संघ की शाखाएं राष्ट्र निर्माण की प्रयोगशाला हैं, जहां स्वयंसेवकों को राष्ट्रीय व सामाजिक गुणों से लैस किया जाता है। संघ के अनेकों संगठन मसलन सेवा भारती, विद्या भारती, स्वदेशी जागरण मंच, हिंदू स्वयंसेवक संघ, भारतीय मजदूर संघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और भारतीय किसान संघ अपने कार्यों से देश के रचनात्मक विकास में योगदान दे रहे हैं। सच तो यह है कि संघ की उपस्थिति और उसकी भूमिका को भारतीय समाज के हर क्षेत्र में 1925 से ही महसूस किया जा रहा है।
सत्य की अनदेखी वही करता है, जिसे असत्य से लाभ हो। यह उक्ति देश के उन तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों पर खूब जंचती है जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को बदनाम करने का ठेका उठा रखे हैं। कभी उनके द्वारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर आजादी की जंग में सहभागी न बनने का आरोप मढ़ा जाता है, तो कभी बड़ी बेशर्मी से राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे की निकटता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रदर्शित की जाती है। यह अलग बात है कि झूठ के पांव नहीं होते और आरोपियों को मुंह की खानी पड़ती है।
आजादी की जंग में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सारगर्भित भूमिका की अनदेखी करने वालों को समझना होगा कि 1925 से लेकर 1947 तक चली स्वाधीनता की जंग ही नहीं बल्कि गोवा तथा दादरा तथा नागर हवेली को आजादी दिलाने में भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओजस्वी भूमिका रही है। आजादी की जंग के दौरान संघ के संस्थापक डॉ केशव राव बलिराम हेडगवार ने हर एक स्वयंसेवक को शाखा के बाद किसी भी पार्टी से जुड़कर आजादी की लड़ाई में योगदान करने को प्रेरित किया था।
जब 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरु हुआ तब उन्होंने इसे संपूर्ण समर्थन दिया और स्वयं सत्याग्रह में भाग लेकर 9 मास का सश्रम कारावास काटा। उनके निर्देश पर संघ के स्वयंसेवक आजादी की लड़ाई के संवाहक बने और ब्रिटिश हुकुमत की बर्बरता को सहा भी। डॉ साहब के सिद्धांतों पर चलते हुए संघ के दूसरे सरसंघ चालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर जिन्हें गुरुजी भी कहा जाता है, ने भी स्वयंसेवकों को जंग में कूद पड़ने के लिए आह्नान किया। उन्होंने 1942 में संघ के एक कार्यक्रम में कहा भी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत छोड़ो आंदोलन का सहभागी है। जब कांग्रेस के नेता गिरफ्तार कर लिए गए और आंदोलन भटकाव के मोड़ पर आ गया, उस दौरान संघ के स्वयंसेवकों ने ब्रिटिश हुकुमत की क्रुरता की परवाह किए बिना आंदोलन की कमान अपने हाथों में ले लिया।
यही नहीं, संघ के स्वयंसेवकों ने विदर्भ क्षेत्र के कई जिलों में अंग्रेजी हुकुमत को उखाड़ फेंका। 1942 के आंदोलन की सहभागी रही अरुणा आसफ अली ने तब दैनिक समाचार पत्र हिंदुस्तान को दिए गए एक साक्षात्कार में कहा भी कि आंदोलन के दिशाहीन होने पर दिल्ली के संघ के प्रांत संघचालक हंसराज गुप्ता ने अपने घर में मुझे शरण दी और सुरक्षा का पुख्ता बंदोबस्त किया। देश जानना चाहता है कि फिर धर्मनिरपेक्षता के ठेकेदार और वाम विचारधारा के तथाकथित बुद्धिजीवी किस मुंह से आजादी की जंग में राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ की अप्रतिम भूमिका की अनदेखी कर रहे हैं? बाकी तो संघ को कांग्रेस या इन तथाकथित सेक्यूलर दलों व बुद्धिजीवियों से देशभक्ति के प्रमाणपत्र की जरुरत नहीं है।
आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी 40 हजार से अधिक शाखाओं के माध्यम से देश के प्रत्येक राज्य और प्रत्येक जिले में सामाजिक व सांस्कृतिक कार्य कर रहा है। जंगल-झाड़ में रह रहे आदिवासियों के सामाजिक, सांस्कृतिक व शैक्षिक उद्धार के लिए कार्य कर रहा है। संघ के लाखों स्वयंसेवक उपेक्षा, उपहास, विरोध और अवरोध के बावजूद भी अपने सामाजिक-सांस्कृतिक लक्ष्यों की ओर अग्रसर हैं। हर देश का समाज राष्ट्र की उन्नति के लिए कुछ व्यवस्थाएं खड़ी करता है। सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों को जन्म देता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी उसी तरह एक देशव्यापी देशभक्त, अनुशासित, चरित्रवान व निःस्वार्थ सामाजिक व सांस्कृतिक संगठन है।
संघ की शाखाएं राष्ट्र निर्माण की प्रयोगशाला हैं, जहां स्वयंसेवकों को राष्ट्रीय व सामाजिक गुणों से लैस किया जाता है। संघ के अनेकों संगठन मसलन सेवा भारती, विद्या भारती, स्वदेशी जागरण मंच, हिंदू स्वयंसेवक संघ, भारतीय मजदूर संघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और भारतीय किसान संघ अपने कार्यों से देश के रचनात्मक विकास में योगदान दे रहे हैं। सच तो यह है कि संघ की उपस्थिति और उसकी भूमिका को भारतीय समाज के हर क्षेत्र में 1925 से ही महसूस किया जा रहा है।
उदाहरण के तौर पर सन् 1962 के भारत-चीन युद्ध में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु संघ की भूमिका से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने संघ को सन् 1963 के गणतंत्र दिवस की परेड में सम्मिलित होने का निमंत्रण दिया। सिर्फ दो दिनों की पूर्व सूचना पर तीन हजार से भी ज्यादा राष्ट्रभक्त स्वयंसेवक पूर्ण गणवेश में वहां उपस्थित हो गए। महात्मा गांधी की माला जपने वाली कांग्रेस और गांधीवादी विचारधारा के नकली संवाहकों को ज्ञान होना चाहिए कि वे जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तुलना ओछे संगठनों से कर रहे हैं उसके बारे में गांधी जी की सोच कितनी व्यापक, सकारात्मक और श्रद्धापूर्ण थी। भारत विभाजन के उपरांत दिल्ली के जिस मैदान में प्रतिदिन संघ की शाखा लगती थी, वहीं शाम को गांधी जी की प्रार्थना सभा होती थी।
उन दिनों दिल्ली समेत पूरे देश में दंगे हो रहे थे। गांधी जी ने 16 सितंबर, 1947 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों से मिलने की इच्छा व्यक्त की और स्वयंसेवकों को संबोधित करते हुए कहा कि ‘बरसों पहले मै वर्धा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक शिविर में गया था। उस समय इसके संस्थापक श्री हेडगेवार जीवित थे। स्वर्गीय श्री जमनालाल बजाज मुझे शिविर में ले गए थे और वहां मैं उन लोगों का कड़ा अनुशासन, सादगी और छुआछूत की पूर्ण समाप्ति देखकर अत्यंत प्रभावित हुआ था। तब से संघ काफी बढ़ गया है। मैं तो हमेशा से मानता आया हूं कि जो भी सेवा और आत्म-त्याग से प्रेरित है, उसकी ताकत बढ़ती ही है। संघ एक सुसंगठित एवं अनुशासित संस्था है। संघ के खिलाफ जो भी आरोप लगाए जाते हैं, उसमें कोई सच्चाई है या नहीं, यह मैं नहीं जानता। यह संघ का काम है कि वह अपने सुसंगत कामों से इन आरोपों को झूठा साबित कर दे।’
गौर करें तो इन 92 सालों में संघ अपने उपर लगने वाले हर आरोप को झूठा साबित करने में सफल रहा है। संघ के इतिहास और विचारधारा पर फब्तियां कसने वाले लोगों को जानना चाहिए कि संघ के संस्थापक डॉ केबी हेडगेवार उन गिने-चुने क्रांतिकारियों में से एक थे, जिन्होंने तत्कालीन ब्रिटिश शासन से भारत की मुक्ति के लिए संघर्ष किया। वे 1921 में कांग्रेस आंदोलन में भी शामिल हुए।
हेडगेवार ने 1925 में राष्ट्रवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। आजादी के दौरान या बाद कभी भी कोई ऐसा पुख्ता सुबूत देखने को नहीं मिला, जिसको लेकर यह दावा किया जाए कि संघ का आचरण राष्ट्रहित के खिलाफ रहा है। हजारों बार साबित हो चुका है कि जिन बातों को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कार्यप्रणाली पर संदेह जताया जाता है, वे राष्ट्रवाद और राष्ट्रचरित्र से जुड़े होते हैं।
समाजवाद का ठेका उठा रखे छद्म समाजवादियों को भी ज्ञात होना चाहिए कि 1966 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने कठिन परिश्रम और कार्यकुशलता के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भरपूर तारीफ की। अक्सर वामपंथी और तथाकथित सेक्यूलर लेखकों द्वारा दुष्प्रचार किया जाता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मुसलमानों और ईसाईयों के विरुद्ध है। जबकि यह पूर्णतया असत्य और बुनियाद हीन है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का लक्ष्य संपूर्ण समाज को संगठित कर हिंदू जीवन दर्शन के प्रकाश में समाज का सर्वांगीण विकास करना है।
भारत में रहने वाले मुसलमानों और ईसाइयों के बारे में संघ की सोच और समझ क्या है, वह 30 जनवरी 1971 को प्रसिद्ध पत्रकार सैफुद्दीन जिलानी और गुरुजी से कोलकाता में हुए वार्तालाप, जिसका प्रकाशन 1972 में हुआ, से पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है। सच तो यह है कि कांग्रेस, तथाकथित सेक्यूलर दल और छद्म बुद्धिजीवियों का एक वर्ग एक साजिश के तहत संघ को मुस्लिम व ईसाई विरोधी करार देता आ रहा है। यह वही गिरोह है, जिसे जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू) में लगने वाले देशविरोधी नारों से ऐतराज नहीं और वे भारत की बर्बादी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मानते हैं। अगर ऐसे लोग देशभक्त संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तुलना ओछे संगठनों से करते हैं तो यह उनके राष्ट्रविरोधी धारणाओं को ही पुष्ट करता है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)