भारतीय राजनीति में परिवारवाद की बहस एकबार फिर चर्चा में है। चर्चा की वजह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा राष्ट्रीय कार्यकारिणी में दिया गया एक बयान है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रीय कार्यकारिणी बैठक में कार्यकर्ताओं एवं पदाधिकारियों को संबोधित करते हुए कहा कि अपने परिवार वालों के टिकट के लिए पार्टी नेता दबाव न बनाएं। भाजपा की आंतरिक बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा दिया गया यह बयान कई मायनों में बेहद महत्वपूर्ण माना जा सकता है। भारतीय राजनीति में परिवारवाद की जड़ें बहुत गहराई तक धंसी हुई हैं। भारत में परिवारवाद की राजनीति इस कदर चरम पर है कि देश के तमाम राजनीतिक दल एक परिवार मात्र के दल बनकर रह गए हैं। हालाँकि भारतीय राजनीति में परिवारवाद की बुनियाद आजादी के बाद गठित पहली सरकार के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के समय ही रख दी गयी थी। नेहरु का पुत्री मोह किसी से छिपा नहीं है। नेहरु के बाद इंदिरा गांधी खुद को कांग्रेस का असली उत्तराधिकारी मानती थीं। पार्टी में परिवार के वर्चस्व की वजह से ही साठ के दशक में के.कामराज सहित तमाम तत्कालीन कांग्रेसी नेता इंदिरा के खिलाफ होने की वजह से हाशिये पर चले गए। वंशवाद की जिद में कांग्रेस दो फाड़ बंट चुकी थी। यहाँ तक कि चुनाव चिन्ह भी गंवाना पड़ा था। आगे चलकर कांग्रेस (आई) की स्थापना भी इंदिरा ने की थी। नेहरु के बाद इंदिरा गांधी ने पार्टी चलाई, फिर राजीव गांधी कांग्रेस का चेहरा बने और अब सोनिया एवं राहुल गांधी विरासत में मिली वंशवादी राजनीति को आगे बढ़ा रहे हैं। एक परिवार से आगे कांग्रेस न कभी सोच पाती हैं और न ही कांग्रेस की मूल सोच में ही परिवार से इतर कुछ है।
भारतीय राजनीति में परिवारवाद की जड़ें बहुत गहराई तक धंसी हुई हैं। भारत में परिवारवाद की राजनीति इस कदर चरम पर है कि देश के तमाम राजनीतिक दल एक परिवार मात्र के दल बनकर रह गए हैं। हालाँकि भारतीय राजनीति में परिवारवाद की बुनियाद आजादी के बाद गठित पहली सरकार के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के समय ही रख दी गयी थी। नेहरु का पुत्री मोह किसी से छिपा नहीं है। नेहरु के बाद इंदिरा गांधी खुद को कांग्रेस का असली उत्तराधिकारी मानती थीं। पार्टी में परिवार के वर्चस्व की वजह से ही साठ के दशक में के.कामराज सहित तमाम तत्कालीन कांग्रेसी नेता इंदिरा के खिलाफ होने की वजह से हाशिये पर चले गए।
अगर अपवाद स्वरुप नेहरु-इंदिरा परिवार से इतर कुछ समय के लिए कोई कांग्रेस की सर्वोच्च गद्दी पर बैठा भी तो उसका क्या हश्र हुआ, ये किसी से छिपा नहीं है। साठ के दशक में के.कामराज और नब्बे के दशक में सीताराम केसरी का उदाहरण आसानी से दिया जा सकता है। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी नरसिम्हा राव के साथ नेहरु-गांधी परिवार की विरासत सम्हाल रहे लोगों ने क्या किया, ये भी किसी से छिपा नहीं है। लिहाजा, भारतीय राजनीति में वंशवाद और परिवार को प्रश्रय देने की परंपरा सबसे पहले नेहरु-गांधी परिवार से ही शुरू हुई थी। उस दौर में भी जनसंघ के नेता पंडित दीन दयाल उपाध्याय द्वारा राजनीति में पैदा हो रही इस विद्रूपता के प्रति चिंता जताई गयी थी। पंडित दीन दयाल उपाध्याय ने पॉलिटिकल डायरी में लिखा है, “जनता तथा अन्य राजनीतिक दलों के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत करने का मुख्य दायित्व कांग्रेस पर है, क्योंकि वह न केवल सबसे पुराना दल है अपितु सबसे बड़ा दल भी है और सत्तारूढ़ भी है। दुर्भाग्यवश गत कुछ वर्षों में कांग्रेसियों का राजनैतिक आचरण कुछ श्लाघ्य नहीं रहा है। कांग्रेस का परित्याग करने वालों के जो दल गठित हुए हैं, वे भी उसी रोग से ग्रस्त हैं।“
पंडित दीन दयाल उपाध्याय के इन विचारों को अगर आज के सन्दर्भ में देखें तो दो बातें स्पष्ट तौर पर सामने आती हैं। पहली बात कि तमाम दल जो गैर-कांग्रेसवाद के नाम पर सत्तर या उसके बाद के दशक में फले-फुले हैं, आज परिवारवाद की उसी राह पर चल रहे हैं, जिसपर कांग्रेस चल रही है। चाहें, बिहार में लालू प्रसाद यादव की राजद हो, उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी हो अथवा अन्य दल हों। परिवारवाद की जकड़न में देश के अधिकाँश क्षेत्रीय दल उलझे हुए हैं। दूसरी बात ये है कि जब पंडित दीन दयाल उपाध्याय ये विचार व्यक्त कर रहे थे, तब कांग्रेस सबसे बड़ा राजनीतिक दल था। आज स्थिति इसके ठीक विपरीत है। आज भारतीय जनता पार्टी देश की सबसे बड़ी राजनीतिक दल है। यानी, जिस दायित्व का बोध पंडित दीन दयाल उपाध्याय तब के दौर में कांग्रेस को करा रहे थे, वह दायित्व अब भाजपा के कंधों पर है। आज जब भाजपा के ही नहीं भारत के सर्वाधिक ताकतवर नेता नरेंद्र मोदी भाजपा कार्यकर्ताओं से यह बात कह रहे थे, तो बरबस लग रहा था कि दीन दयाल उपाध्याय की वो बातें सत्ता के शीर्ष पर बैठा कोई भाजपा नेता याद करके अपने कार्यकर्ताओं से उसे आत्मसात करने को कह रहा हो।
सत्ता मिलने के बाद राजनीति में भटकाव के उदाहरण ज्यादा देखने को मिलते हैं, लेकिन इस मामले में नरेंद्र मोदी आज भी एक अपवाद रूप में अलग पहचान इन्हीं वजहों से रखते हैं। हालांकि नरेंद्र मोदी ने ऐसा कहा है, इतने भर से यह बयान महत्वपूर्ण नहीं हो जाता है। इस बयान के महत्वपूर्ण होने की वजह ये है कि उन्होंने ऐसा खुद के जीवन में किया भी है। सार्वजनिक जीवन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक कार्यकर्ता से देश के प्रधानमंत्री तक का सफ़र तय करने वाले नरेंद्र मोदी ने निजी जीवन में भी शुचिता और परिवारवाद के खिलाफ दृढ़ता का उदाहरण प्रस्तुत किया है। नरेंद्र मोदी संघ के प्रचारक रहे हैं। अत: संघ के बुनियादी संस्कार उनके व्यक्तित्व में दिखना स्वाभाविक है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रार्थना में मातृभूमि के लिए एक वन्दना की पंक्ति है, त्वदीयाय कार्याय बद्धा कटीयं। इसका भाव है कि हम तुम्हारे (हे मातृभूमि) ही कार्यों हेतु कमर कसकर तैयार हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ाव के बाद इसी संकल्प के साथ नरेंद्र मोदी भी देश और राष्ट्र की सेवा में कमर कसते हुए अपना घर, परिवार सबकुछ छोड़कर निकल गए थे। वे जब अपनी मातृभूमि की सेवा के लिए सबकुछ छोड़कर अपने जीवन को समर्पित कर रहे होंगे तब उन्हें भी नहीं पता होगा कि एकदिन उन्हें प्रधानमंत्री के रूप में भी माँ भारती की सेवा का अवसर मिलेगा। आज जब राजनीति में परिवारवाद, वंशवाद जैसी कुरीतियाँ राजनीतिक दलों के निर्माण की बुनियाद में हैं। राष्ट्र की बजाय, पुत्र, भाई, परिवार को प्राथमिकता दी जा रही है। सत्ता के लिए परिवार ही आपसे में लड़ भी रहे हैं। ऐसे में नरेंद्र मोदी भारतीय राजनीति में अलग स्थान रखते हैं। शायद वो देश के पहले प्रधानमंत्री होंगे जिनके आधिकारिक आवास पर उनकी माँ के अलावा उनके परिवार से और कोई कभी कुछ दिन रहा भी नहीं हो।
आज उत्तर प्रदेश में जिस तरह से अखिलेश यादव सत्ता और राजनीति में वर्चस्व की जंग अपने पिता मुलायम सिंह से ही लड़ते नजर आ रहे हैं, वो दुर्भाग्यपूर्ण है। हालांकि मुलायम सिंह यादव द्वारा राजनीति में परिवारवाद और वंशवाद का जो विशाल वटवृक्ष फैलाया गया है वो अपने आप में दुर्भाग्यपूर्ण है। लोहिया को अपना आदर्श मानने वाले जब परिवारवाद की राजनीति में ऐसे लिप्त हो जायेंगे तो यह निश्चित ही भारतीय राजनीति शुचिता के पतन की पराकाष्ठा ही कही जायेगी। आज राजनीति में परिवारवाद की जकड़न को कमजोर करने की बात अगर नरेंद्र मोदी ने की है, तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए। इससे भाजपा के कार्यकर्ताओं, पदाधिकारियों को तो सन्देश गया ही होगा, बाकी दलों को भी इसपर विचार करना चाहिए। लोकतंत्र में सबको राजनीति में आने, चुनाव लड़ने का अधिकार है। मगर एक कार्यकर्ता की तरह राजनीति में आने का द्वारा सभी के लिए खुला हो, न कि अचानक से नेता घोषित करने की परंपरा कायम हो।
(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च फेलो हैं एवं नेशनलिस्ट ऑनलाइन डॉट कॉम में संपादक हैं।)