दिव्य कुमार सोती
भारत में रक्षा घोटाले कोई नई बात नहीं हैं। रक्षा सौदों में घोटाले का पहला मामला देश के स्वतंत्रता प्राप्त करने के एक वर्ष के भीतर ही सामने आ गया था। नेहरू सरकार के कार्यकाल में थल सेना के लिए जीप खरीदने के दौरान रक्षा खरीद के नियमों का उल्लंघन हुआ था। उस जीप घोटाले से लेकर बोफोर्स तोप घोटाले और हाल के अगस्ता वेस्टलैंड घोटाले तक रक्षा घोटालों की एक लंबी फेहरिस्त है। ये मामले भारतीय राजनीति की दिशा भी मोड़ते रहे हैं। यह भी एक कटु सत्य है कि हथियार दलाल सैनिक साजोसामान के अंतरराष्ट्रीय बाजार में सदा से सक्रिय रहे हैं और विकसित देशों की हथियार कंपनियां विकासशील देशों के भ्रष्ट शासन तंत्र को साधने के लिए इन दलालों और उनके नेटवर्क का इस्तेमाल करती रही हैं। पहले उनका उद्देश्य हुआ करता था अपनी प्रतिद्वंद्वी कंपनियों को पछाड़कर सौदा अपने पक्ष में कर लेना। यहां यह समझना जरूरी है कि सरकारी टेंडर भरने वाली ऐसी सभी कंपनियां अर्हता की शर्ते पूरी करती थीं और उनके उत्पाद भी कम से कम टेंडर की शर्तो में उल्लिखित न्यूनतम गुणवत्ता के मानकों को पूरा करते थे। हथियार दलालों का काम बस इनमें से किसी एक कंपनी के पक्ष में फैसला कराना होता था। जैसे बोफोर्स तोप खरीद में दलाली तो खाई गई थी, लेकिन यह तोप न्यूनतम गुणवत्ता के मानदंडों पर खरी उतरी थी और कारगिल युद्ध में कारगर भी साबित हुई। अगर हाल ही में सामने आए कुछ मामलों पर नजर डाली जाए तो पिछले एक दशक में हथियार दलालों की बढ़ती ताकत से उत्पन्न गंभीर स्थिति का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। 1अगस्ता वेस्टलैंड हेलीकॉप्टर खरीद घोटाले में हथियार दलालों का नेटवर्क न सिर्फ टेंडर के सुरक्षा एवं गुणवत्ता मानक बदलवाने में सफल रहा, बल्कि अगस्ता की उस कंपनी से हेलीकॉप्टर खरीद कराने में सफल रहा जिसको प्रस्ताव तक के लिए भारत सरकार द्वारा न्योता (आरएफपी) नहीं भेजा गया था। वीवीआइपी की संवेदनशील यात्रओं को सुरक्षित बनाने के लिए खरीदे गए इन हेलीकॉप्टरों का भारत जैसी विविध और चुनौतीपूर्ण भौगोलिक स्थितियों वाले देश में ट्रायल तक नहीं किया गया और यह काम एक खानापूर्ति के तौर पर इटली में कंपनी के कैंपस में ही निपटा डाला गया और उसमें भी खरीदे गए हेलीकॉप्टर से अलग मॉडल का प्रयोग किया गया। ऐसा ही दूसरा मामला इटली की एक अन्य कंपनी फिनकांटेरी से भारतीय नौसेना के लिए फ्लीट टैंकर की खरीद का है। दरअसल टेंडर की शर्तो के अनुसार ये टैंकर मिलिट्री ग्रेड स्टील से निर्मित होने चाहिए थे, परंतु इसके बावजूद तत्कालीन संप्रग सरकार ने कंपनी द्वारा भेजे गए ऐसे टैंकर कुबूल कर लिए जो निम्न श्रेणी के स्टील से निर्मित थे। 1अगस्ता मामले में हाल ही में आए इतालवी अदालत के फैसले के अनुसार कंपनी के अधिकारियों और दलालों का नेटवर्क भारत में रसूखदार और संप्रग सरकार में उच्च पदस्थ लोगों को अपने इशारों पर नचा रहा था और हर कदम पर अपने अनुकूल फैसले करा रहा था। इनमें से कुछ नाम उन लोगों के हैं जो वीवीआइपी श्रेणी में आने के कारण खुद इन हेलीकॉप्टरों का उपयोग करने वाले थे या उन लोगों के हैं जो इन वीवीआइपी लोगों से अधिकारिक रूप से संबद्ध होने के कारण इन हेलीकॉप्टरों में सफर करते या उन लोगों के हैं जिन पर इन वीवीआइपी की सुरक्षा सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी थी। दलाली खाकर सेना के लिए घटिया उपकरण खरीदने के किस्से तो आम हो चुके थे, पर इसे मूर्खता की पराकाष्ठा कहा जाए या कालाधन पैदा करने की पागलपन से प्रेरित दौड़ से पैदा हुआ अंधापन कि देश के वीवीआइपी और उनसे जुड़े लोग घटिया हेलीकॉप्टरों को खरीदते समय अपनी सुरक्षा का पहलू भी भूल गए थे। शायद ही पूरे विश्व में कहीं ऐसी दूसरी मिसाल मिल पाए, पर यह कहानी यहीं खत्म नहीं होती है। हथियार दलालों के ये नेटवर्क विदेशी कंपनियों के लिए भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी गोपनीय जानकारियां चुराने में भी संलिप्त रहे हैं। उदाहरण के लिए वर्ष 2005 में यह खुलासा हुआ था कि किस तरह तीन भारतीय हथियार दलाल विदेशी हथियार कंपनियों को भारतीय नौसेना के वॉर रूम से चुराई गई जानकारियां बेच रहे थे। इस मामले का खुलासा भारतीय सुरक्षा एजेंसियों की सजगता के चलते हो पाया था और यह मामला अभी न्यायालय में लंबित है। जो बेहद संवेदनशील जानकारी भारतीय नौसेना के वॉर रूम से चुरा कर विदेशी हथियार कंपनियों को बेची गई वह विदेशी खुफिया एजेंसियों के हाथ भी लग सकती थी और किसी राष्ट्रीय सुरक्षा आपातकाल में भारत के दुश्मन भी इस जानकारी का लाभ उठा सकते थे। शुरुआत में संप्रग सरकार के तत्कालीन रक्षामंत्री ने इसे एक आम व्यावसायिक जानकारी जुटाने का मामला बताने की कोशिश की। बाद में सीबीआइ ने मामला दर्ज कर कई गिरफ्तारियां की थीं, लेकिन इस बीच मामले का मुख्य संदिग्ध भारत से भागने में सफल रहा। ऐसे में जरूरी यह है कि हमारी सुरक्षा एजेंसियां भारतीय रक्षा बाजार में सक्रिय विदेशी हथियार कंपनियों पर पैनी निगाह रखें। रक्षा तकनीक के क्षेत्र में भारत को आत्मनिर्भर होने में समय लगेगा और ऐसे में एक के बाद एक विदेशी कंपनियों को ब्लैक लिस्ट करने से शायद ही कोई लाभ हो। इससे एक के बाद एक तकनीकी हस्तांतरण के स्नोत भारत की पहुंच से बाहर होते जाएंगे। इससे बेहतर यह होगा कि भारतीय सुरक्षा एजेंसियों की सजगता इन विदेशी कंपनियों को सही रास्ते पर चलने के लिए विवश करे और हथियार दलालों के नेटवर्को को छिन्न-भिन्न किया जाए। इसके लिए यह भी जरूरी है कि भारतीय सुरक्षा एजेंसियों की व्यावसायिक सूचनाएं एकत्र करने की क्षमता में इजाफा हो और ऐसे मामलों को महज भ्रष्टाचार के मामले न मानकर राष्ट्रीय सुरक्षा कानूनों के दायरे में लाया जाए।
(लेखक काउंसिल फॉर स्ट्रेटेजिक अफेयर्स से संबद्ध सामरिक विश्लेषक हैं, यह लेख दैनिक जागरण में प्रकाशित है)