आज जिस संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता पर चीन बेहद अकड़ता रहता है और भारत को सदस्यता से दूर रखने के लिए पूरा जोर लगाए हुए है, उस सदस्यता का प्रस्ताव पहले भारत को मिला था। मगर, चीन-प्रेम में डूबे तत्कालीन प्रधानमंत्री पं जवाहर लाल नेहरू ने उस सदस्यता को लेने से इनकार करते हुए उसे चीन को देने की वकालत कर दी। नेहरू की अनेक ऐतिहासिक भूलों के क्रम में ही यह भी एक भूल थी, जिसकी कीमत देश आज तक सुरक्षा परिषद की सदस्यता से वंचित रहकर चुका रहा है।
आज भारत जिस संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की सदस्यता के लिए जी-जान से प्रयास करने में लगा रहता है, वह सदस्यता भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं जवाहर लाल नेहरू ने कभी चीन को दान कर दी थी। भारत ने चीन को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का सदस्य बनवाने में अहम रोल अदा किया था पंडित जवाहर लाल नेहरु के सौजन्य से। उनका चीन प्रेम जगजाहिर था। उसका परिणाम देश ने 1962 के युद्ध में देखा था। उसके घाव अब भी हरे हैं। वही एहसान फरामोश चीन फिर से हमें जब-तब आँखें दिखाता रहता है।
“उन्होंने (जवाहरलाल नेहरु) ने सोवियत संघ की भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के छठे स्थायी सदस्य के रूप में प्रस्तावित करने की पेशकश को खारिज करते हुए कहा था कि भारत के स्थान पर चीन को जगह मिलनी चाहिए।“ (एस. गोपाल-सेलेक्टड वर्क्स आफ नेहरू, खंड 11, पृष्ठ 248)
क्या आप मानेंगे कि भारत को 1953 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य की पेशकश हुई थी ? क्या आप ये यकीन करेंगे कि पंडित नेहरू ने उस पेशकश को अस्वीकार कर दिया था ? ये जानकारी पूर्व केन्द्रीय मंत्री शशि थरूर ने तब दी थी, जब वे संयुक्त राष्ट्र के अंडर सेक्रेटरी जनरल थे। आप गूगल करें तो आपको ये जानकारी मिल जाएगी।
भारत को बीती सदी के पांचवें दशक में अमेरिका और सोवियत संघ ने अलग-अलग समय में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की सदस्यता दिलवाने की पेशकश की थी। तब ये दोनों देश संसार के सबसे शक्तिशाली देश थे। इनके पास इस बात की शक्ति थी कि वे किसी अन्य देश को सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य के रूप में जगह दिलवा सकते थे। पर पं नेहरू ने इन दोनों देशों से चीन को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में जगह देने की वकालत की।
शशि थरूर ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘ नेहरु- दि इनवेंशन आफ इंडिया’ में लिखा है कि जिन भारतीय राजनयिकों ने उस दौर की विदेश मंत्रालय की फाइलों को देखा है,वे इस बात को मानेंगे कि नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र संघ के स्थायी सदस्य बनने की पेशकश को ठुकरा दिया था। नेहरू ने कहा कि भारत की जगह चीन को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में ले लिया जाए। तब तक ताइवान संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का सदस्य था।
भाजपा के शिखर नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने एक बार अपने ब्लॉग में लिखा था, ‘ नेहरू जी का अमेरिकी पेशकश को अस्वीकार करने से बढ़कर कोई उदाहरण नहीं हो सकता कि वे देश के सामरिक हितों को लेकर कितने लापरवाह थे। उन्होंने दबाव बनाया कि सीट चीन को मिल जाए। वे नहीं चाहते थे कि अमेरिका चीन को हाशिए पर ले आए। उनके इस कदम से भारत का हित प्रभावित हुआ।’
चीन का रवैया देखिए
भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता देने के पक्ष में रूस ने साल 2008 में ब्रिक्स देशों के रूस में हुए सम्मेलन में आवाज बुलंद की थी। रूस ने कहा था कि भारत को संयुक्त राष्ट्र के स्थायी सदस्य का दर्जा मिलना चाहिए। पर रूस के प्रस्ताव का उसी चीन ने कड़ा विरोध किया, जिसे संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद की सदस्यता दिलवाने में हमारे प्रथम प्रधानमंत्री की भूमिका थी। अब भारत के साथ ब्राजील, जर्मनी, जापान और दक्षिण अफ्रीका भी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य बनना चाहते हैं।
गौर करें तो सुरक्षा परिषद में पांच स्थायी और दस अस्थायी सदस्य होते हैं। अस्थायी सदस्य दो साल के लिए चुने जाते हैं, लेकिन इन्हें वीटों का अधिकार नहीं होता। फिलहाल अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और चीन ही स्थायी सदस्य हैं। अफ्रीका और दक्षिण अमेरिकी महाद्वीप का फिलहाल सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य के रूप में कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। अब भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता उसी स्थिति में मिल सकती है, बशर्ते कि इसका विस्तार हो। इसके अलावा इस बात की उम्मीद बहुत कम है कि भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य का दर्जा मिल सके।
स्पष्ट है कि पं नेहरू के चीन प्रेम के चलते ही आज भारत की ये स्थिति है, अन्यथा आज चीन की बजाय हम संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य होते। इसके अलावा नेहरू की ही भूलों के फलस्वरूप भारत को 1962 के युद्ध में चीन से मुंह की खानी पड़ी थी। हमारे सीमावर्ती भू-भाग का एक हिस्सा चीन के पास चला गया था। हालांकि तब से हालात बहुत बदल चुके हैं। अब यदि युद्ध हुआ तो चीन को लेने के देने पड़ सकते हैं। पर कायदे से युद्ध से मसले हल नहीं होते हैं। और फिलहाल चीन युद्ध जैसी कोई मूर्खता करेगा भी नहीं।
(लेखक यूएई दूतावास में सूचनाधिकारी रहे हैं। वरिष्ठ स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)