देश की आज़ादी में दिल्ली के गांवों का भी रहा है महत्वपूर्ण योगदान!

देश की आजादी के आंदोलन में दिल्ली के गांवों की भागीदारी का सिरा सन् 1857 में हुए पहले स्वतंत्रता संग्राम तक जाता है जब चंद्रावल, अलीपुर सहित राजधानी के अनेक अधिक गांवों के निवासियों ने विदेशी शासन के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजा दिया था। अंग्रेजों ने इस पहले भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दमन और दिल्ली पर दोबारा कब्जा करने के बाद इसमें हिस्सा लेने वाले क्रांतिकारियों को बहुत ही कठोरता से कुचला। आजादी की पहली लड़ाई में शामिल हुए गांवों को बागी घोषित कर दिया गया और ऐसे गांवों में भारतीयों की अंधाधुंध हत्याएं की गईं। ऐसा कहा जाता है कि डेरा फतेहपुर गांव में, केवल मांओं की गोद में रहे दूधमुंहे बच्चे ही मौत के मुंह से बचे। गांवों की फसल लूट ली गई अथवा जला दी गई और पशु जब्त कर लिए गए।

अंग्रेज सरकार के दमन किए जाने के बावजूद दिल्ली में क्रांतिकारियों का आंदोलन तेजी पकड़ रहा था। 8 सितंबर 1928 में यहां फिरोजशाह कोटला में हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन आर्मी की स्थापना हुई। इसके क्रांतिकारियों के छिपने के ठिकाने ग्रामीण क्षेत्रों में फैले हुए थे। चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, भगवती चरण, यशपाल, धनवन्तरि और कैलाश पति इस संस्था के प्रमुख सदस्य थे। इन लोगों का संयुक्त प्रांत, राजस्थान और हावड़ा के क्रांतिकारी दलों के साथ सपंर्क बना हुआ था। ये लोग रिपब्लिकन आर्मी के लिए धन प्राप्त करने के लिए सशस्त्र डकैती डाला करते थे।

23 दिसंबर 1929 को पुराने किले के पीछे वाइसराय की स्पेशल ट्रेन को पटरी से उतारने की कोशिश की गई जो कि एक साहसिक कदम था। इनमें से कुछ क्रांतिकारियों के खुफिया ठिकाने सुदूर हिंडन तक में थे और कहा जाता है कि पुराना किला के पास वायसराय के काफिले पर बम फेंकने वालों ने जिस मोटर साइकिल का इस्तेमाल किया था, उसके हिस्से हिंडन नदी में मिले थे। यह कोशिश तो नाकामयाब रही, लेकिन इसकी चर्चा बहुत दिनों तक होती रही। एक-एक करके सभी क्रांतिकारी पकड़े गए। इसे ही बाद में दिल्ली षडयंत्र केस कहा गया।

दिल्ली में जो स्वतंत्रता संग्राम लड़ा गया उसकी सबसे बड़ी विषेषता यह है कि यहां गांव के क्षेत्रों के निवासियों ने बढ़चढ़कर हिस्सा लिया। उल्लेखनीय है कि दिल्ली में रहने वाले लोगों में 1901 में 48.6 प्रतिशत, 1911 में 43.7 प्रतिशत, 1921 में 37.7 प्रतिशत और 1941 में 29.7 प्रतिशत लोग गांव के निवासी थे। महरौली और नरेला के खादी आश्रम, बवाना की चैपाल, बदरपुर का गांधी खैराती अस्पताल, ये कुछ ऐसे केंद्र थे जिनसे स्वतंत्रता संग्राम का संदेश फैलता रहा। 1930 का सविनय अवज्ञा आंदोलन दिल्ली के गांवों में बड़ा ही लोकप्रिय रहा, जिसका उद्देष्य विदेशी माल का बहिष्कार करना था। दिल्ली के गांवों में नमक सत्याग्रह की भूमिका भी अत्यंत महत्वपूर्ण रही। इस तरह कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि आजादी की लड़ाई में दिल्ली देहात का योगदान किसी से भी कम नहीं था, वह बात अलग है कि उसकी अंगार वाली भूमिका पर समय की राख जमने से लोक स्मृति से दिल्ली के गांवों और गांववालों की तस्वीर धुंधली हो गयी है।

इस केस के 14 अभियुक्तों में से दो को नजरबंद रखा गया, चार को बरी कर दिया गया और आठ व्यक्तियों को अलग-अलग मामलों में दोषी ठहराया गया। हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायान “अज्ञेय”, विमल प्रसाद और बाबू राम पर दिल्ली में मुकदमा चला तो चन्द्रशेखर आजाद, यशपाल तथा कुछ क्रांतिकारी पुलिस गिरफ्तारी से बच निकले। यहाँ तक कि यमुना पार के इलाके में स्वतंत्रता सेनानियों की गतिविधियों पर निगाह रखने के हिसाब से सन् 1915 में शाहदरा परगना और गाजियाबाद तहसील के कुछ अन्य गांवों को दिल्ली में शामिल किया गया, क्योंकि स्वतंत्रता सेनानी अधिकतर यमुना पार के इलाके से अपनी गतिविधियां संचालित करते थे।

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महात्मा गांधी के नमक सत्याग्रह शुरू करने के बाद, कोई कर नहीं (नो टैक्स) अभियान भी ग्रामीण दिल्ली में भी तेजी से फैला। कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने गांवों में प्रचार अभियान शुरू किए। इस उद्देश्य के लिए 8 अप्रैल से 10 अप्रैल 1930 के अंतराल में 20 स्वयंसेवकों के एक समूह ने 24 गांवों का दौरा किया। इस समूह ने महरौली से अपना अभियान शुरू करते हुए 12 घंटे में ही सुल्तानपुर, छतरपुर, नायडू, गढ़ी, देवली, खानपुर, मदनगीर और सैदुल अजाब गांवों का दौरा किया। इन सभी गांवों में आठ बैठकें आयोजित की गई, जिनमें इन स्वयंसेवकों, जिन्हें स्नेह से गांधीजी की सेना का नाम दिया गया, को सुनने के लिए पुरुषों, महिलाओं और बच्चों की भीड़ उमड़ पड़ी।

अगले दिन यह समूह लाडो सराय गांव के लिए रवाना हो गया। इस गांव के सरपंच ने स्वयंसेवकों के प्रवेश का विरोध करते हुए महरौली पुलिस स्टेशन में इस बात की सूचना दर्ज करवा दी। हालांकि यहां पर एक बहुत ही सफल सभा का आयोजन हुआ। इस तरह की सभाएं हौजखास, अधचीनी और बेगमपुर गांवों में भी में आयोजित की गई। हर जगह लोगों ने पूरे उत्साह के साथ इन सभाओं में हिस्सेदारी की। ग्रामीण दिल्ली में सविनय अवज्ञा आंदोलन के मुख्य सूत्रधार कृष्णा नायर थे। उन्होंने नरेला और आसपास के गांवों में कोई कर नहीं अभियान का सफलतापूर्वक आयोजन किया। 15 जून को नायर और छह अन्य कार्यकर्ताओं के साथ गिरफ्तार किया गया तथा 16 जुलाई 1930 को सभी को ग्यारह महीने की कैद की सजा सुनाई गई।

सरकार ने ग्रामीण दिल्ली में कोई कर नहीं (नो टैक्स) अभियान को हतोत्साहित करने के लिए एक विशेष अध्यादेश पारित किया, पर इसके बावजूद अभियान जारी रहा। पुलिस ने न केवल इन सभाओं में भाग लेने वालों को गिरफ्तार किया बल्कि ऐसी सभाओं के नजदीक खड़े रहने वालों को भी धर पकड़ा। जून 1931 के अंतिम सप्ताह में नरेला में आयोजित एक बैठक में 750 लोगों ने भाग लिया। इस बैठक में राजस्व की छूट को अपर्याप्त बताते हुए उसकी निंदा की गई और किसानों को उनकी क्षमता के अनुसार ही राजस्व भुगतान करने की सलाह दी गई। आधिकारिक तौर पर सूचना दी गई कि कांग्रेस ने दिल्ली के ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी पैठ बना ली है और उसके प्रचार को ग्रामीण जनता में समर्थन मिला है। ग्रामीण क्षेत्रों में आंदोलन के जारी रहा, जिसके कारण सरकार को राजस्व जमा करने में काफी कठिनाई हुई।

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दिल्ली में 1857 स्वतंत्रता संग्राम के दौरान का चित्र

इस सदी की शुरुआत से ही कांग्रेस स्वयंसेवक ग्रामीण दिल्ली में सक्रिय थे। सन् 1930 में, दिल्ली के गांवों के कुछ कार्यकर्ताओं ने गांधी से नरेला में एक स्थायी आश्रम स्थापित करने का अनुरोध किया। गांधी की सहमति के बाद सन् 1931 में श्री गांधी सेवा आश्रम अस्तित्व में आया। नरेला के ग्रामीणों ने इस उद्देश्य के लिए 17 बीघा भूमि दान दी। इस शिविर का प्रभारी कृष्णा नायर को बनाया गया था जबकि बृज कृष्ण चांदीवाला ने भी आश्रम की स्थापना में मदद की। स्थानीय ग्रामीणों को आम तौर पर कांग्रेस कार्यकर्ताओं की मदद करते थे। इस आश्रम में स्थायी आधार पर 10 व्यक्ति रहते थे। इसी तरह, अगस्त, 1931 में रामतल, महरौली में एक और आश्रम स्थापित किया गया। मार्च, 1931 में गांधी-इरविन समझौते के बाद, ग्रामीण दिल्ली में कुछ समय के लिए राजनीतिक गतिविधियां थम गई लेकिन, गोलमेज सम्मेलन की विफलता के बाद ग्रामीण दिल्ली में राजनीतिक सरगर्मी फिर से बढ़ गई। स्वतंत्रता के लिए लड़ाई में दिल्ली के गांवों का योगदान अतुलनीय रहा। सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान राजधानी के ग्रामीणों ने भूमि-कर देने से इंकार करके अंग्रेजी साम्राज्य की ताकत को चुनौती दी। दिल्ली के ग्रामीणों ने स्वतंत्रता सेनानियों को गांवों को अपने घरों में आश्रय भी प्रदान किया था।

दिल्ली में जो स्वतंत्रता संग्राम लड़ा गया उसकी सबसे बड़ी विषेषता यह है कि यहां गांव के क्षेत्रों के निवासियों ने बढ़चढ़कर हिस्सा लिया। उल्लेखनीय है कि दिल्ली में रहने वाले लोगों में 1901 में 48.6 प्रतिशत, 1911 में 43.7 प्रतिशत, 1921 में 37.7 प्रतिशत और 1941 में 29.7 प्रतिशत लोग गांव के निवासी थे। महरौली और नरेला के खादी आश्रम, बवाना की चैपाल, बदरपुर का गांधी खैराती अस्पताल, ये कुछ ऐसे केंद्र थे जिनसे स्वतंत्रता संग्राम का संदेश फैलता रहा। 1930 का सविनय अवज्ञा आंदोलन दिल्ली के गांवों में बड़ा ही लोकप्रिय रहा, जिसका उद्देष्य विदेशी माल का बहिष्कार करना था। दिल्ली के गांवों में नमक सत्याग्रह की भूमिका भी अत्यंत महत्वपूर्ण रही। स्वामी स्वरूपानंद, सी के नायर, डॉक्टर सुखदेव, किशनलाल वैद्य और चौधरी ब्रहमप्रकाश, जो कि आजाद भारत में दिल्ली के पहले मुख्यमंत्री बने, ने ग्रामीण दिल्ली में स्वतंत्रता संग्राम में अत्याधिक योगदान दिया। इस तरह कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि आजादी की लड़ाई में दिल्ली देहात का योगदान किसी से भी कम नहीं था, वह बात अलग है कि उसकी अंगार वाली भूमिका पर समय की राख जमने से लोक स्मृति से दिल्ली के गांवों और गांववालों की तस्वीर धुंधली हो गयी है।

ये लेखक के निजी विचार हैं।