स्वास्थ्य लाभ तक सीमित नहीं है योग

पीयूष द्विवेदी

हमारे पूर्वजों द्वारा हमारे लिए छोड़ी गई असंख्य और अमूल्य धरोहरों में से ही योग भी एक है। पूर्वजों से प्राप्त योग की इस अमूल्य परंपराyoga'-kUmD--621x414@LiveMint को वैश्विक स्वीकृति और प्रतिष्ठा दिलाने के उद्देश्य से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा २७ सितम्बर, २०१४ को संयुक्त राष्ट्र महासभा में दिए अपने वक्तव्य में ‘अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस’ का प्रस्तावविश्व के समक्ष रखा गया था,जिसे ९० दिनों के अन्दर ही विश्व के १९३ देशों द्वारा स्वीकृति दे दी गई।प्रधानमंत्री ने २१ जून को योग दिवस के रूप में मनाने की बात कही थी और उसे उसी रूप में स्वीकार कर लिया गया।इस प्रकार २१ जून, २०१५को प्रथम योग दिवस मना तथा गत २१ जून कोइसने अपना दूसरा वर्ष पूरा किया है।आज जब समूचा विश्व भारतीय योग की परंपरा को अपना रहा है तो ऐसे में आवश्यक है कि हम अपने पूर्वजों द्वारा प्रदत्त इस अमूल्य धरोहर के उद्भव, स्वरुप और उद्देश्य को सम्यक प्रकार से जानें।

योग के उद्भव सम्बन्धी इतिहास के विषय में विभिन्न मत हैं। तमाम लोग जहां इसका उद्भव भारत में ही मानते हैं तथा यहीं से विश्व में इसके प्रसार की बात कहते हैं तो कुछ मत ऐसे भी हैं जो भारत के समान्तर विश्व के अन्य भागों में भी इसके उद्भव का समर्थन करते हैं।योग विद्या में योग का उद्भव भारतीय पुराण पुरुष शिव से माना गया है। हमारे पुराणों के अध्ययन से भी यह तथ्य उजागर होता है कि शिव प्रथम योगी हैं। शिव की असंख्य वर्षों की लंबी योग समाधियों के प्रसंग इसके प्रमाण हैं।यह तो एक मान्यतापूर्ण बात हुई।इसके अतिरिक्त अगर वैज्ञानिक प्रमाणों की बात करें तो सिन्धु-घाटी सभ्यता जिसका अतीत २७०० वर्ष ईसा पूर्व के आसपास रहा है, के अवशेषों से प्राप्त मुद्राओं आदि पर ऋषि-मुनियों के योग करते हुए चित्र भी कहीं न कहीं यही प्रमाणित करते हैं कि भारत में योग का अस्तित्व पुरातन काल से रहा है।अब जब भारत में सिन्धु-घाटी जैसी विकसित सभ्यता थी, उसवक्त विश्व के अन्य कुछ स्थानों पर ही उसके जैसी विकसित सभ्यताओं के प्रमाण मिलते हैं और उन सभ्यताओं के अवशेषों में योग से सम्बंधित किसी तरह के प्रमाण मिलने की कोई बात कभी सामने नहीं आई है। फिर यह स्वीकारने का कोई ठोस आधार नहीं दिखता कि भारत से पूर्व विश्व में योग का उद्भव हो गया था।अतः हमारे प्राचीन ग्रंथों और पुरातत्व प्रमाणों के द्वारा यह बात प्रमाणित होती है कि योग के अद्भुत विज्ञान का उद्भव सर्वप्रथम भारत में ही हुआ तथा यहीं से गुरु-शिष्य परंपरा आदि के द्वारा इसका विश्व के अन्य भू-भागों में प्रचार-प्रसार होता गया।

अब अगर बात योग के महत्व और प्रभाव की करें तो आज योग का अर्थ अधिकांशतः स्वास्थ्य लाभ की एक व्यायाम पद्धति के रूप में स्वीकृत है, जबकि वास्तव में योग का महत्व इससे कहीं अधिक व्यापक और प्रभावकारीहै। स्वास्थ्य लाभ को तो योग की सामर्थ्य का आंशिक या प्रारंभिकप्रभाव कहना समीचीन होगा, क्योंकि योग की सम्पूर्ण शक्ति और इसका वास्तविक लक्ष्य तो अत्यधिक विराट व दूरगामी है।हमारा यह शरीर पंच महाभूतों धरती, जल, वायु, अग्नि और आकाश से निर्मित है अर्थात इनपर ही आश्रित है। इनमे से एक तत्व से भी विलग होने पर शरीर का अस्तित्व संकट में आ जाता है।ये तत्व हमारे शरीर के भीतर सुषुप्त अवस्था में मौजूद हैं। इन तत्वों को जागृत कर व्यक्ति को उसके वास्तविक स्वरुप और सामर्थ्य का बोध कराना ही योग का चरम लक्ष्य है। अब चूंकि इन तत्वों को ईश्वरीय (प्राकृतिक) तत्व कहा जाता है, इस कारण योग कोजीव का इश्वर से साक्षात्कार कराने की विधि भी कह सकते हैं। लेकिन, साधारण व्यक्ति इस बात को स्वीकार इसलिए नहीं कर पाते क्योंकि उन्हें योग प्रक्रिया के दौरान  ऐसा कुछ कभी अनुभव ही नहीं होता। इसका कारण यह है कि आज निरंतर अभ्यास के अभाव में योग को उसके वास्तविकउद्देश्य तक साधने की सामर्थ्य मनुष्य में रह ही नहीं गई है।दरअसल योग निरंतर अभ्यास की क्रिया है। निरंतर अभ्यास करते रहने से धीरे-धीरे व्यक्ति इसके चरम लक्ष्य की तरफ अग्रसर होता जाता है और एकबार उस चरम लक्ष्य को प्राप्त कर लेने यानी कि स्वयं का साक्षात्कार कर लेने के बाद उसके भीतर ऐसी अपरिमित शक्ति का संचार हो जाता है कि कठिन से कठिन कार्य भी वो सहज ढंग से कर लेता है।भूख-प्यास, निद्रा, रोग-व्याधि, क्रोध आदि सभी शारीरिक-मानसिक विकारों पर उसका नियंत्रण हो जाता है और ये विकार उसे व्यथित नहीं कर पाते।यूँ तो ये बातें अवैज्ञानिक लग सकती हैं, किंतु जब हम अतीत में झांकते हैं तो वहां हमें अपने अनेक ऐसे पूर्वजों के उदाहरण मिलते हैं, जो योग से अर्जित शक्ति के बल पर महीनों और वर्षों तक बिना अन्न-जल के वनों-पर्वतों में निर्विकार रूप से भ्रमण करते रहते थे।रामायण का प्रसंग है कि  विश्वामित्र ने राम-लक्षमण को बला और अतिबला नामक दो योग विद्याओं का ज्ञान दिया था, जिनके द्वारा वे भूख-प्यास, निद्रा आदि पर नियंत्रण रख सकते थे। अपने वन-प्रवास के दौरान वे  इन्हीं विद्याओं के दम पर बिना खाए-पीए और विश्राम किए लंबी-लंबी यात्राएं करने में सक्षम हुए थे।समग्र रूप में कहें तो बात यही है कि योग के महत्व को आज बेशक केवल स्वास्थ्य लाभ तक सीमित करके समझा जा रहा हो, परन्तु इसका वास्तविक उद्देश्यतो व्यक्ति को इन्द्रिय निग्रह के सामर्थ्य से युक्त बनाना है।वैसे, ये सब योग के अत्यंत कठिन व निरंतर अभ्यास के द्वारा ही संभव है और वर्तमान में उस स्तर का अभ्यास मनुष्य द्वारा किया जाना अत्यंत कठिन है। इसलिए अगर मनुष्यों ने इसके स्वास्थ्यवर्द्धक गुण को ही इसका चरम लक्ष्य  मान लिया है तो इसमें भी कोई बुराई नहीं है। क्योंकि योग तो नियमित रूप से चाहें जितना ही किया जाय,वो केवल और केवल लाभदायक है।यह हमारे पूर्वजों की एक अमूल्य वैज्ञानिक धरोहर है, जिसके लिए हमें उनका कृतज्ञ होना चाहिए।सुखद यह है कि प्रधानमंत्री मोदी के प्रयास्वरूप अब योग को उचित वैश्विक प्रतिष्ठा भी प्राप्त हो रही है। पूर्वजों के प्रति इससे उत्तम प्रकार से कृतज्ञता ज्ञापित नहीं की जा सकती थी।

किंतु इन सब अच्छी बातों के बीच तनिक दुखद पक्ष ये है कि जहां योग परंपरा आज अंतर्राष्ट्रीय रूप से प्रतिष्ठित हो रही है, वहीँ उसकी उद्भव भूमि भारत में छिटपुट रूप से ही सही उसका विरोध  देखने को मिल रहा है। हालांकि इसका जो भी विरोध हो रहा है, वो पूरी तरह से राजनीतिक है। लेकिन फिर भी इससे  न केवल देश में बल्कि वैश्विक स्तर पर  भी कोई अच्छा संदेश नहीं जा रहा। राजनीतिक कारणों से योग का विरोध करने वालों को यह बात समझनी चाहिए कि अपने संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थो की पूर्ती हेतु योग का विरोध कर वे वैश्विक स्तर पर देश की छवि के लिए संकट पैदा कर रहे हैं।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)