भारत के संदर्भ में वामपंथी विचारधारा का मूल्यांकन करें तो यह पूर्णतः विफल रही है। पश्चिम बंगाल में दीर्घकालीन वामपंथी शासन के उग्र तेवर और विकास के झूठे दावे ने सब कुछ स्वाहा कर दिया। वामपंथियों ने समाजवादी समाज की स्थापना के नाम पर तानाशाही हुकूमत की स्थापना और अनर्थकारी आर्थिक नीतियों के जरिए राज्य की रीढ़ तोड़ दी। इस विचारधारा की कोख से पैदा हुए राजनीतिक गुंडों और अराजकतावादियों ने साम्यवाद के भोथरे नारों को उछालकर कल-कारखानों को बंद कराया और आम आदमी के हक और अधिकार के साथ छल किया।
सैद्धांतिक तौर पर वामपंथी विचारधारा उस पक्ष की संवाहक है, जो समाज को बदलकर उसमें अधिक आर्थिक बराबरी का दावा करती है। लेकिन जिस तरह वह राजनीतिक आंदोलन और सर्वहारा वर्ग की क्रांति की आड़ में सत्ता की कमान हड़पकर विचारधारा के फैलाव के लिए हिंसा का सहारा लेती है, उससे साफ है कि उसका व्यवहारिक पक्ष विचारधारा कम, हिंसा का खौलता हुआ कुंड ज्यादा है। वामपंथी विचारधारा के गर्भ में ही हिंसा के शिशु का निवास होता है, जो वक्त पर दानव की शक्ल अख्तियार कर दुनिया को रक्त से लथपथ करने का काम करता है।
दुनिया के किसी भी देश में जब भी वामपंथी विचारधारा से अनुप्राणित व प्रभावित सरकारों का गठन हुआ है, उस सत्ता के नियामकों ने राष्ट्र की संस्कृति, इतिहास, मूल्य, प्रतिमान को ध्वस्त किया है और विपरित विचारधारा पर प्रहार कर मानवता का नरसंहार किया है। एशिया, यूरोप, अफ्रीका और लातिन अमेरिका जहां भी इन्हें पांव पसारने का मौका मिला, ये एक अधिनायक की तरह ही दिखे।
1922 में रूस में कम्युनिस्ट पार्टी का महामंत्री बनने के बाद स्टालिन ने, लेनिन व ट्राटस्की जो कि विश्व क्रांति के समर्थक थे, को किनारे लगा अपना रास्ता साफ किया और लेनिन के लकवा मार जाने के बाद सत्ता के प्रबल दावेदार ट्राटस्की के साथ छल कर सत्ता की कमान हथिया ली। उसने किस तरह हिंसा के ज़रिये विपरित विचारधारा के लोगों का वजूद मिटाया यह इतिहास के पन्नों में दर्ज है। सामूहिक खेती की आड़ में जमींदारों का कत्ल कराया, समुचित वेतन की मांग पर करने पर इंजीनियरों, डॉक्टरों और कामगारों को फांसी पर झुलाया, यह सब दुनिया के सामने है।
भारत के संदर्भ में भी वामपंथी विचारधारा राष्ट्रीय भावनाओं के विपरित, समाज विध्वंसक और हिंसा-प्रधान ही दिखी है। बात चाहे आजादी के दरम्यान गांधी जी के भारत छोड़ों आंदोलन की मुखालफत की हो अथवा नेताजी सुभाषचंद्र बोस को ‘तोजो का कुत्ता’ कहने की या मुस्लिम लीग की देश विभाजन की मांग का समर्थन करने की; वामपंथी इन सब राष्ट्रविरोधी कृत्यों को अंजाम देने में अग्रिम पंक्ति में खड़े दिखे। वामपंथी विचाराधारा की नजर में नेहरू ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के दलाल थे और जिन्ना नायक।
वामपंथी विचारधारा और उसके नियामकों की अवसरवादिता पर 24 मार्च, 1943 को भारत के अतिरिक्त गृहसचिव रिचर्ड टोटनहम ने सही टिप्पणी की थी कि ‘भारतीय कम्युनिस्टों का चरित्र ऐसा है कि वे किसी के सगे नहीं हो सकते, सिवाय अपने स्वार्थों के।’ डॉ. लोहिया ने भी कम्युनिस्ट विचारधारा पर टिप्पणी करते हुए लिखा है, ‘साम्यवाद दो-तिहाई दुनिया को रोटी नहीं दे सकता।’ उन्होंने कम्युनिस्ट विचारधारा को जुआ, अपव्यय और बुराई की संज्ञा दी।
भारत के संदर्भ में वामपंथी विचारधारा का मूल्यांकन करें तो यह पूर्णतः विफल रही है। पश्चिम बंगाल में दीर्घकालीन वामपंथी शासन के उग्र तेवर और विकास के झूठे दावे ने सब कुछ स्वाहा कर दिया। वामपंथियों ने समाजवादी समाज की स्थापना के नाम पर तानाशाही हुकूमत की स्थापना और अनर्थकारी आर्थिक नीतियों के जरिए राज्य की रीढ़ तोड़ दी। इस विचारधारा की कोख से पैदा हुए राजनीतिक गुंडों और अराजकतावादियों ने साम्यवाद के भोथरे नारों को उछालकर कल-कारखानों को बंद कराया और आम आदमी के हक और अधिकार के साथ छल किया।
सत्ता में बने रहने के लिए हिंसा का सहारा लेकर प्रतिष्ठित ट्रेड यूनियनों पर मजदूर वर्ग के नेतृत्व की पकड़ ढ़ीली करायी और अपनी कब्जेदारी जमा ली। गांव-गांव में वामपंथी अधिनायकवादी संगठनों को खड़ा किया और पंचायतों को अराजक और लंपट किस्म के कामरेडों के हाथों में गिरवी रख दिया। जिन लोगों ने विरोध जताया उन्हें मौत के घाट उतार दिया।
किसानों के हित की बात करने का दावा करने वाली इस विचारधारा ने किस तरह सिंगूर और नंदीग्राम में किसानों की जमीनों का जबरन अधिग्रहण कर खून की होली खेली, उससे देश सुपरिचित है। हालांकि राज्य की जनता ने अधिनायकवादी सरकार को उखाड़ फेंका, लेकिन जिस राजनीतिक दल तृणमूल कांग्रेस के हाथ में आज सत्ता है, उसकी विचारधारा व उसके कार्यकर्ता भी कम खतरनाक नहीं हैं। कहना गलत नहीं होगा कि वामपंथी विचारधारा के समर्थक अराजक तत्वों का रुपांतरण तृणमूल कार्यकर्ताओं के रुप में हो चुका है, जो सांप्रदायिकता की आग से राज्य को झुलसा रहे हैं और राज्य प्रशासन उन्हें संरक्षण दे रहा है।
पिछले कुछ वर्षों में यहां जिस तरह कैनिंग में 200 हिंदू घरों को क्षति पहुंचायी गयी, उस्थि में हिंदुओं के घर व दुकानों को लूटा गया, हाजीनगर में दुर्गा मां की मूर्ति विसर्जन पर रोक लगायी गयी, कलियाचक में हिंदुओं की दुकानों को लूटते हुए पुलिस थाने पर हमला बोला गया और धूलागढ़ में डेढ़ सौ लोगों की जान ली गयी; उससे एक बात साफ है कि पश्चिम बंगाल में निजाम ज़रूर बदला, लेकिन सत्ता का चरित्र अब भी वही है। कहीं से भी प्रतीत नहीं होता कि राज्य में कानून का शासन है। यह कहने में गुरेज नहीं कि राज्य की सरकार प्रशासन और अराजकतावादियों के सहयोग से विपरित विचारधारा के लोगों को मिटाने पर आमादा है।
इसी तरह वामपंथी विचारधारा से अनुप्राणित केरल की मौजूदा सरकार भी राज्य में वामपंथी अराजकों को संरक्षण दे रही है। वे आए दिन राष्ट्रवादियों का कत्ल कर रहे हैं। सच तो यह है कि केरल में जब-जब भी वामपंथी सरकार का गठन हुआ, उसके कार्यकर्ताओं ने राष्ट्रवादियों को निशाने पर लिया। बात चाहे 1965 में राष्ट्रवादी कार्यकर्ता सुब्रमण्यम की गोली मारकर हत्या करने की हो अथवा राजन को पेट्रोल छिड़कर जिंदा जलाने की या शिक्षाविद् जयकृष्णन मास्टर की उनके बच्चों के सामने नृशंस हत्या की, वामपंथी सरकार दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई के बजाय पीड़ितों को ही पीड़ा पहुंचाती देखी गयी।
तालिबानियों की तरह इस विचारधारा के समर्थकों ने महिलाओं को भी नहीं बख्शा है। पति धर्मजन के साथ जिस क्रूरता से यशोदा की हत्या की गयी और नृशंसतापूर्वक कौशल्या तथा अम्मू अम्मा को मौत के घाट उतारा गया, उससे स्पष्ट है कि समानता और समरसता का दावा करने वाली इस विचारधारा के मूल में बस हिंसा ही हिंसा है।
गौर करें तो गत वर्षों से वामपंथी विचारधारा से जुड़े गुंडों द्वारा एक सुनियोजित साजिश के तहत केरल में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के पदाधिकारियों और संगठन से जुड़े छात्रों को लगातार निशाना बनाया जा रहा है। एबीवीपी से जुड़े दुर्गादास, पीएस अनु, सुजित, किम करुणाकरन एवं अन्य छात्रों की हत्या महज बानगी भर है। सच तो यह है कि इस विचारधारा ने केरल के शैक्षणिक केंद्रों को अराजकता का अड्डा बना दिया है, जहां सिर्फ राष्ट्रविरोधी कृत्यों को अंजाम दिया जा रहा है। यह भी उद्घाटित हो चुका है कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में इस विचारधारा के समर्थकों ने नक्सलियों द्वारा जवानों की हत्या पर मिठाई बांटकर जश्न मनाया था।
यही नहीं, इस विचारधारा से जुड़े तथाकथित बुद्धिजीवी भी अपनी लेखनी के जरिए भारत की सभ्यता, संस्कृति और विरासत पर प्रहार करते रहे हैं। अगर उनमें तनिक भी देश के प्रति प्रेम होता तो अपनी किताबों में भगत सिंह को क्रांतिकारी आतंकवादी, शिवाजी को पहाड़ी चूहिया और चंद्रगुप्त मौर्य की सेना को डाकुओं का गिरोह नहीं बताते। इतिहास के सच को सामने लाने की बजाय अनगिनत मनगढ़ंत निष्कर्ष पैदा नहीं करते।
जरा वामपंथी बुद्धिजीवियों की बुद्धिमत्ता पर गौर कीजिए। उनके मुताबिक रामायण, महाभारत तथा अन्य प्राचीन भारतीय ग्रंथ मिथ मात्र हैं। प्राचीन भारतीय पौराणिक साहित्य में वर्णित राजवंशावलियां तथा राजाओं की शासन अवधियां अप्रमाणिक एवं अविश्वसनीय हैं। प्राचीन भारतीय विद्वानों में ऐतिहासिक लेखन क्षमता का अभाव रहा है। भारत के प्राचीन विद्वानों के पास कालगणना की कोई निश्चित तथा ठोस विधा नहीं रही। भारत का शासन समग्र रुप में एक केंद्रीय सत्ता के अधीन अंग्रेजी शासन से आने से पूर्व कभी नहीं रहा।
आर्यों ने भारत में बाहर से आकर यहां के पूर्व निवासियों को युद्धों में हराकर अपना राज्य स्थापित किया और हारे हुए लोगों को अपना दास बनाया। भारत के इतिहास की सही तिथियां भारत से नहीं विदेशों से मिली हैं। यही नहीं, इस विचारधारा के कलमकारों ने भारतीय राष्ट्रवाद के वर्गीय चरित्र का विश्लेषण और उसकी व्याख्या उपनिवेश काल के आर्थिक विकासक्रमों के आधार पर करके एक किस्म से भारतीय इतिहास के गौरवपूर्ण कालखंड को मलीन करने की ही कोशिश की है।
इन वामपंथी इतिहासकारों ने राष्ट्रवाद की प्रबल भावना को नजरअंदाज करते हुए एक साजिश के तहत भारतीय समाज को वर्गीय खांचे में फिट किया। भारत के लिए आघातकारी रहा कि आजादी के उपरांत इतिहास लेखन की जिम्मेदारी इन मार्क्सवादी इतिहासकारों को सौंपी गयी और वे ब्रिटिश इतिहासकारों के कपटपूर्ण आभामंडल की परिधि से बाहर नहीं निकल सके। उन्होंने अंग्रेजों की तरह ही भारतीय इतिहास की एकांगी व्याख्या कर भारतीय संस्कृति को नीचा दिखाने की कोशिश की। अंग्रेजों की तरह उनकी भी दिलचस्पी भारत के राष्ट्रीय गौरव को खत्म करने की रही। ऐसे में इस निष्कर्ष पर पहुंचना अनुचित नहीं कि वामपंथी विचारधारा न सिर्फ राजनीतिक तौर पर हिंसा प्रधान है, बल्कि बौद्धिक तौर पर भी केवल विनाश और नकारात्मकता का समुच्चय है।
(लेखक इतिहास के प्राध्यापक हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)