अन्दर ही अन्दर दरक चुका है जेएनयू में कम्युनिस्टों का दुर्ग

दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनाव में एक बार पुनः अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् को छात्रों का भारी समर्थन प्राप्त हुआ। आम आदमी पार्टी की छात्र इकाई के चुनाव से हटने के बाद विद्यार्थी परिषद् एवं कांग्रेस की छात्र इकाई एनएसयूआई आमने-सामने थी। इस सीधे मुकाबले में विद्यार्थी परिषद् ने भारी अंतर से अध्यक्ष, सचिव एवं सह-सचिव का पद जीत लिया। इस तरह से विद्यार्थी परिषद् दिल्ली विश्वविद्यालय में वर्ष 2010 से लगातार छात्रों का भारी समर्थन प्राप्त करने में सफल रही है। इतना ही नहीं, इस वर्ष हुए राजस्थान, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड एवं झारखंड में अब तक हुए छात्रसंघ चुनावों में हर जगह विद्यार्थी परिषद् को छात्रों का भारी समर्थन मिला है।

एक ओर जब हर तरफ से विद्यार्थी परिषद् की भारी जीत का समाचार प्राप्त हो रहा है, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में कम्युनिस्टों की जीत से कइयों के मन में कुछ प्रश्न पुनः खड़े हुए हैं। दिल्ली में स्थित दिल्ली विश्वविद्यालय एवं जेएनयू, एक ही समय में दो अलग-अलग तरह का जनादेश क्यों दे रहा है? क्या कारण है कि दिल्ली विश्वविद्यालय में कोई गंभीर चुनौती प्रस्तुत करने में असफल कम्युनिस्ट छात्र संगठन जेएनयू में लगातार जीतते आ रहे हैं? क्या जेएनयू में विद्यार्थी परिषद् कोई गंभीर चुनौती प्रस्तुत नहीं कर पा रही? क्या जेएनयू कम्युनिस्टों का अभेद्य दुर्ग बना रहेगा? इस तरह के अनेक प्रश्न इस देश के प्रबुद्ध जनों के मन-मस्तिष्क में मंडराते रहे हैं। इन चुनाव परिणामों के वस्तुगत निहितार्थों की गहरी छानबीन के बिना हम शायद ही इन निष्कर्षों पर पहुंच पायेंगे कि क्या कम्युनिस्टों की इस बार की जीत इनके पुनर्जीवन का संकेत है या मृत्यु से पहले मरणासन्न रोगी की गहरी हिचकी भर सांस।

कम्युनिस्ट संगठनों की भ्रमित करने वाली गतिविधियां तथा भारत-विरोधी नारों के समय उनके संदेहास्पद कृत्यों से जेएनयू की छवि को गहरा धक्का लगा। एक ओर जब कम्युनिस्ट अपने अवांछित बयानों से जेएनयू की छवि को नुकसान पहुंचा रहे थे, वहीं दूसरी ओर विद्यार्थी परिषद् जेएनयू की छवि को बचाने में लगा था। इस पूरे परिदृश्य में विद्यार्थी परिषद् एक आशा की किरण के रूप में उभरा, जो शैक्षणिक परिसरों में विभाजनकारी-विध्वंसकारी तत्वों को मुंहतोड़ जवाब देने की क्षमता रखता है। ऐसे में जो परिणाम आया है, उसे कम्युनिस्ट छात्र संगठन अपनी जीत तो मान सकते हैं, पर इस तथ्य को झुठला नहीं सकते कि जेएनयू का उनका दुर्ग अब दरक चुका है।

इस बार के जेएनयू छात्रसंघ चुनाव कुछ बड़े प्रश्नों के संदर्भ में हुए। 9 फरवरी 2016 की घटना जब जेएनयू परिसर में कुछ कम्युनिस्ट छात्र संगठनों के शह पर देश विरोधी नारे लगाये गये तथा इस घटना से उपजे देशव्यापी विरोध के फलस्वरूप पूरे देश की निगाहें इन चुनावों पर थी। कम्युनिस्ट संगठनों की भ्रमित करने वाली गतिविधियां तथा भारत-विरोधी नारों के समय उनके संदेहास्पद कृत्यों से जेएनयू की छवि को गहरा धक्का लगा। एक ओर जब कम्युनिस्ट अपने अवांछित बयानों से जेएनयू की छवि को नुकसान पहुंचा रहे थे, वहीं दूसरी ओर विद्यार्थी परिषद् जेएनयू की छवि को बचाने में लगा था। इस पूरे परिदृश्य में विद्यार्थी परिषद् एक आशा की किरण के रूप में उभरा, जो शैक्षणिक परिसरों में विभाजनकारी-विध्वंसकारी तत्वों को मुंहतोड़ जवाब देने की क्षमता रखता है। ऐसे में जो परिणाम आया है, उसे कम्युनिस्ट छात्र संगठन अपनी जीत तो मान सकते हैं, पर इस तथ्य को झुठला नहीं सकते कि जेएनयू का उनका दुर्ग अब दरक चुका है।

जेएनयू छात्रसंघ चुनाव को हमेशा वैचारिक संघर्ष के रूप में देखा जाता रहा है, परन्तु इस बार ‘अवसरवादी राजनीति’ का दुर्भाग्यपूर्ण चेहरा देखने को मिला। आइसा-एसएफआई का असैद्धांतिक गठबंधन छात्रों को ‘वाम एकता’ के नाम पर ठगने के लिए गढ़ा गया। इस पूरे प्रकरण में एआईएसएफ जिसके निवर्तमान छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार हैं, एक मजाक बन कर रह गई। कन्हैया कुमार की यह कैसी छात्र राजनीति थी कि उनके दल को चुनावों के लिए कोई उम्मीदवार ही नहीं मिल पाया या फिर कन्हैया कुमार अब प्रासंगिक ही नहीं रह गये? यह कम्युनिस्ट राजनीति का चरित्र एवं उनके वैचारिक दिवालियापन का सबसे अच्छा उदाहरण है। एसएफआई एवं आईसा न केवल एक-दूसरे के विरूद्ध थे, बल्कि दोनों एक-दूसरे को वैचारिक दुश्मन मानते रहे हैं। दोनों एक-दूसरे को ‘नकली वामपंथी’ की उपाधि से नवाजते रहे हैं। आईसा-एसएफआई का नापाक एवं सत्ता-केन्द्रित गठबंधन पूरे देश में कम्युनिस्टों के वैचारिक दिवालियापन को तो दिखाता ही है, साथ ही यह भी प्रमाणित करता है कि वे अब मरणासन्न स्थिति में पहुंच चुके हैं। 

इस बार के छात्रसंघ चुनाव के परिणाम विद्यार्थी परिषद् के लिए उत्साहजनक रहे हैं। विद्यार्थी परिषद् ने जब से जेएनयू में चुनौती प्रस्तुत की है, कम्युनिस्ट छात्र संगठन के विभिन्न धड़ों का कब्जा दो-तिहाई मतों पर निरंतर बना रहा है। यह पहली बार था कि सभी कम्युनिस्ट दल एकजुट होकर विद्यार्थी परिषद् को रोकने में लगे हुए थे। आईसा-एसएफआई गठबंधन को एआईएसएफ, डीएसएफ आदि कम्युनिस्ट छात्र संगठनों का समर्थन था। आशा यह की जा रही थी कि इस तरह के ‘वाम-एकता’ से विद्यार्थी परिषद् की जड़ें परिसर से उखड़ जायेगी तथा जेएनयू का छात्र इकतरफा कम्युनिस्ट-गठबंधन को समर्थन देगा। परन्तु परिणाम कम्युनिस्टों के आशा के विपरीत आया। विद्यार्थी परिषद् का समर्थन इस विपरीत परिस्थिति में भी बढ़ा और पिछले वर्ष तुलना में लगभग 20 प्रतिशत मतों की वृद्धि हुई। सबसे चौंकाने वाला परिणाम यह रहा कि जिन कम्युनिस्ट धड़ों का अलग-अलग चुनाव लड़ने के बावजूद सामूहिक तौर पर दो-तिहाई मतों पर कब्जा निरंतर बना हुआ था, यह पहली बार था कि उनका एक ‘महागठबंधन’ होते हुए भी वे 40 प्रतिशत मतों के नीचे आ गये। कम्युनिस्ट संगठन यदि ईमानदारी से विश्लेषण करें तो उनको अब जेएनयू में अपने पैर उखड़ते नजर आयेंगे।

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जेएनयू

इस बार का जेएनयू चुनाव बापसा (बिरसा, अंबेडकर, फुले स्टुडेंट्स एसोशिएशन) के उदय के कारण बहुत ही दिलचस्प रहा। वंचित-शोषित समाज के हितों के संरक्षण का दंभ भरने वाले कम्युनिस्टों को बापसा ने इस बार जमकर आईना दिखाया। बापसा को मिले समर्थन से यह साफ हो गया कि अब जेएनयू के वंचित-शोषित वर्ग से आये छात्र अधिक दिनों तक कम्युनिस्टों द्वारा छले नहीं जा सकते। जिस प्रकार से पश्चिम बंगाल एवं केरल में कम्युनिस्ट बेनकाब हो चुके हैं और पूरे देश से जिस तरह से उनका सफाया हुआ, ठीक उसी प्रकार की प्रक्रिया का शुभारंभ जेएनयू में भी देखने को मिल रहा है। नंदीग्राम-सिंगूर के गरीब किसानों की कराह तथा तापसी मलिक जैसी के चीत्कार के बीच जिस तरह से पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट दम तोड़ चुके हैं, ठीक उसी तरह जेएनयू में भी वंचित-शोषित वर्गों के छात्रों के प्रतिरोध एवं अनमोल रतन जैसे अपने बलात्कारियों की कारगुजारियों के बीच जेएनयू के कम्युनिस्टों का भी फातेहा पढ़ा जा रहा है। राष्ट्र-विरोधी, विभाजनकारी एवं विध्वंसकारी कम्युनिस्ट राजनीति को वंचित-शोषित के हमदर्द के मुलम्मे से ढ़कने की कोशिशों की जेएनयू में भी छात्र अब समझने लगे हैं। जिस प्रकार से छात्रों ने इस बार अपना समर्थन व्यक्त किया है, इससे यह कहने में कोई संशय नहीं कि कम्युनिस्ट राजनीति पूरी तरह से बेनकाब हो रही है। विद्यार्थी परिषद् के उभार, प्रसार और संघर्ष ने दशकों पुरानी वामपंथी एकाधिकार को निर्णायक चुनौती दे रही है। और इस बार के छात्रसंघ चुनाव ने भी विद्यार्थी परिषद् जेएनयू में एक केन्द्रीय शक्ति बनी हुई है। आम पाठक यह निष्कर्ष पढ़कर आश्चर्यचकित होंगे कि कम्युनिस्टों की जीत के बावजूद विद्यार्थी परिषद् जेएनयू में केन्द्र में कैसे स्थापित हो गयी है और जीत के बावजूद वामपंथ कैसे मरणासन्न हो चुका है।

इस देश में राष्ट्रवाद की गहरी जड़ों को कम्युनिस्ट हमेशा से अपने राह का रोड़ा मानते रहे हैं। जेएनयू को वे एक ऐसे केन्द्र के रूप में विकसित करना चाहते थे, जहां से पूरे देश में वैचारिक भ्रमजाल बुना जा सके तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर राष्ट्र-विरोधी तत्वों के पक्ष में तर्कों को गढ़ा जा सके। जेएनयू में विद्यार्थी परिषद् के उभार से राष्ट्रवाद एक विचारधारा के रूप में कम्युनिस्टों के सामने सशक्त चुनौती बनकर सामने आया। कम्युनिस्ट यह महसूस करने लगे कि वर्षों से संजोये उनके स्वप्न को विद्यार्थी परिषद् चकनाचूर कर सकता है। और ऐसा हुआ भी। 9 फरवरी की घटना इन्हीं मंसूबों की परिणति थी, परन्तु जिस प्रकार से पूरे देश में इस घटना की भर्त्सना हुई, उससे कम्युनिस्ट दलों के सामने अब अस्तित्व का प्रश्न खड़ा हो गया है। अपनी निश्चित पराजय को सामने देख कम्युनिस्टों के सामने और कोई रास्ता नहीं बचा और एक अवसरवादी-सिद्धांतहीन ‘महागठबंधन’ सामने आया। आने वाले दिनों में विद्यार्थी परिषद् को इस महागठबंधन से निर्णायक संघर्ष करना पड़ेगा। कम्युनिस्टों की वैचारिक एवं नैतिक पराजय तो हो चुकी है, परन्तु अभी भी जेएनयू में दशकों से बुना हुआ इनका ‘मायाजाल’ कायम है। इस मायाजाल को संघ-भाजपा-विद्यार्थी परिषद् के विरूद्ध दुष्प्रचार के आधार पर तैयार किया है। अपने वैचारिक प्रतिबद्धता, समर्पण एवं आचरण से विद्यार्थी परिषद् ने इस मायाजाल को खोखला कर दिया है। वह दिन दूर नहीं जब जेएनयू इस मायाजाल को चीरकर पूर्णतः राष्ट्रवाद को समर्पित होगा।

(लेखक जेएनयू विद्यार्थी परिषद् के पूर्व अध्यक्ष तथा तथा ‘कमल संदेश’ के कार्यकारी संपादक हैं।)