राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रतिवर्ष दशहरे पर पथ संचलन (परेड) निकालता है। संचलन में हजारों स्वयंसेवक एक साथ कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ते जाते हैं। संचलन में सब कदम मिलाकर चल सकें, इसके लिए संघ स्थान (जहाँ शाखा लगती है) पर स्वयंसेवकों को ‘कदमताल’ का अभ्यास कराया जाता है। स्वयंसेवकों के लिए इस कदमताल का संदेश है कि हमें सबके साथ चलना है और सबको साथ लेकर चलना है। संघ की गणवेश में बदलाव का मूल भाव भी ‘सबको साथ लाने के लिए समयानुकूल परिर्वतन’ है। हालांकि, विरोधियों ने इसमें भी संघ निंदा का प्रसंग खोज लिया। आलोचक कह रहे हैं कि संघ ने 90 साल बाद ‘चोला’ बदल लिया। दरअसल इन आलोचकों को आरएसएस समझ में ही नहीं आता है। इसलिए वे उसकी प्रत्येक गतिविधि पर परिहास करते हैं। इनकी उलाहनाओं और छींटाकसी के बीच भी संघ अपनी मौज में जमाने के साथ आगे बढ़ता चला जा रहा है।
संघ की गणवेश में ‘नेकर’ की जगह ‘पैंट’ समयानुकूल परिवर्तन है। हमें याद करना चाहिए कि अप्रैल-2016 में नागौर (राजस्थान) में हुई प्रतिनिधि सभा की बैठक के दौरान सरकार्यवाह सुरेश भैयाजी जोशी ने कहा था कि संघ वक्त के साथ चलने वाला संगठन है। भविष्य में भी हम वक्त के साथ बदलते रहेंगे। इससे पूर्व सह सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले ने कहा था कि संघ कोई रूढि़वादी संगठन नहीं है। समय के अनुकूल हर चीज बदलती है। जो अपने अन्दर बदलाव नहीं करता है, वह समाप्त हो जाता है। संघ के शीर्ष पदाधिकारियों के इन बयानों से स्पष्ट है कि समाज के साथ चलने के लिए संघ ने गणवेश में परिवर्तन को स्वीकार किया है। यह परिवर्तन आगामी विजयादशमी के पर्व पर निकलने वाले ‘पथ संचलन’ में दिखाई देगा।
विजयादशमी के पर्व पर संघ के संचलन में शामिल होने वाले स्वयंसेवक नई गणवेश में दिखाई देंगे। नई गणवेश में खाकी नेकर की जगह भूरे रंग की पैंट को शामिल किया गया है। गणवेश में शामिल मोजे (जुराब) भी बदल गए हैं। जिनका ध्यान सिर्फ नेकर पर था, उन्हें यह जानकारी संभवत: नहीं होगी। हालांकि यह सवाल वाजिब है कि आखिर 90 साल बाद संघ को गणवेश में परिर्वन करने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई? इसका जवाब तलाशा जाए, उससे पहले यह स्पष्ट कर लेना चाहिए कि संघ के गणवेश में यह पहला परिवर्तन नहीं है। 1925 से लेकर अब तक संघ अपने गणवेश में चार बड़े बदलाव कर चुका है। पहला बदलाव 1939 में किया गया। वर्ष 1939 में पहली बार गणवेश में सफेद रंग की पूरी बाँह की कमीज को शामिल किया गया, जबकि इससे पहले गणवेश पूरी तरह से खाकी थी। खाकी नेकर और खाकी कमीज। दूसरा बदलाव सन् 1973 में तब हुआ जब लॉन्ग बूट की जगह चमड़े या रेक्जीन के सामान्य काले रंग के जूते शामिल किए गए। तीसरा बदलाव वर्ष 2010 में हुआ। इस बार चमड़े के बेल्ट की जगह कैनवास बेल्ट को जगह दी गई और अब चौथी बार खाकी नेकर की जगह भूरे रंग की पैंट ने ले ली है। यह माना जा रहा है कि संघ की नेकर को लेकर विरोधी बहुत व्यंग्य कसते हैं।
संघ की गणवेश में ‘नेकर’ की जगह ‘पैंट’ समयानुकूल परिवर्तन है। हमें याद करना चाहिए कि अप्रैल-2016 में नागौर (राजस्थान) में हुई प्रतिनिधि सभा की बैठक के दौरान सरकार्यवाह सुरेश भैयाजी जोशी ने कहा था कि संघ वक्त के साथ चलने वाला संगठन है। भविष्य में भी हम वक्त के साथ बदलते रहेंगे। इससे पूर्व सह सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले ने कहा था कि संघ कोई रूढि़वादी संगठन नहीं है। समय के अनुकूल हर चीज बदलती है। जो अपने अन्दर बदलाव नहीं करता है, वह समाप्त हो जाता है। संघ के शीर्ष पदाधिकारियों के इन बयानों से स्पष्ट है कि समाज के साथ चलने के लिए संघ ने गणवेश में परिवर्तन को स्वीकार किया है। यह परिवर्तन आगामी विजयादशमी के पर्व पर निकलने वाले ‘पथ संचलन’ में दिखाई देगा।
तथाकथित बुद्धिजीवी एक संगठन के कार्यकर्ताओं की गणवेश पर तंज कसते हुए उसे ‘चड्ढी’ कहते हैं। यह वही बुद्धि विलासी लोग हैं, जो किसी अन्य के पहनावे पर सकारात्मक टिप्पणी पर भी मचल उठते हैं, लेकिन स्वयं किसी के पहनावे पर अमर्यादित टिप्पणी करते हुए आनंद की अनुभूति करते हैं। इन सब अप्रिय टिप्पणियों की परवाह न करते हुए संघ के लाखों स्वयंसेवक खाकी नेकर को ‘अनुशासन’ मानकर ‘पर्व’ की तरह धारण करते रहे हैं। भोले-भाले स्वयंसेवकों की खाकी नेकर के प्रति गहरी आस्था और आत्मीयता है। उन्होंने खाकी नेकर को ही अपनी (संघ) पहचान बना लिया है। जबकि संघ की पहचान खाकी नेकर से नहीं बल्कि उसका आचार-विचार और व्यवहार है।
सह सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले भी कहते हैं कि संघ से नेकर है, नेकर से संघ नहीं है। बहरहाल, नेकर को लेकर विरोधियों ने जिस तरह का वातावरण बनाया है, उसके आधार पर ऐसा माना जा रहा है कि अनेक युवा चाहकर भी संघ से नहीं जुड़ पाते हैं। शौक से फैशनेबल शॉटर्स पहनने वाले इन युवाओं को खाकी नेकर पहनने में असहजता की अनूभूति होती है। उनके संकोच को दूर करने के लिए ही संघ ने यह बदलाव किया है। यहाँ हमें ध्यान रखना चाहिए कि संघ की गणवेश से नेकर की विदाई इतनी आसानी से नहीं हुई है। पैंट को नेकर की जगह लेने में तकरीबन एक दशक का वक्त लगा है। इस विषय पर काफी लम्बा विचार मंथन चला था, उसके बाद ही पैंट को स्वीकार्यता मिली है। इसलिए गणवेश में परिवर्तन के लिए केवल ‘उपहास’ को कारण मानना हमारी भूल होगी। यदि संघ इस उपहास की परवाह करता, तब नेकर की जगह पैंट को आने में 90 साल का वक्त नहीं लगता।
गणवेश में परिवर्तन की घोषणा इसी साल अप्रैल में प्रतिनिधि सभा ने कर दी थी। चूँकि संघ का विस्तार समूचे देश में नगर-नगर, गाँव-गाँव में है। इसलिए सभी स्वयंसेवकों तक गणवेश परिवर्तन का संदेश और उन तक नई गणवेश पहुँचाने के लिए छह माह तक का समय लगने का अनुमान व्यक्त किया गया था। संघ की देशभर में लगभग 50 हजार शाखाएं हैं। इन शाखाओं से जुड़े स्वयंसेवकों की संख्या लाखों में है। लाखों स्वयंसेवकों के लिए गणवेश तैयार करने में समय लगना ही था। आरएसएस ने संकेत दिए थे कि 11 अक्टूबर, 2016 को विजयादशमी के पर्व पर निकलने वाले पथ संचलन में सभी स्वयंसेवक भूरे रंग की पैंट पहनकर शामिल होंगे। विजयादशमी पर देशभर में निकलने वाले पथ संचलनों में संघ के स्वयंसेवक नई गणवेश में दिखें, इसके लिए सभी प्रांतों के जिले-नगर-ग्राम में व्यापक संपर्क अभियान चलाया जा रहा है। स्वयंसेवकों से संपर्क कर उन्हें नई गणवेश लेने के लिए आग्रह किया जा रहा है। नागपुर स्थित संघ मुख्यालय पर नई गणवेश की आवक और बिक्री शुरू हो गई है। यहाँ से अन्य प्रांतों के लिए संघ का गणवेश भेजा जा रहा है। गौरतलब है कि विजयादशमी के दिन 1925 में संघ की स्थापना हुई थी। विजयादशमी पर्व संघ के प्रमुख छह उत्सवों में से एक है। इस दिन नागपुर स्थित रेशमबाग में संघ का बड़ा कार्यक्रम होता है। इस कार्यक्रम में स्वयंसेवकों के बीच सरसंघचालक के विशेष उद्बोधन पर न केवल संघ के कार्यकर्ताओं का बल्कि दुनिया के तमाम लोगों का ध्यान रहता है। संभवत: यही कारण है कि संघ ने गणवेश में अब तक के सबसे बड़े बदलाव के प्रकटीकरण के लिए विजयादशमी के कार्यक्रम को चुना है। बहरहाल, स्पष्ट है कि संघ हमेशा समय के साथ चलता रहा है और ये बदलाव भी संघ के समय के साथ उसी कदमताल का द्योतक है।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं। ये लेखक निजी विचार हैं।)