देश में यह बहस अक्सर चलती रहती है कि देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के स्थान पर अगर सरदार वल्लभ भाई पटेल प्रधानमंत्री बने होते तो आज देश की तस्वीर क्या होती? बड़ी संख्या में लोगों की ऐसी धारणा है कि अगर ऐसा हुआ होता तो न तो कश्मीर की समस्या पैदा हुई होती और न ही तब चीन द्वारा भारत पर आक्रमण की जुर्रत की जाती। सरदार पटेल 1945-46 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद के प्रबल दावेदार थे लेकिन गांधी जी की इच्छा का सम्मान करते हुए जवाहरलाल नेहरु के अध्यक्ष बनने का विरोध नहीं किया। तथ्य यह भी है कि आजादी के उपरांत अधिकांश प्रांतीय कांग्रेस समितियां भी सरदार बल्लभ भाई पटेल को ही प्रधानमंत्री पद पर देखना चाहती थीं, लेकिन उन्होंने एकबार फिर गांधी जी की इच्छा का सम्मान करते हुए स्वयं को प्रधानमंत्री पद की दौड़ से अलग कर लिया।
कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि अगर नेहरु की जगह पटेल देश के प्रधानमंत्री होते तो डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी को कश्मीर की रक्षा के लिए प्राण नहीं गंवाने पड़ते। मुखर्जी सरदार पटेल की भूमिका से तो आश्वस्त थे लेकिन कश्मीर के सवाल पर जवाहरलाल नेहरु की नीति से आशंकित व असंतुष्ट थे। दरअसल वे जम्मू-कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने संसद में अपने भाषण में धारा 370 को समाप्त करने की पुरजोर वकालत की। अगस्त 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त किया कि ‘या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊंगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपना जीवन बलिदान कर दूंगा।’ अपने संकल्प को पूरा करने के लिए वे 1953 में बिना परमिट लिए जम्मू-कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े और 23 जून 1953 को रहस्यमयी परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी। निःसंदेह सरदार पटेल देश के प्रधानमंत्री होते तो यह नौबत भी नहीं आई होती।
चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने लिखा है कि ‘निःसंदेह बेहतर होता, यदि नेहरु को विदेश मंत्री तथा सरदार पटेल को प्रधानमंत्री बनाया जाता। यदि पटेल कुछ और दिन जीवित रहते तो वे प्रधानमंत्री के पद पर अवश्य पहुंचते जिसके लिए संभवतः वह योग्य पात्र थे। तब भारत में कश्मीर, तिब्बत, चीन और अन्यान्य विवादों की कोई समस्या नहीं रहती।’ आज देश के अधिकांश लोगों का भी ऐसा ही मानना है। कश्मीर समस्या का निपटारा 1947 में ही हो गया होता जब भारतीय सेना ने पाकिस्तानी सैनिकों को रौंदते हुए अपनी बढ़त बना ली थी। लेकिन जवाहरलाल नेहरु की ढुलमुल नीति और अदूरदर्शिता के कारण कश्मीर का एक बड़ा भाग भारत के हाथ से निकल गया। दरअसल जवाहरलाल नेहरु ने 31 दिसंबर 1947 को संयुक्त राष्ट्र संध से अपील कर डाली कि वह पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिमी लूटेरों को भारत पर आक्रमण करने से रोके। जबकि पटेल इसके विरुद्ध थे। लेकिन नेहरु के इस गुहार से भारतीय सेना के हाथ बंध गए और 1 जनवरी 1949 को भारत-पाकिस्तान के मध्य युद्ध विराम की घोषणा हो गयी। युद्ध विराम हो जाने के बाद पाकिस्तान कश्मीर के 32000 वर्गमील क्षेत्रफल पर कुंडली मारकर बैठ गया और इस क्षेत्र को आजाद कश्मीर का नाम दे दिया।
देश में बड़ी संख्या में विद्वानों का ऐसा मानना है कि अगर कश्मीर समस्या निपटाने की जिम्मेदारी पटेल को दिया गया होता तो कश्मीर की समस्या पैदा ही नहीं हुई होती। 1950 में पटेल ने पंडित नेहरु को एक पत्र लिखकर चीन की तिब्बत नीति को लेकर भी आशंका जतायी। उन्होंने कहा कि तिब्बत पर चीन का कब्जा कई नई समस्याओं को जन्म देगा। आज उनका कथन अक्षरशः सच साबित हो रहा है। गोवा की स्वतंत्रता को लेकर भी उनकी स्पष्ट नीति थी। कैबिनेट बैठक में उन्होंने कहा था कि ‘क्या हम गोवा जाएंगे, सिर्फ दो घंटे की बात है’, नेहरु इससे बेहद नाराज हुए थे। अगर पटेल की चली होती तो गोवा की स्वतंत्रता के लिए 1961 तक इंतजार नहीं करना पड़ता। बावजूद इसके सरदार पटेल ने उपप्रधानमंत्री, गृह, सूचना और रियासती विभागों के मंत्री रहते हुए जिस निर्भिकता और चतुराई से 562 छोटी-बड़ी रियासतों का भारतीय संघ में विलिनीकरण कराया वो विश्व इतिहास की अदभुत घटना है।
हैदराबाद की जनता भी हैदराबाद रियासत को भारत में देखना चाहती थी। इसके विपरित हैदराबाद का निजाम हैदराबाद को एक स्वतंत्र राज्य बनाए रखना चाहता था। परिणामतः हैदराबाद की जनता ने विद्रोह कर दिया। विद्रोह को कुचलने के लिए निजाम ने जनता पर कहर ढाना शुरु कर दिया। लिहाजा सरदार पटेल ने 13 सितंबर 1948 को वहां सैनिक कार्रवाई के लिए भारतीय सेना भेज दी। 17 सितंबर 1948 को सरदार पटेल की सुझबुझ से हैदराबाद रियासत का विधिवत भारत में विलय कर लिया गया। फरीदकोट के राजा ने भी विलय करने में कुछ आनाकानी की लेकिन जब पटेल ने फरीदकोट के नक्शे पर लाल पेंसिल घुमाते हुए सिर्फ इतना पूछा कि ‘क्या मर्जी है’ तो राजा कांप उठा।
विश्व इतिहास में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं हुआ जिसने इतनी बड़ी संख्या में राज्यों का एकीकरण करने का साहस दिखाया हो। 15 अगस्त, 1947 को जैसे ही इंग्लैण्ड की सर्वोच्च सत्ता समाप्त हुई सभी प्रांत प्रभुतासंपन्न हो गए। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के अनुसार यह प्रांत पूर्ण रुप से स्वतंत्र थे और भारत या पाकिस्तान किसी भी अधिराज्य में सम्मिलित हो सकते थे। यह प्रांत स्वतंत्र नहीं रह सकते थे। दोनों अधिराज्यों में से किसी एक में विलयन आवश्यक था और इसका फैसला भौगोलिक और राजनीतिक आधार पर ही हो सकता था। भारत में 600 से अधिक रियासतें विद्यमान थी। 5 जुलाई 1947 को एक रियासत विभाग की स्थापना की गयी जिसका प्रभार सरदार पटेल को सौंपा गया। पटेल ने पीवी मेनन के साथ मिलकर देशी राज्यों को भारतीय संघ में मिलाने का प्रयास तेज कर दिया। रियासती मंत्रालय द्वारा एक प्रवेश पत्र तैयार किया गया। देशी राजाओं के रियासतों को भारतीय संघ में प्रवेश पाने के लिए इस प्रवेश पत्र पर हस्ताक्षर करने थे। भारतीय नरेशों के सामने दो विकल्प रखे गए। पहला विकल्प था वे अपनी रियासतों का भारतीय संघ में विलय कर लें। उनके अंदरुनी मामले में केंद्र सरकार कोई हस्तक्षेप नहीं करेगी। किंतु प्रतिरक्षा, विदेश संबंध और संचार साधनों पर केंद्र सरकार का पूर्ण नियंत्रण रहेगा। दूसरा विकल्प था कि यदि भारतीय राजा ऐसा नहीं करेंगे तो उनकी रियासतों को बल पूर्वक भारतीय संघ में विलय कर लिया जाएगा। पटेल के समझाने के बाद अधिकांश देशी राजओं ने भारतीय संघ में विलय के प्रस्ताव को स्वीकार लिया। लेकिन जम्मू-कश्मीर, जुनागढ़ और हैदराबाद के राजाओं ने ऐसा करने से मना कर दिया। जूनागढ़ एक छोटी रियासत थी और वहां पर नवाब का शासन था। नवाब जूनागढ़ को पाकिस्तान में मिलाना चाहता था। लेकिन सरदार पटेल मौके की नजाकत भांप जूनागढ़ की जनता की सहायता के लिए सेना भेज दी। इससे डरकर नवाब पाकिस्तान भाग गया। जूनागढ़ की तरह हैदराबाद की जनता भी हैदराबाद रियासत को भारत में देखना चाहती थी। इसके विपरित हैदराबाद का निजाम हैदराबाद को एक स्वतंत्र राज्य बनाए रखना चाहता था। परिणामतः हैदराबाद की जनता ने विद्रोह कर दिया। विद्रोह को कुचलने के लिए निजाम ने जनता पर कहर ढाना शुरु कर दिया। लिहाजा सरदार पटेल ने 13 सितंबर 1948 को वहां सैनिक कार्रवाई के लिए भारतीय सेना भेज दी। 17 सितंबर 1948 को सरदार पटेल की सुझबुझ से हैदराबाद रियासत का विधिवत भारत में विलय कर लिया गया। फरीदकोट के राजा ने भी विलय करने में कुछ आनाकानी की लेकिन जब पटेल ने फरीदकोट के नक्शे पर लाल पेंसिल घुमाते हुए सिर्फ इतना पूछा कि ‘क्या मर्जी है’ तो राजा कांप उठा।
सरदार पटेल 1945-46 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद के प्रबल दावेदार थे लेकिन गांधी जी की इच्छा का सम्मान करते हुए जवाहरलाल नेहरु के अध्यक्ष बनने का विरोध नहीं किया। तथ्य यह भी है कि आजादी के उपरांत अधिकांश प्रांतीय कांग्रेस समितियां भी सरदार बल्लभ भाई पटेल को ही प्रधानमंत्री पद पर देखना चाहती थी लेकिन उन्होंने एकबार फिर गांधी जी की इच्छा का सम्मान करते हुए स्वयं को प्रधानमंत्री पद की दौड़ से अलग कर लिया।
इसमें दो राय नहीं कि कश्मीर समस्या को निपटाने की जिम्मेदारी सरदार पटेल को दी गयी होती तो आज संपूर्ण कश्मीर भारत का अंग होता। गुलाम कश्मीर और बलूचिस्तान में पाकिस्तान का दमन नहीं चलता। डा0 श्यामा प्रसाद मुखर्जी को कश्मीर की रक्षा के लिए प्राण नहीं गंवाने पड़ते। मुखर्जी सरदार पटेल की भूमिका से तो आश्वस्त थे लेकिन कश्मीर के सवाल पर जवाहरलाल नेहरु की नीति से आशंकित व असंतुष्ट थे। दरअसल वे जम्मू-कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने संसद में अपने भाषण में धारा 370 को समाप्त करने की पुरजोर वकालत की। अगस्त 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त किया कि ‘या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊंगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपना जीवन बलिदान कर दूंगा।’ अपने संकल्प को पूरा करने के लिए वे 1953 में बिना परमिट लिए जम्मू-कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े और 23 जून 1953 को रहस्यमयी परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी। निःसंदेह सरदार पटेल देश के प्रधानमंत्री होते तो यह नौबत भी नहीं आई होती।
(लेखक इतिहास के प्राध्यापक हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)