मोदी सरकार के प्रयासों से अंतरिक्ष और रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ता भारत

भारत ने अंतरिक्ष के क्षेत्र में अद्वितीय उपलब्धियां पिछले सात साल के भीतर अनेक प्रकार के उपग्रह प्रक्षेपित कर हासिल की हैं। भारत ने 28 अप्रैल 2016 को भारतीय क्षेत्रीय नौवहन उपग्रह प्रणाली आईआरएनएसस-1 जी अस्तित्व में ला दी है। इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘नाविक’ नाम दिया है। इसके वजूद में आने के साथ ही भारत का देसी ‘वैश्विक स्थिति पद्धति’ (जीपीएस) को विकसित करने का सपना पूरा हुआ और अमेरिका पर आत्मनिर्भरता खत्म हो गई।

अब देश की अर्थव्यवस्था और सुरक्षा क्षेत्र में अंतरिक्ष विज्ञान की अहम् भागीदारी के लिए दो नवीन नीतियां वजूद में लाई जा रही हैं। इस हेतु प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारतीय अंतरिक्ष संगठन यानी इंडियन स्पेस एसोशिएशन (आईएसपीए) का शुभारंभ कर दिया है। इसके तहत स्पेसकॉम (अंतरिक्ष श्रेणी) और रिमोट सेंसिंग (सुदूर संवेदन) नीतियां जल्द बनेंगी। 

इन नीतियों से स्पेस और रिमोट क्षेत्रों में निजी और सरकारी भागीदारी के द्वार खुल जाएंगे। वर्तमान में ये दोनों उद्यम ऐसे माध्यम हैं, जिनमें सबसे ज्यादा रोजगार के अवसर हैं। क्योंकि आजकल घरेलू उपकरण, रक्षा संबंधी, संचार व दूरसंचार सुविधाएं, हथियार और अंतरिक्ष उपग्रहों से लेकर रॉकेट और मिसाइल ऐसी ही तकनीक से संचालित हैं, जो रिमोट से संचालित और नियंत्रित होते हैं। 

सांकेतिक चित्र (साभार : India TV News)

चंद्र, मंगल और गगनयान भी इन्हीं प्रणालियों से संचालित होते हैं। भविष्य में अंतरिक्ष-यात्रा (स्पेस टूरिज्म) के अवसर भी बढ़ रहे हैं। भारत में इस अवसर को बढ़ावा देने के लिए निजी स्तर पर बड़ी मात्रा में निवेश की जरूरत पड़ेगी। इस हेतु नीतियों में बदलाव की आवश्यकता लंबे समय से अनुभव की जा रही थी। 

20 जुलाई 2021 को ब्लू ओरिजन कंपनी ने न्यू श्ोफर्ड कैप्सूल से चार यात्रियों को अंतरिक्ष की यात्रा कराई थी। ऐसी यात्राओं का सिलसिला आम लोगों के लिए कीमत वसूल कर बड़ी कमाई का माध्यम बनने जा रहे हैं। इसरो उपग्रह प्रक्षेपण की तकनीक विकसित करके अब व्यापार का बड़ा माध्यम बन गया है। गोया, भारत इन नीतियों से इन क्षेत्रों में आत्मनिर्भर तो होगा ही, रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे।  

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की तकनीकों को निजी और विदेशी क्षेत्र की कंपनियों को हस्तांतरित करने की नीति पहले ही बन चुकी है। इसरो ने इस नाते कीमत वसूलकर तकनीक हस्तांतरण शुरू भी कर दी है। अंतरिक्ष सुधारों के तहत इसरो ने पुनर्संशोधित प्रौद्योगिकी हस्तांतरण नीति-2020 जारी की थी। इसमें पहली बार विदेशी फर्म को भी प्रत्यक्ष रूप से इसरो ने तकनीक हस्तांतरित करने की छूट दी है। 

दरअसल इसरो के पास 500 से अधिक ऐसी तकनीक हैं, जिसमें से 400 निजी क्षेत्र की 233 भारतीय तकनीकें कंपनियों के पास हैं। अब इसमें और अधिक कंपनियां जुड़ जाएंगी। इस नीति में दोहराव से बचने और संवेदनशीन पेटेंट तकनीक की सुरक्षा भी सुनिश्चित की गई है। इस सिलसिले में इसरो के अध्यक्ष के. शिवन ने कहा था, ‘पहले इसरो की तकनीक केवल भारतीय कंपनियों के लिए सीमित थीं, लेकिन अब समय आ गया है कि कुछ और तकनीकों का व्यवसायीकरण किया जाए।

विदेशी कंपनियों को भी अंतरिक्ष विभाग की तकनीक मुहैया कराने का फैसला इसमें मददगार साबित होगा।विदेशी कंपनियों को तकनीक देने के पीछे दो प्रमुख उद्देश्य हैं। पहला, भारत में अधिक पूंजी निवेश और प्रतिभाओं को आकर्षित करना। दूसरा लक्ष्य भारतीय उत्पादों को वैश्विक बाजार उपलब्ध कराना है। इन नीतियों से खासतौर से प्रतिभा पलायन पर भी अंकुश लगेगा।    

हालांकि भारत स्वदेशी तकनीक के जरिए उपग्रह प्रक्षेपण की शुरूआत 2018 में ही कर चुका था। इसरो ने एक साथ 104 उपग्रह अंतरिक्ष में प्रक्षेपित करके विश्व इतिहास रचकर पश्चिमी देशों के वैज्ञानिक अहंकार को जबरदस्त चुनौती दी थी। दुनिया के किसी एक अंतरिक्ष अभियान में इससे पूर्व इतने उपग्रह एक साथ पहले कभी नहीं छोड़े गए थे। 

दरअसल प्रक्षेपण तकनीक दुनिया के चंद छह-सात देशों के पास ही है। लेकिन सबसे सस्ती होने के कारण दुनिया के इस तकनीक से महरूम देश अमेरिका, रूस, चीन, जापान का रुख करने की बजाय भारत से अंतरिक्ष व्यापार करने लगे हैं। इसरो इस व्यापार को अंतरिक्ष निगम (एंट्रिक्स कार्पोरेशन) के जरिए करता है। इसरो पर भरोसा करने की दूसरी वजह यह है कि उपग्रह यान की दुनिया में केवल यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी को छोड़ कोई दूसरा ऐसा प्रक्षेपण यान नहीं है, जो हमारे पीएसएलवी-सी के मुकाबले का हो। 

सांकेतिक चित्र (साभार : The Economic Times)

दरअसल यह कई टन भार वाले उपग्रह ढोने में दक्ष है। व्यावसायिक उड़ानों को मुंह मांगे दाम मिल रहे हैं। यही वजह है कि अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, कनाडा, फिनलैंंड, दक्षिण कोरिया, इजराइल और ब्रिटेन जैसे विकसित देश अपने उपग्रह छोड़ने का अवसर भारत को दे रहे हैं। हमारी उपग्रह प्रक्षेपित करने की दरें अन्य देशों की तुलना में 60 से 65 प्रतिशत सस्ती हैं, लेकिन इसरो की साख को कभी चुनौती नहीं मिली। बावजूद भारत को इस व्यापार में चीन से होड़ करनी पड़ रही हैं। 

मौजूदा स्थिति में भारत हर साल 5 उपग्रह अभियानों को मंजिल तक पहुंचाने की क्षमता रखता है। जबकि चीन की क्षमता दो अभियान प्रक्षेपित करने की है। बावजूद इस प्रतिस्पर्धा को अंतिरक्ष व्यापार के जानकार उसी तरह से देख रहे हैं, जिस तरह की होड़ कभी वैज्ञानिक उपलब्धियों को लेकर अमेरिका और सोवियत संघ में हुआ करती थी। 

दूसरे देशों के छोटे उपग्रहों को अंतरिक्ष की कक्षा में स्थापित करने की शुरूआत 26 मई 1999 में हुई थी। और जर्मन उपग्रह टब सेट के साथ भारतीय उपग्रह ओशन सेट भी अंतरिक्ष में स्थापित किए थे। इसके बाद पीएसएलवी सी-3 ने 22 अक्टूबर 2001 को उड़ान भरी। इसमें भारत का उपग्रह बर्ड और बेल्जियम के उपग्रह प्रोबा शामिल थे। ये कार्यक्रम परस्पर साझा थे, इसलिए शुल्क नहीं लिया गया। 

पहली बार 22 अप्रैल 2007 को धु्रवीय यान पीएसएलवी सी-8 के मार्फत इटली के एंजाइलउपग्रह का प्रक्षेपण शुल्क लेकर किया गया। हालांकि इसके साथ भी भारतीय उपग्रह एएम भी था, इसलिए इसरो ने इस यात्रा को संपूर्ण वाणिज्यिक दर्जा नहीं दिया। दरअसल अंतरराष्ट्र्रीय मानक के अनुसार व्यावसायिक उड़ान वही मानी जाती है,जो केवल दूसरे उपग्रहों का प्रक्षेपण करे। 

इसकी पहली शुरूआत 21 जनवरी 2008 को हुई,जब पीएसएलवी सी-10 ने इजारइल के पोलरिस उपग्रह को अंतरिक्ष की कक्षा में छोड़ा। इसके साथ ही इसरो ने विश्वस्तरीय मानकों के अनुसार उपग्रह प्रक्षेपण मूल्य वसूलना भी शुरू कर दिया। यह कीमत 5 हजार से लेकर 20 हजार डॉलर प्रति किलोग्राम पेलोड (उपग्रह का वजन) के हिसाब से ली जाती है। 

सूचना तकनीक का जो भूमंडलीय विस्तार हुआ है, उसका माध्यम अंतरिक्ष में छोड़े उपग्रह ही हैं। टीवी चैनलों पर कार्यक्रमों का प्रसारण भी उपग्रहों के जरिए होता है। इंटरनेट पर बेबसाइट, फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग और वॉट्सअप की रंगीन दुनिया व संवाद संप्रेषण बनाए रखने की पृष्ठभूमि में यही उपग्रह हैं। मोबाइल और वाई-फाई जैसी संचार सुविधाएं उपग्रह से संचालित होती हैं। अब तो शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, मौसम, आपदा प्रबंधन और प्रतिरक्षा क्षेत्रों में भी उपग्रहों की मदद जरूरी हो गई है।  

भारत आपदा प्रबंधन में अपनी अंतरिक्ष तकनीक के जरिए पड़ोसी देशों की सहयता भी कर रहा है। इसमें काई संदेह नहीं कि इसरो की अंतरिक्ष में आत्मनिर्भरता बहुआयामी है और यह देश को भिन्न-2 क्षेत्रों में अभिनव अवसर हासिल करा रही है। ये तकनीकें बेचकर भारत अरबों डॉलर कमा लेगा और तकनीक से जुड़े वैज्ञानिकों एवं इंजीनियरों को तकनीक हस्तांतरण हेतु विदेशों में अच्छे रोजगार मिलेंगे।

दरअसल भारत ने अंतरिक्ष के क्षेत्र में अद्वितीय उपलब्धियां पिछले सात साल के भीतर अनेक प्रकार के उपग्रह प्रक्षेपित कर हासिल की हैं। भारत ने 28 अप्रैल 2016 को भारतीय क्षेत्रीय नौवहन उपग्रह प्रणाली आईआरएनएसस-1 जी अस्तित्व में ला दी है। इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नाविकनाम दिया है। इसके वजूद में आने के साथ ही भारत का देसी वैश्विक स्थिति पद्धति‘ (जीपीएस) को विकसित करने का सपना पूरा हुआ और अमेरिका पर आत्मनिर्भरता खत्म हो गई। 

यह उपग्रह देश व दुनिया के बड़े भू-भाग पर नजर रखने की दृष्टि से तो अहम् है ही, अब इसका उपयोग वाणिज्यक रूप में भी हो रहा है। इसरो ने 2018 में हाइपर स्पेक्ट्रल इमेजिंग सैटेलाइट’ (हिसआईएस) उपग्रह स्थापित किया हुआ है। यह उपग्रह भारतीय धरती के चप्पे-चप्पे पर फसलों के लिए उपयोगी जमीन की जानकारी जुटाने के साथ पर्यावरणीय हित भी साध रहा है। यह 65 प्रकार के रंगों की पहचान करने में भी सक्षम है। 

होवित्ज़र तोप (साभार : Defence View)

इसका प्रमुख उद्देश्य विद्युत चुंबकीय स्पेक्ट्रम के इनफ्रारेड और शॉटवेव अवरक्त क्षेत्रों के नजदीक दृश्य पृथ्वी की सतह का अध्ययन कर रहे हैं। दुनिया में यह तकनीक कुछ ही देशों के पास है। 2019 में भारत ऐसी मिसाइल भी बना चुका है, जो बेकार हो चुके उपग्रहों को अंतरिक्ष में ही नष्ट कर देती है। उपग्रह रोधी इस मिसाइल का उपयोग वे देश भी कर सकेंगे, जिनके उपग्रह अपनी मियाद पूरी हो जाने के कारण अंतरिक्ष में कचरा साबित हो रहे हैं। भारत ऐसी गैर-सैन्य तकनीकों को विकासशील देशों को हस्तांरित करने लग जाएगा।  

रक्षा अनुसंधान और विकास संस्थान (डीआरडीओ) भी अब आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहा है। स्वदेशी तकनीक से होवित्जर तोप का परीक्षण ओड़िसा के बालासोर फायरिंग रेंज में 19 दिसंबर 2020 को किया है। यह तोप 55 किलो वजनी बारूदी गोला 48 किलोमीटर की दूरी तक फेंककर निशाना साधने में सक्षम हैं। इस तोप के विकसित हो जाने से भारत को अब बोफोर्स तोपों की तरह विदेश से तोपें खरीदने की जरूरत नहीं है। भारत स्वदेशी तकनीक से परमाणु पनडुब्बी आईएनएस अरिहंत का निर्माण 2009 में शुरू करके 2013 में इसे समुद्र में जलावतरण भी कर चुका है। 

इस स्वदेशी परमाणु चालित पनडुब्बी अरिहंत का परमाणु रिएक्टर चालू होना हमारी स्वदेशी तकनीकि क्षमताओं को विकसित करने की दिशा में बड़ा कदम था। यह उपलब्धि भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिकों और इस परियोजना से जुड़े तकनीकि व रक्षा विशेषज्ञों के संयुक्त प्रयास का परिणाम थी। इससे हमारी सैन्य क्षमताओं में आश्चर्यजनक बढ़ोतरी हुई है। 

इस उपलब्धि के हासिल हो जाने के बाद हम समुद्र के भीतर से दुश्मन देशों पर हमला करने में सक्षम हुए हैं। यह आयुध-युक्त पनडुब्बी पांच हजार किमी तक मार करने वाली परमाणु मिसाइल को पानी के भीतर से ही निशाने पर छोड़ सकती है। गोया यह तकनीक हमारी रक्षा प्रणाली में मील का पत्थर साबित हुई है। 

इसी तरह स्वदेशी विमानवाहक पोत विक्रांत का भी जलावतरण हो चुका है। परमाणु पनडुब्बी निर्माण के क्षेत्र में अमेरिका, चीन, फ्रांस, रूस और ब्रिटेन के बाद भारत छठे देश की कड़ी में शामिल हो गया है। गोया, इन रक्षा उपकरणों का निर्माण कर हम दूसरे देशों को बेचने लग जाएंगे तो हमारी अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी ही रक्षा संबंधी हथियार दूसरे देशों से खरीदने की जरूरत भी नहीं रह जाएगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)