देश की गरीब आबादी के जीवनस्तर में गुणात्मक सुधार लाने के उद्देश्य से किए जा रहे भारत सरकार के नीतिगत प्रयासों पर संयुक्त राष्ट्र और नीति आयोग की ये रिपोर्टें मुहर लगाने का ही काम करती हैं। इसके अलावा ये रिपोर्टें इस मामले में भी संतोष देने वाली हैं कि बढ़ती आबादी की चुनौतियों के बावजूद भारत अपने नागरिकों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने की दिशा में ठीक प्रकार से कदम बढ़ा रहा है।
गरीबी उन्मूलन का विषय भारत के लिए हमेशा से एक बड़ी चुनौती की तरह रहा है। गरीबी खत्म करने के वादे आजादी के बाद से ही चुनाव दर चुनाव देश में सुनाई देते रहे हैं। 1971 में इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया जो आगे चलकर 1974 की पाँचवीं पंचवर्षीय योजना का भी हिस्सा बना। कालांतर में राजीव गांधी ने भी इस नारे का इस्तेमाल किया। लेकिन इतने सब के बाद भी यह नारा केवल शब्द ही बनकर रह गया, धरातल पर इसका कुछ खास असर दिखाई नहीं दिया।
संतोष की बात यह है कि बीते कुछ वर्षों में देश ने गरीबी के विरुद्ध अपनी लड़ाई में अभूतपूर्व तेजी लाई है, जिसके फलस्वरूप गरीबी में लगातार कमी आ रही है। इस बात की गवाही राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय संस्थानों द्वारा प्रस्तुत आंकड़े देते हैं।
गरीबी उन्मूलन की उम्मीद जगाते आंकड़े
हाल ही में नीति आयोग द्वारा प्रस्तुत ‘राष्ट्रीय बहुआयामी गरीबी सूचकांक: एक प्रगति संबंधी समीक्षा 2023’ नामक रिपोर्ट में बताया गया है कि बीते पांच वर्षों में देश में 13.5 करोड़ लोग बहुआयामी गरीबी से बाहर निकले हैं। भारत में वर्ष 2015-16 में बहुआयामी गरीबों की संख्या कुल आबादी की 24.85 प्रतिशत थी, जो 2019-21 में घटकर 14.96 प्रतिशत हो गई। यानी इस अवधि के दौरान गरीबी की संख्या में आबादी के अनुपात में 9.86% की गिरावट दर्ज की गई है। नीति आयोग ने स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन-स्तर से संबंधित 12 मानकों के आधार पर अपना यह सूचकांक तैयार किया है। इन मानकों पर बीते वर्षों के दौरान भारत द्वारा उठाए गए सुधारात्मक कदमों के फलस्वरूप स्थिति बदली है तथा देश में गरीबों की संख्या कम हुई है।
नीति आयोग के अलावा संयुक्त राष्ट्र ने भी वैश्विक परिप्रेक्ष्य में इसी प्रकार की एक रिपोर्ट जारी की है, जिसमें प्रस्तुत तथ्य भारत के लिए संतोषप्रद कहे जा सकते हैं। संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रस्तुत वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआई) नामक अपनी रिपोर्ट में दुनिया के 110 विकासशील देशों से 6.1 अरब लोगों का डाटा संकलित करके उसे गरीबी के लिए निर्धारित मानकों पर परखा गया। इसके पश्चात् जो परिणाम प्राप्त हुए उनके अनुसार, 110 विकासशील देशों की 6.1 अरब आबादी में से 1.1 अरब लोग गरीब पाए गए हैं।
भारत के संदर्भ में यह रिपोर्ट कहती है कि यहाँ पिछले 15 साल में 41.5 करोड़ लोग गरीबी से बाहर निकले हैं। रिपोर्ट के अनुसार, भारत उन 25 देशों में शामिल है जहां बीते 15 साल में गरीबी आधी हो गई है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि 2005-06 में भारत में गरीबों की आबादी 55.1 प्रतिशत थी, जो कि 2019-21 में घटकर 16.4 प्रतिशत पर पहुँच गई है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि देश की गरीब आबादी के जीवनस्तर में गुणात्मक सुधार लाने के उद्देश्य से किए जा रहे भारत सरकार के नीतिगत प्रयासों पर संयुक्त राष्ट्र और नीति आयोग की ये रिपोर्टें मुहर लगाने का ही काम करती हैं। इसके अलावा ये रिपोर्टें इस मामले में भी संतोष देने वाली हैं कि बढ़ती आबादी की चुनौतियों के बावजूद भारत अपने नागरिकों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने की दिशा में ठीक प्रकार से कदम बढ़ा रहा है।
किन पैमानों पर मापी गई है गरीबी ?
संयुक्त राष्ट्र के वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक में व्यक्ति के अभावों को मापा जाता है। इसके पैमानों में स्वास्थ्य, शिक्षा और रहन-सहन को प्रमुख रूप से जगह दी गई है। स्वास्थ्य में बाल मृत्यु और पोषण की स्थिति, शिक्षा में स्कूल के वर्ष और स्कूल में उपस्थिति तथा जीवन स्तर में खाना पकाने का ईंधन, स्वच्छता, पेयजल, बिजली और संपत्ति को रखा गया है। इन मानकों पर पिछड़ने वाले लोगों को गरीब माना गया है।
विचार करें तो पोषणयुक्त भोजन, स्वच्छ व व्यवस्थित आवास और उत्तम शिक्षा इन तीन बिंदुओं में उपर्युक्त सभी मानक समाहित हो जाते हैं। इसी प्रकार, नीति आयोग ने भी राष्ट्रीय स्तर पर स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन-स्तर से संबंधित 12 मानकों के आधार पर अपनी रिपोर्ट तैयार की है। इन मानकों में संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्य से जुड़े संकेतकों को ही शामिल किया गया है।
गरीबी में कमी के कारण
उपर्युक्त तथ्यों के आलोक में यह प्रश्न विचारणीय हो जाता है कि देश में हाल के वर्षों में गरीबी में इतने वृहद् स्तर पर कमी आना किस प्रकार संभव हुआ है ? यह प्रश्न इसलिए और भी महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि देश अभी बीते वर्ष तक कोविड जैसी वैश्विक महामारी से भी जूझता रहा है। यह सच है कि देश में गरीबी उन्मूलन के लिए आजादी के बाद से ही नीतिगत प्रयास होते रहे हैं, लेकिन कभी भी उन प्रयासों का ऐसा असर नहीं दिखा जैसा कि अब सामने आया है।
दरअसल 2014 में पूर्ण बहुमत के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के केंद्र की सत्ता में आने के बाद भारत सरकार की कार्य-संस्कृति में कई ठोस बदलाव आए हैं। पहले जो जनकल्याणकारी नीतियां अधिकांशतः कागज तक सिमटी रहती थीं, अब वो धरातल पर भी उतरने लगी हैं। पूर्ण बहुमत की सरकार होने का लाभ भी देश को मिला है।
गठबंधन सरकारों में विभिन्न दलों के निहित स्वार्थों के कारण भी बहुत-से जनकल्याणकारी कार्य समयबद्ध ढंग से निष्पादित करने में मुश्किल होती है। हालांकि पूर्ण बहुमत की सरकार तो राजीव गांधी को भी मिली थी लेकिन वे केवल यह कहकर रह गए कि केंद्र से एक रुपया चलता है, तो आम आदमी तक पहुँचते-पहुँचते पंद्रह पैसा हो जाता है। इस समस्या को दूर करने के लिए वे बहुत कुछ नहीं कर सके या यूं भी कह सकते हैं कि उन्हें कुछ करने के लिए पूरा समय नहीं मिल पाया.
लेकिन 2014 में नरेंद्र मोदी को जब जनता ने पूर्ण बहुमत के साथ केंद्र में भेजा तो उन्होंने जनभावनाओं के अनुरूप ही सरकार की कार्य-योजनाओं को आकार दिया। पं. दीन दयाल उपाध्याय के अन्त्योदय के विचार को केंद्र में रखते हुए नरेंद्र मोदी ने गरीब कल्याण को अपने शासन का प्रमुख लक्ष्य बनाया और इसके अनुरूप ही नीतियों-योजनाओं की रचना की।
शासन-तंत्र में तकनीक का समावेश करते हुए मोदी ने पात्र व्यक्तियों तक सरकारी योजनाओं का सीधा लाभ पहुँचाने की व्यवस्था सुनिश्चित करने का काम किया। व्यवस्था के छिद्रों को भरते हुए उसे स्वच्छ, पारदर्शी और जनोन्मुखी बनाने के लिए उन्होंने अनेक कदम उठाए। योजनाओं के निर्माण के पश्चात् उनके क्रियान्वयन के लिए भी समयबद्ध लक्ष्य निर्धारित किए तथा कई लक्ष्यों को समय रहते प्राप्त भी किया।
नरेंद्र मोदी ने सत्ता में आते ही प्रधानमंत्री जनधन योजना के माध्यम से विश्व का सबसे बड़ा वित्तीय समावेशन करते हुए गरीबों को बैंकिंग व्यवस्था से जोड़ने का काम किया। अबतक इस योजना के 48.3 करोड़ बैंक खाते खोले जा चुके हैं। यह खाते कोविड काल में गरीबों को आर्थिक सहायता उपलब्ध कराने में एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में अपना विशेष महत्व सिद्ध कर चुके हैं।
गरीबों के सिर पर छत देने के लिए 2015 में शुरू की गई प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत अबतक 3 करोड़ से अधिक शहरी और ग्रामीण गरीब परिवारों को पक्का घर मिलने उनकी आवास की समस्या दूर हुई है, तो वहीं उज्ज्वला योजना के तहत अबतक 9.6 करोड़ गरीब परिवारों को मुफ्त गैस कनेक्शन वितरित कर सरकार ने उनके जीवन में स्वच्छ ईंधन की व्यवस्था सुनिश्चित करने का भी काम किया है। नल से जल योजना के द्वारा 11.8 करोड़ घरों में शुद्ध पीने योग्य पानी पहुँचाना हो या सौभाग्य आदि योजनाओं के माध्यम से हर घर में बिजली की पहुँच सुनिश्चित करनी हो, आम आदमी के जीवनस्तर में बदलाव लाने की दिशा में सरकार ने अनेक कदम उठाए हैं।
किसी गरीब को इलाज के अभाव में अपने प्राण न देने पड़े, इसके लिए सरकार ने आयुष्मान योजना के माध्यम से पांच लाख तक का मुफ्त स्वास्थ्य बीमा उपलब्ध कराने का भी काम किया है। इस योजना के जरिये अबतक 10.7 करोड़ परिवारों को स्वास्थ्य बीमा कवरेज प्राप्त हुई है तथा साढ़े चार करोड़ से अधिक लोग अबतक इसका लाभ ले चुके हैं।
इसके अतिरिक्त मुद्रा योजना के माध्यम से स्वरोजगार के लिए गरीबों को ऋण प्रदान करना हो या प्रधानमंत्री स्वनिधि योजना के जरिये 34 लाख रेहड़ी-पटरी वालों को ऋण वितरण की व्यवस्था बनाना हो या ‘सम्मान निधि’ के रूप में किसानों को सालाना 6000 रुपये आर्थिक सहायता उपलब्ध कराना हो अथवा कोविड के दौरान देश के अस्सी करोड़ गरीबों को मुफ्त अनाज उपलब्ध करवाना हो, ये सब कदम नरेंद्र मोदी सरकार की गरीब कल्याण के प्रति समर्पित दृष्टि को ही दर्शाते हैं।
शिक्षा के क्षेत्र की बात करें तो उच्च शिक्षण संस्थानों के निर्माण व विकास साथ-साथ प्राथमिक सरकारी विद्यालयों की स्थिति में सुधार लाने की दिशा में भी सरकार गंभीरतापूर्वक प्रयास कर रही है। देश के 83 फीसद स्कूल अब बिजली से लैस हो गए हैं। वर्ष 2014 में सिर्फ 55 फीसद स्कूलों में ही बिजली थी। इसी तरह लाइब्रेरी और रीडिंग रूम को लेकर स्थितिर बेहतर हुई है। करीब 84 फीसद स्कूलों में अब यह सुविधा मौजूद है। वर्ष 2014 के मुकाबले करीब 15 फीसद स्कूलों यह सुविधा बढ़ी है। स्कूलों में छात्र-शिक्षक का जो अनुपात 2014 में 34 बच्चों पर एक शिक्षक का था, वो 2021 में सुधरकर 26 बच्चों पर एक शिक्षक हो गया। स्पष्ट है कि सरकार के प्रयासों ने आम आदमी के जीवन में हर स्तर पर गुणात्मक बदलाव की लकीर खींची है।
यदि हम संयुक्त राष्ट्र और नीति आयोग द्वारा निर्धारित गरीबी उन्मूलन के मानकों के साथ सरकार की उक्त योजनाओं को देखें तो यह स्पष्ट होता है कि यह संस्थाएं स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन-स्तर से जुड़े जिन मानकों के आधार पर गरीबी की स्थिति का निर्धारण कर रही हैं, सरकार की उक्त योजनाओं का उद्देश्य उन्हीं मानकों में सुधार लाना है। समझना कठिन नहीं है कि सरकार की इन योजनाओं के कारण आए बदलाव ही संयुक्त राष्ट्र और नीति आयोग की रिपोर्ट में भारत में कम होती गरीबी के रूप में प्रकट हुए हैं।
वस्तुतः उक्त सभी मानक, मानव जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं से जुड़ी चीजों पर आधारित हैं। इस अर्थ में यह कहा जा सकता है कि जिस दिन देश के अंतिम व्यक्ति तक की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति सुनिश्चित हो जाएगी, उस दिन हम स्वयं को गरीबी के अभिशाप से पूर्णतः मुक्त मान सकेंगे। जिस गति से अभी बदलाव हो रहा है, उम्मीद की जा सकती है कि वह दिन भी शीघ्र ही आएगा।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)