष्टाचारी मानसिकता पर सवाल उठाए हैं। इससे पहले वे मुख्यमंत्री और अपने बेटे अखिलेश यादव की मौजूदगी के दौरान भी मंत्रियों और विधायकों के भ्रष्टाचार पर सवाल उठाए थे। उनकी चेतावनी को उस समय भी गंभीरता से लिया गया था। लेकिन इस सवाल का जवाब अब भी अनुत्तरित ही है कि क्या इससे सूबे में भ्रष्टाचार रूक गया और क्या इससे उत्तर प्रदेश की परेशान जनता पर प्रशासन और सरकार ने ध्यान देना शुरू कर दिया? क्योंकि मुलायम सिंह की उस पहली चेतावनी के बाद ही आगरा के जवाहर बाग में रामवृक्ष कांड हुआ, जिसे शह देने का खुलेआम आरोप शिवपाल यादव पर लगा। इस कार्रवाई में सूबे के पुलिस बल को अपने एक एसपी और एक इंस्पेक्टर की जान देकर अपनी कीमत चुकानी पड़ी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कैराना को लेकर लगातार राजनीति जारी है। राज्य के पूर्वी इलाके के जिलों में लोग भरी गरमी में भी चार से पांच घंटे की बिजली सप्लाई के सहारे अपनी जिंदगी गुजारने के लिए मजबूर हैं। जाहिर है कि नेताजी की चेतावनियों का उनके ही कार्यकर्ताओं पर कोई असर नहीं हुआ। उत्तर प्रदेश के हालात सिर्फ कुछ अखबारों के विज्ञापनी पन्ने पर ही बेहतर नजर आ रहे हैं, जमीनी हकीकत कुछ अलग ही नजर आ रहे हैं।
समाजवादी सत्ता तंत्र में मुलायम सिंह के मुताबिक ही भ्रष्टाचार है तो उसे दूर किया जा सकता है। लेकिन हकीकत में ऐसा कर पाने का उनमें साहस नहीं है। अगर ऐसा होता तो बलिया के विधायक नारद राय फिर से कैबिनेट मंत्री नहीं बनाए जाते। उनके बेटे पर बलिया जिला मुख्यालय पर सरेआम गोलीबारी करने का आरोप है। उनके एक पूर्व मंत्री पर थाने और गांव के तालाब की सार्वजनिक जमीन कब्जा करने का आरोप है। उससे वे अभी मुक्त नहीं हुए हैं और वे पूर्व मंत्री मुलायम की रणनीतिक टीम के ताकतवर चेहरे हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के नेता खुलेआम बदजुबानी कर रहे हैं।
उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति अब भी जाति-धर्म के जरिए ही संचालित होने के लिए अभिशप्त है। हालांकि संचार क्रांति और सोशल मीडिया के उभार के दौर में युवाओं का एक वर्ग ऐसा भी विकसित हो गया है, जो जाति-धर्म की बजाय यह जानना चाहता है कि गंगा-यमुना और घाघरा के इलाके की उपजाऊ जमीनों से समृद्ध उत्तर प्रदेश की ज्यादातर जनता बदहाल क्यों हैं। आर्थिक उदारीकरण और उपभोक्तावाद के दौर में बिजली की चमक उत्तर प्रदेश, आजमगढ़ और इटावा में ही क्यों नजर आती है। सूबे के दूसरे इलाकों में बिजली क्यों नहीं हैं। सोशल मीडिया के जरिए युवाओं का एक वर्ग बुंदेलखंड की बदहाली और उसे बदलने के लिए उठाए गए कदमों की कामयाबी का सवाल पूछ रहा है। जब इन सवालों के ठोस और माकूल जवाब नहीं मिलते तो सोशल मीडिया के जरिए दुनिया से रूबरू हो रहा युवा मान लेता है कि इसके पीछे कहीं न कहीं भ्रष्टाचार एक बड़ी वजह है। दरअसल मुलायम सिंह यादव को इन्हीं युवाओं के गुस्से का डर है। 2012 में ऐसे ही युवाओं के एक वर्ग ने अखिलेश यादव की साइकिल यात्राओं पर भरोसा किया था और उसे उम्मीद थी कि बदलती दुनिया के साथ अखिलेश की अगुआई में उत्तर प्रदेश भी बेहतर बिजली और पानी सप्लाई, बढ़िया सड़कों और स्वच्छ प्रशासन के साथ कदमताल करेगा। अखिलेश सरकार लाख दावे करे, लेकिन हकीकत यही है कि उत्तर प्रदेश के युवाओं की इन उम्मीदों को उसने पूरा नहीं किया है।
मुलायम सिंह चूंकि अनुभवी राजनेता हैं, लिहाजा उन्हें इस युवा आक्रोश की भनक लग गई है। बेशक वे जातीय संतुलन साधने में भी जुटे हैं। परिवार के अंदर की खींचतान पर भी काबू पाने की कोशिश में हैं। लेकिन आम लोगों को इसी गुस्से को दरअसल आवाज दे रहे हैं। इसके पीछे उनका प्रमुख मकसद उत्तर प्रदेश के मतदाताओं को संकेत के माध्यम से यह जताने की कोशिश कर रहे हैं कि दरअसल समाजवादी परिवार का मुखिया खुद भ्रष्टाचार विरोधी है, वह सबकुछ ठीक कर देगा।
भूलिए मत 1993 में बनी उनकी सत्ता को। उन्हीं दिनों उत्तर प्रदेश में लठैती बढ़ी। तब सूबे के दो बड़े अखबारों के खिलाफ उन्होंने हल्लाबोल किया था। तब माना गया था कि भ्रष्टाचार के खिलाफ मीडिया की आवाज दबाने के लिए ऐसा किया जा रहा है। उसी दौर में समाजवादी तंत्र में ऐसे लोग और ऐसी परंपरा घुस आई, जिसका एक मात्र मकसद लोहिया की दी लाल टोपी पहनकर सत्ता तंत्र पर काबिज होना और अपनी जेब भरना रहा। लोहिया की बात करने वाले लोहिया की तरह सादा जिंदगी बिताने को अपना मकसद मानना भूल गए।
उत्तर प्रदेश की सरकती जमीन से चिंता में पड़े मुलायम सत्ता से खुद को अलग करके अपनी छवि उस पारिवारिक मुखिया की तरह बनाने की कोशिश कर रहे हैं, जो नीर-क्षीर विवेकी होता है और अपने भी परिवार के लोगों की गलतियों को उजागर करता है। भारत में मतभेद रखने वाले दूसरे परिवार के उम्रदराज मुखिया को भी विवादों से रहित मानने की गंवई परंपरा रही है। ऐसे मुखिया की बातों को विरोधी परिवार के लोग भी नजरंदाज नहीं करते और उसका सम्मान करते हैं। सम्मान तो मुलायम सिंह यादव का भी है। लेकिन यह भी सच है कि वे गंवई परंपरा के विवादरहित मुखिया की तरह नहीं हैं। अगर वे चाहें तो समाजवादी सत्ता तंत्र में अगर उनके ही मुताबिक भ्रष्टाचार है तो उसे दूर किया जा सकता है। लेकिन हकीकत में ऐसा कर पाने का उनमें साहस नहीं है। अगर ऐसा होता तो बलिया के विधायक नारद राय फिर से कैबिनेट मंत्री नहीं बनाए जाते। उनके बेटे पर बलिया जिला मुख्यालय पर सरेआम गोलीबारी करने का आरोप है। उनके एक पूर्व मंत्री पर थाने और गांव के तालाब की सार्वजनिक जमीन कब्जा करने का आरोप है। उससे वे अभी मुक्त नहीं हुए हैं और वे पूर्व मंत्री मुलायम की रणनीतिक टीम के ताकतवर चेहरे हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के नेता खुलेआम बदजुबानी कर रहे हैं। मुलायम सिंह यादव को उन पर भी निगाह नहीं है। मुलायम अगर हकीकत में चाह दें तो निश्चित है कि उत्तर प्रदेश का समाजवादी सत्तातंत्र रास्ते पर आ जाए। लेकिन सही मायने में वे ऐसा करना ही नहीं चाहते। भूलिए मत 1993 में बनी उनकी सत्ता को। उन्हीं दिनों उत्तर प्रदेश में लठैती बढ़ी। तब सूबे के दो बड़े अखबारों के खिलाफ उन्होंने हल्लाबोल किया था। तब माना गया था कि भ्रष्टाचार के खिलाफ मीडिया की आवाज दबाने के लिए ऐसा किया जा रहा है। उसी दौर में समाजवादी तंत्र में ऐसे लोग और ऐसी परंपरा घुस आई, जिसका एक मात्र मकसद लोहिया की दी लाल टोपी पहनकर सत्ता तंत्र पर काबिज होना और अपनी जेब भरना रहा। लोहिया की बात करने वाले लोहिया की तरह सादा जिंदगी बिताने को अपना मकसद मानना भूल गए। लोहिया ने तीन आने बनाम पच्चीस हजार की बहस के जरिए मजलूम और गरीब जनता के दर्द को राष्ट्रीय विमर्श बना दिया था। लेकिन मुलायम सिंह की अगुआई वाले समाजवादियों के बड़े धड़े की आज पहचान इससे इतर है। ऐसा नहीं कि मुलायम की इस चेतावनी को हकीकत जनता समझ नहीं रही है। इसका कितना असर होगा, यह तो चुनावी मैदान में ही नजर आएगा।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।