यूपी चुनाव करीब है, जिसे देखकर तमाम राजनीतिक पार्टियॉं प्रधानमंत्री के लखनऊ में रावण-दहन के वक्त दिए गए उद्बोधन के राजनीतिक अर्थ निकाल रही हैं। राजनीतिक पार्टियों को यह भी ज्ञात होना चाहिए कि मोदी देश के पहले प्रधानमंत्री है, जिन्होंने दशहरा में दिल्ली का किला छोड़कर लखनऊ के कार्यक्रम में हिस्सा लिया और अपने उद्बोधन में देश में व्याप्त कुरीतियों पर हमला किया। मोदी पर आज तक साम्प्रदायिक होने का आरोप विपक्षी पार्टियॉं लगाती आई है। जब वे देश और महिलाओं के हित में बयान दे रहे हैं, फिर उन पर हमला करना समझ से परे है। उनके द्वारा लखनऊ में दशहरा पर्व पर दिया गया भाषण सामाजिक वातावरण के लिहाज से अपना एक अलग महत्व रखता है। जब देश स्वतंत्र है और लोगों को अपने विचार रखने की स्वतंत्रता है। फिर मोदी के जय श्रीराम कहने पर विरोध समझ से परे है। इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि ईद और रमजान पर जब तमाम नेता मुस्लिम समुदाय के लोगों के साथ उत्सव करते हैं, तो ये धर्मनिरपेक्षता होती है और देश के प्रधानमंत्री ने दशहरे के पर्व पर देश के सर्वोच्च आदर्श माने जाने वाले मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का जयघोष कर दिया तो यह सांप्रदायिक हो जाता है! मोदी के जय श्रीराम के जयघोष का विरोध देश के तथाकथित सेकुलरों के सेकुलरिज्म का पर्दाफाश करने वाला है। देश के ये नकली धर्मनिरपेक्ष एकबार फिर बेनकाब हुए हैं।
प्रधानमंत्री के रूप में मोदी ने जिस तरीके से तीन तलाक, बुर्के और जय श्रीराम की बात एक साथ की, वो समाज में सामाजिक समरसता और समानता का भाव उत्पन्न करने की दिशा में अच्छा वक्तव्य था। विपक्षी राजनीतिक पार्टियॉं इसे जिस हिसाब से पेश कर रहीं है, वह स्वच्छ राजनीति और देशहित में नहीं कहा जा सकता है। जब देश में संविधान ही सर्वोपरि है। लोगों की उसमें आस्था है। फिर समान नागरिक कानून जैसे मुद्दे पर मोदी विरोध समझ से बाहर है।
मोदी के जय श्रीराम कहने पर विरोध समझ से परे है। इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि ईद और रमजान पर जब तमाम नेता मुस्लिम समुदाय के लोगों के साथ उत्सव करते हैं, तो ये धर्मनिरपेक्षता होती है और देश के प्रधानमंत्री ने दशहरे के पर्व पर देश के सर्वोच्च आदर्श माने जाने वाले मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का जयघोष कर दिया तो यह सांप्रदायिक हो जाता है! मोदी के जय श्रीराम के जयघोष का विरोध देश के तथाकथित सेकुलरों के सेकुलरिज्म का पर्दाफाश करने वाला है। देश के ये नकली धर्मनिरपेक्ष एकबार फिर बेनकाब हुए हैं।
आज देश में धार्मिक सद्भावना और आपसी भाईचारे की बात की जाती है। फिर अलग- अलग धर्मों के अलग कानून से न्यायपालिका पर भी बोझ पड़ता है। एक देश-एक कानून की बात सर्वथा सही और सटीक कही जा सकती है। इससे सभी समाज के लोगों को शादी, तलाक, गोद लेना और जायदाद के बंटवारे में एक जैसा कानून होगा। फिर वह चाहे जिस किसी भी धर्म का क्यों न हो। वर्तमान में हर धर्म के लोग इन मामलों का निपटारा अपने पर्सनल लॉ यानी निजी कानूनों के अन्तर्गत करते हैं, जिसमें काफी दिक्कते हैं। समान नागरिक संहिता का अर्थ एक निष्पक्ष न्याय प्रक्रिया है, जिसमें किसी धर्म का कोई ताल्लुकात नहीं होता है। फिर ये समाज के मासीहा कहलाने वाले वामपंथी, विपक्षी दल और बुद्विजीवी इस कानून की खिलाफत आखिर किस ओहदे को प्राप्त करने के लिए कर रहे हैं।
शाहबानो का केस जब उच्चतम न्यायालय तक पहुंचा तब से समान नागरिक संहिता को लेकर देश में बवंडर मचा है। यह मामला यूँ था कि पांच बच्चों की माँ ६२ वर्षीय शाहबानों को उनके पति मोहम्मद खान ने तीन तलाक़ के तहत तलाक़ दे दिया। इस पर शाहबानों ने गुजारा भत्ते के लिए अदालत में गुहार लगाई। उच्चतम न्यायालय ने अपराध दंड संहिता की धारा 125 के अंतर्गत निर्णय लिया, जो हर किसी पर लागू होता है। चाहे वो किसी भी धर्म,जाति या सम्प्रदाय का हो। न्यायालय ने निर्देश दिया कि शाहबानो को गुजरा भत्ता दिया जाय। भारत के रूढ़िवादी मुसलमानों के अनुसार यह निर्णय उनकी संस्कृति और विधानों पर अनाधिकार हस्तक्षेप था। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड नाम की संस्था ने आन्दोलन की धमकी दी। और उस समय के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने मुस्लिम तुष्टिकरण से पोषित कांग्रेसी धर्मनिरपेक्षता का विराट परिचय देते हुए संसद में ‘मुस्लिम महिला (तलाक़ पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम -१९८६’ पारित कर अदालत के निर्णय को पलट दिया। मोहम्मद खान शाहबानों को गुजरा भत्ता देने से बच गए। आज भी कांग्रेस अपनी उसी रवायत की राह पर है, तभी तो मोदी ने सभी धर्मों की महिलाओं को एक समान अधिकार देने की बात क्या कही कि वो बिलबिला उठी। कांग्रेस की तरफ से अब भी खुलकर तीन तलाक़ विरोध नहीं हो रहा है, क्योंकि ऐसा करने से उनका तथाकथित सेकुलरिज्म भंग हो सकता है। सेकुलरिज्म का यही पाखण्ड है जो कांग्रेस समेत उसीके जैसे सेकुलर दलों की नज़र में इफ्तारी आयोजन को तो धर्मनिरपेक्ष बना देता है, पर देश के प्रधानमंत्री जब ‘जय श्रीराम’ का जयघोष करते हैं तो ये उन्हें सांप्रदायिक लगने लगता है। लेकिन, इनके इस नकली सेकुलरिज्म को देश की जनता अब पहचान चुकी है और अब इनके झांसे में नहीं आने वाली।
(ये लेखक के निजी विचार हैं।)