गांधी ह्त्या से जुड़ा एक दूसरा पक्ष अगर देखें तो गांधी की मृत्यु से सबसे अधिक लाभ कांग्रेस को ही हुआ है। यदि इस प्रकार गांधी की ह्त्या न हुई होती तो कांग्रेस इतने दिनों तक लोकप्रिय नही रही होती। कांग्रेस की रीती-नीति से खफा होकर गांधी खुद कांग्रेस के विरोध में उतर आते। कुछ लोग तो यह भी बतलाते हैं कि गांधी जी एक दो दिन के भीतर कांग्रेस विसर्जित करने की घोषणा करने वाले थे। साथ ही यह भी अन्वेषणा का विषय है कि गांधी की ह्त्या के असफल प्रयास होने पर भी नेहरू ने उनकी सुरक्षा का उचित प्रबन्ध क्यों नही किया , क्या इसके लिए नेहरू की जिम्मेदारी नही बनती थी? जैसा कि आजकल हम अन्य सरकारो को जिम्मेदार ठहराते हैं। दुर्भाग्य से जन विमर्श में इन बातो का सही विश्लेषण होता नही दिखता।
संघ ने कभी भी गांधी की हत्या को उचित नही ठहराया। वर्तमान में संघ के एक वरिष्ठ पदाधिकारी के अनुसार, “यह सही है कि गांधी जी के साथ संघ के कुछ मुद्दों पर राजनीतिक मतभेद थे, परंतु इसके साथ-साथ गांधी के उठाये सांस्कृतिक मुद्दों पर पूर्ण सहमति भी थी। गांधी के ग्राम स्वराज, स्वदेशी, जातिगत अस्पृश्यता आदि मुद्दों पर संघ आरम्भ से सक्रिय रहा और उन्हें समाज में क्रियान्वित करके दिखाया”। संघ की गांधी के प्रति भावना इस तथ्य से भी व्यक्त होती है कि संघ के प्रतिदिन प्रातः स्मरण किये जाने वाले “एकात्मता स्तोत्र” में अन्य महापुरुषों के साथ साथ गांधी का नाम भी श्रद्धापूर्वक स्मरण किया जाता है।
संघ का व्यवहार कभी भी प्रतिक्रयात्मक नही रहा, संघ अहिंसा को सही अर्थ में अपनाने वाला संगठन है। संघ ने भी वैचारिक भिन्नताओ के आधार पर किसी के लिए कोई प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष साजिश नही रची। अगर संघ की रीती पद्धति ऐसी होती तो ऐसे षडयंत्रो में गांधी की अपेक्षा जिन्नाह या बाकी लोगो का नाम पहले आना चाहिए था। लेकिन तब भी संघ को हिंदुत्ववादी होने का खामियाजा भुगतना पड़ा। नेहरू को हिन्दू शब्द से घृणा थी। काका साहेब गाडगिल लिखते हैं कि गांधी की हत्या के बाद 31 जनवरी और एक फरवरी को दिल्ली में राज्यपालों की बैठक में मैं भी उपस्थित था। इस बैठक में हिन्दू महासभा और संघ के बारे में कठोर नीति अपनाने पर विचार व्यक्त किये जा रहे थे, जबकि कई लोगो का मानना था कि केवल हत्यारे और उसके सहयोगियों के खिलाफ ही कठोर नीति अपनानी चाहिए। सावरकर को भी नेहरू के आग्रह पर ही इस मामले में अभियुक्त के तौर पर समेटा गया था।
संघ ने कभी भी गांधी की हत्या को उचित नही ठहराया। वर्तमान में संघ के एक वरिष्ठ पदाधिकारी के अनुसार, “यह सही है कि गांधी जी के साथ संघ के कुछ मुद्दों पर राजनीतिक मतभेद थे, परंतु इसके साथ-साथ गांधी के उठाये सांस्कृतिक मुद्दों पर पूर्ण सहमति भी थी। गांधी के ग्राम स्वराज, स्वदेशी, जातिगत अस्पृश्यता आदि मुद्दों पर संघ आरम्भ से सक्रिय रहा और उन्हें समाज में क्रियान्वित करके दिखाया”। संघ की गांधी के प्रति भावना इस तथ्य से भी व्यक्त होती है कि संघ के प्रतिदिन प्रातः स्मरण किये जाने वाले “एकात्मता स्तोत्र” में अन्य महापुरुषों के साथ साथ गांधी का नाम भी श्रद्धापूर्वक स्मरण किया जाता है।
अनेक तथ्यों का विश्लेषण करने पर कांग्रेस का संघ के प्रति विचार व्यवहार हमेशा विरोधाभास भरा रहा है। यह बात सच है कि कांग्रेस का दृष्टिकोण संघ के आरम्भ से अलग तरह का था, फिर भी 1934 में गांधी के करीबी जमना लाल बजाज डा हेडगेवार के पास यह प्रस्ताव लेकर गए कि संघ का कार्य कांग्रेस के नेतृत्व में चलता रहे। परन्तु डा हेडगेवार ने इसे विनम्रता पूर्वक अस्वीकार कर दिया। एक और अकल्पनीय बात यह रही कि गांधी की हत्या में संघ को लपेटने के बाद एक बार फिर अक्टूबर 1949 में कांग्रेस की कार्यकारिणी द्वारा यह प्रस्ताव पारित किया गया कि संघ के स्वयंसेवको के लिए कांग्रेस के द्वार खुले हैं। संघ के स्वयंसेवको को सीधा न्यौता दिया गया कांग्रेस ज्वाइन करने का। क्या यह सम्भव था कि गांधी की हत्या के लिए जिम्मेदार लोगो के लिए कांग्रेस अपने दरवाजे खोलती? दरअसल दोनों जांच आयोगों द्वारा गांधी की हत्या में संघ की भूमिका को नकारने के बाद कांग्रेस के लोगो का अंतर्मन यह स्वीकार कर चुका होगा कि संघ का गांधी की हत्या के षड्यंत्र से कुछ लेना देना नही है, परन्तु नेहरू के कारण वह खुलकर इसे स्वीकार नही कर पा रहे हो इसलिए इस प्रस्ताव के माध्यम से कांग्रेस ने यह भावना व्यक्त की। साथ ही यह भी सम्भव है कि शायद हिन्दू महासभा की तरह कांग्रेस भी संघ की ऊर्जावान तेजस्वी युवाशक्ति का राजनीतिक उपयोग अपने पक्ष में करना चाहती हो और उसे यह उचित अवसर प्रतीत हुआ हो।
1962 के चीन युद्ध के बाद नेहरू को संघ के विषय में अपनी भूल का एहसास हुआ और उन्होंने गणतन्त्र दिवस की परेड में संघ के स्वयंसेवको को संचलन का न्यौता देकर भूल सुधार भी किया। संघ की कार्यपद्धति से प्रभावित संजय गांधी ने संघ की तर्ज पर कांग्रेस की सरपरस्ती में दूसरे संघ के निर्माण की घोषणा की थी, यद्यपि वह इसे क्रियान्वित करने से पहले ही चल बसे। अभी भी राहुल गांधी अपनी बैठको में कार्यकर्ताओ को संघ से कुछ सीखने की नसीहत देते पाये गए हैं। अभिप्राय यह है कि कांग्रेस कभी भी संघ के बारे में अपने विचार स्थिर नही कर पायी, परंतु राजनैतिक कारणों से संघ की अन्धविरोधी अवश्य बनी रही।
इस पूरी चर्चा से यह तो स्पष्ट है कि कांग्रेस द्वारा गांधी की हत्या से संघ को जोड़ना निहित स्वार्थो, राजनैतिक लाभ, वैचारिक प्रतिद्वंद्विता तथा अपनी दुर्बलता से उपजी कुंठा का परिणाम था जो आज तक बदस्तूर जारी है। राहुल गांधी अब उसी फांस में फंसने जा रहे है, जिससे उनके पूर्वज कभी निकल नही पाये। इसका सीधा लाभ यह भी है कि दशको से चले आ रहे प्रोपेगेंडे को दोबारा से छिन्न भिन्न करने का तथा पुरानी अवधारणा को ध्वस्त कर नई अवधारणा गढ़ने का अवसर अकस्मात ही मिल गया है। जिस घटना के लिए पूना के आस-पास के कुछ व्यक्ति जिम्मेदार थे, उसके लिए अखिल भारतीय स्तर के संगठन को जिम्मेदार ठहराने के लिए राहुल गांधी को ऐसे तर्क ढूँढने होंगे जो उनके तरकश में हैं ही नहीँ। साथ-साथ अपने नेताओ के तमाम दुष्कृत्यों को कांग्रेसी दुष्कृत्य मानने की मानसिकता बनानी पड़ेगी जो कि खासा घाटे का सौदा होगी। मामला दिलचस्प है। संघ की जो क्षति होनी थी वह 1948 में हो चुकी, संघ अब उससे बहुत आगे निकल चुका। गांधी की ह्त्या के नाम पर न तब संघ को दबाया जा सका था, न अब दबाया जा सकेगा। हां, जो नए सवाल खड़े होने वाले हैं उनसे राजनितिक भँवर में फंसी कांग्रेस जरूर भरभराने की स्थिति में है, जिससे उसकी रही सही साख भी दांव पर लग गयी है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)