भारत जिस प्रकार विविधताओं में एकता वाला देश है, इसकी भाषा के रूप में हिंदी भी वैसी ही है। संस्कृत से जन्मी इस भाषा में कुछ खड़ी, कुछ राजस्थानी, कुछ अवधी, कुछ ब्रज, कुछ भोजपुरी सहित और भी अनेक भारतीय भाषाओं एवं कुछ अंग्रेजी, कुछ उर्दू, कुछ फारसी जैसी विदेशी भाषाओं के शब्दों का महासंगम है। इस अर्थ में, यदि हिंदी को भारतीय संस्कृति के विविधवर्णी स्वरूप की सच्ची प्रतिनिधि कहा जाए तो शायद अनुचित नहीं होगा।
किसी भी समाज की सांस्कृतिक पहचान का आधार उसकी भाषा में सन्निहित होता है। वस्तुतः भाषा ही वो प्राणतत्व होती है, जो किसी संस्कृति को काल के निर्बाध प्रवाह में भी सतत जीवंत और गतिशील रखती है। यही कारण है कि प्रत्येक समाज में अपनी मातृभाषा के प्रति एक गहरा सांस्कृतिक आग्रह देखने को मिलता है। परन्तु, भारत के संदर्भ में यह सांस्कृतिक आग्रह उत्तर से दक्षिण तक अनेक भाषाई विवादों की जमीन तैयार करने वाला ही सिद्ध हुआ है। दुर्भाग्यवश इन सब विवादों के केंद्र में देश की राजभाषा हिंदी ही है।
दक्षिण भारत के हिंदी विरोध का मूल स्वर यह है कि हिंदी कथित हिंदीपट्टी वाले राज्यों की भाषा है, जिसे उनपर थोपा जा रहा है। यह तर्क समझ से परे है, क्योंकि आज जो हिंदीपट्टी कहे जाने वाले राज्य हैं, वास्तव में हिंदी उनकी मातृभाषा नहीं है। उनकी मातृभाषाएँ अलग हैं, लेकिन उन्होंने हिंदी को अपनाया है। न तो कथित हिन्दीपट्टी राज्यों पर हिंदी थोपी गयी थी, न किसी और पर थोपी जा सकती है। कोई भी भाषा किसीपर जबरन थोपकर प्रभाव में लाई ही नहीं जा सकती। लेकिन यह सरल सी बात यदि दक्षिण भारतीय लोगों को समझ नहीं आ रही तो इसका एकमात्र कारण वहाँ की राजनीति ही है।
दरअसल दक्षिण के राजनेताओं ने अपने संकीर्ण राजनीतिक हितों के लिए वहाँ के लोगों में राष्ट्रीयता की बजाय क्षेत्रीयता की भावना का पोषण किया है। राजनीति ने दक्षिण भारतीयों, विशेषकर तमिलों, के विवेक को इस कदर ग्रस लिया है कि उन्हें विदेशी भाषा अंग्रेजी से अपनी मातृभाषा को कोई खतरा नहीं लगता, लेकिन अपने देश की भाषा हिंदी से लगता है।
वैसे हिंदी का यह विरोध दक्षिण तक ही सीमित नहीं, कथित हिंदीपट्टी राज्यों में भी हिंदी के विरोध में कुछ स्वर सुनाई देते रहते हैं। यहाँ भी हिंदी विरोध का आधार स्थानीय भाषाओं को ही बनाया जाता है। स्थानीय भाषाओं के कट्टर समर्थकों का तर्क होता है कि हिंदी साहित्य के हजार वर्ष में केवल आधुनिक काल का साहित्य ही वर्तमान हिंदी भाषा यानी खड़ी बोली का साहित्य है, शेष साहित्य स्थानीय भाषाओं यथा ब्रज, अवधी आदि का है। अतः उसे हिंदी साहित्य में शामिल करके पढ़ाया जाना इन भाषाओं के साथ अन्याय है।
लेकिन ऐसा तर्क देने वाले वही लोग हैं जिन्हें हिंदी भाषा के वास्तविक स्वरूप की पहचान नहीं है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी भाषा और साहित्य के स्वरूप व परम्परा को रेखांकित करते हुए लिखा है, ‘हमारे व्यावहारिक और भावात्मक जीवन से जिस भाषा का सम्बन्ध सदा से चला आ रहा है, वह पहले चाहें जो कुछ कही जाती रही हो, अब हिंदी कही जाती है। यह वही भाषा है जिसकी धारा कभी संस्कृत के रूप में बहती थी, फिर प्राकृत और अपभ्रंस के रूप में और इधर हजार वर्ष से इस वर्तमान रूप में जिसे हिंदी कहते हैं, लगातार बहती चली आ रही है। यह वही भाषा है जिसमें सारे उत्तरीय भारत के बीच चन्द्र और जगनिक ने वीरता की उमंग उठाई; कबीर, सूर और तुलसी ने भक्ति की धारा बहाई; बिहारी, देव और पद्माकर ने श्रृंगार रस की वर्षा की, भारतेंदु, प्रतापनारायण मिश्र ने आधुनिक युग का आभास दिया और आज आप व्यापक दृष्टि फैलाकर सम्पूर्ण मानव जगत को मेल में लानेवाली भावनाएं भर रहे हैं।’ शुक्ल जी के इस कथन के आलोक में, राष्ट्रीयता की भावना के साथ यदि विचार किया जाए तो किसीके लिए भी हिंदी के विरोध का कोई कारण नजर नहीं आता।
स्थानीय भाषाओं के कट्टर समर्थकों का यह तर्क कि हिंदी से उनकी मातृभाषा पर संकट उत्पन्न हो सकता है, भी बेदम ही नजर आता है। चूंकि, हिंदी के प्रभाव में कथित हिंदीपट्टी राज्यों की स्थानीय बोलियों-भाषाओं का ह्रास हुआ हो, ऐसा कहीं नहीं दिखता। अपने-अपने क्षेत्र विशेष में उनका स्वतंत्र अस्तित्व यथावत कायम है। हिंदी के जरिये बस इन सबका राष्ट्रीयकरण हुआ है; इन्हें एक राष्ट्रीय पहचान मिली है।
आज जो संघर्ष हिंदी अंग्रेजी से कर रही है, हिंदी के न होने की स्थिति में वो संघर्ष इन क्षेत्रीय भाषाओं-बोलियों को करना पड़ता और इस स्थिति में जैसे अतीत में बिखराव के कारण अंग्रेजों के समक्ष हमारे देशी राजा नष्ट हो गए थे, ठीक उसी तरह अंग्रेजी के सामने ये भाषाएँ-बोलियाँ भी नष्ट हो गयी होतीं। अतः हिंदी की छत्रछाया में ये भाषाएँ-बोलियाँ अंग्रेजी के प्रकोप से सुरक्षित हैं, ये बात इनके समर्थकों को समझनी चाहिए।
यहाँ कहना आवश्यक होगा कि हिंदी की महत्ता की बात करने का यह अर्थ कतई नहीं है कि अन्य भारतीय भाषाओं को कमतर समझा जा रहा है। निस्संदेह सभी भारतीय भाषाओं का बराबर स्थान है। लेकिन यह भी सत्य है कि राष्ट्र को एकसूत्र में पिरोए रखने और समग्र भारतीय संस्कृति का संवहन करने की सामर्थ्य यदि किसी भाषा में है, तो वह हिंदी में ही है। हिंदी ही ऐसी भाषा है, जो अंग्रेजी का मुकाबला कर देश के अंग्रेजीकरण को रोक सकती है। कोई अन्य भारतीय भाषा फिलहाल अंग्रेजी का मुकाबला कर पाने की स्थिति में नजर नहीं आती।
वस्तुतः भारत जिस प्रकार विविधताओं में एकता वाला देश है, इसकी भाषा के रूप में हिंदी भी वैसी ही है। संस्कृत से जन्मी इस भाषा में कुछ खड़ी, कुछ राजस्थानी, कुछ अवधी, कुछ ब्रज, कुछ भोजपुरी सहित और भी अनेक भारतीय भाषाओं एवं कुछ अंग्रेजी, कुछ उर्दू, कुछ फारसी जैसी विदेशी भाषाओं के शब्दों का महासंगम है। इस अर्थ में, यदि हिंदी को भारतीय संस्कृति के विविधवर्णी स्वरूप की सच्ची प्रतिनिधि कहा जाए तो शायद अनुचित नहीं होगा।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)