हाजी अली दरगाह में महिलाओं के प्रवेश से सम्बंधित याचिका पर सुनवाई करते हुए बॉम्बे उच्च न्यायालय ने महिलाओं के हक़ में फैसला सुनाते हुए उन्हें दरगाह की मुख्य मज़ार तक जाने की अनुमति दे दी। लेकिन, दरगाह के ट्रस्ट ने अदालत के इस फैसले से नाखुशी जाहिर की है और इसके खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में जाने की बात कही है। अपनी इस बात के पक्ष दरगाह के लोगों के पास एक से बढ़कर एक कुतर्क हैं। उनका कहना है कि हाजी अली की मजार के पास महिलाओं के जाने से बड़ा भारी पाप हो जाता है और यहाँ तक कि दरगाह के पास पुरुषों की भीड़ अधिक होती है, तो इस नाते वहाँ महिलाएं असुरक्षित भी हैं। दरगाह के एक ट्रस्टी महोदय ने तो कुतर्क और बेशर्मी की सारी सीमाओं को पार करते हुए ये तक कह दिया कि दरगाह पर सज़दे में जब महिलाएं झुकती हैं तो उनके स्तन दिखने लगते हैं, इस नाते उन्हें दरगाह पर जाने की अनुमति नहीं मिलनी चाहिए। ये श्रीमान साथ-साथ यह भी बता देते कि वे कौन लोग होते हैं, जो दरगाहों पर बैठकर महिलाओं के स्तन देखते हैं ?
अगर संविधान को लेकर इन इस्लाम के झंडाबरदारों के मन में थोड़ा-सा भी सम्मान होता तो न्यायालय के फैसले के बाद क्या शरीअत की दुहाई देते हुए उसे गलत ठहराते ? ये अभी सर्वोच्च न्यायालय में जाने की कह रहे हैं, पूरी संभावना है कि वहाँ भी इन्हें मुंह की खानी पड़ेगी। क्योंकि, अदालत कोई भी हो, वो संविधान और क़ानून के अनुसार ही फैसला सुना सकती है। और हमारे संविधान के अनुच्छेद १४, १५, और २१ में क्रमशः स्पष्ट रूप से किसी भी व्यक्ति के लिए समानता का, धर्म-लिंग आदि के आधार पर भेदभाव के निषेध का और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लेख किया गया है। इन्हीं अनुच्छेदों के आधार पर उच्च न्यायालय ने महिलाओं को हाजी अली में प्रवेश की अनुमति दी है। सर्वोच्च न्यायालय भी इससे भिन्न शायद कुछ नहीं ही करेगा। इसलिए इस्लाम के इन झंडाबरदार मौलानाओं को समझना चाहिए कि यह देश संविधान से चलता है, शरीअत से नहीं।
अब कुतर्कों की इस बाढ़ में दूसरी दरगाहों के झंडाबरदार भी भला कैसे पीछे रहते! आला हज़रत दरगाह के मौलाना बोल पड़े कि दरगाह के पास महिलाओं का जाना तो शरीअत (इस्लामिक क़ानून) के खिलाफ है। इस्लामिक शरीअत के ये कायदे गिनवाते वक़्त ये मौलाना लोग शायद यह भूल गए कि वे एक देश में रहते हैं, जिसका एक संविधान है और जो उसी संविधान के हिसाब से चलता है। लेकिन इनके लिए तो हर कायदे-क़ानून से ऊपर इनका इस्लाम ही रहता आया है। अगर संविधान को लेकर इन इस्लाम के झंडाबरदारों के मन थोड़ा-सा भी सम्मान होता तो न्यायालय के फैसले के बाद क्या शरीअत की दुहाई देते हुए उसे गलत ठहराते ? ये अभी सर्वोच्च न्यायालय में जाने की कह रहे हैं, पूरी संभावना है कि वहाँ भी इन्हें मुंह की खानी पड़ेगी। क्योंकि, अदालत कोई भी हो, वो संविधान और क़ानून के अनुसार ही फैसला सुना सकती है। और हमारे संविधान के अनुच्छेद १४, १५, और २१ में क्रमशः स्पष्ट रूप से किसी भी व्यक्ति के लिए समानता, धर्म-लिंग आदि के आधार पर भेदभाव के निषेध और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लेख किया गया है। इन्हीं अनुच्छेदों के आधार पर उच्च न्यायालय ने महिलाओं को हाजी अली में प्रवेश की अनुमति दी है। सर्वोच्च न्यायालय भी इससे भिन्न शायद कुछ नहीं ही करेगा। इसलिए इस्लाम के इन झंडाबरदारों को समझना चाहिए कि यह देश संविधान से चलता है, शरीअत से नहीं।
शनि शिंगनापुर मंदिर में प्रवेश को लेकर भी कुछ समय पहले यही स्थिति आई थी। मंदिर प्रशासन ने तब महिलाओं को रोका था, लेकिन बहुधा हिन्दू समुदाय उनके समर्थन में खड़ा रहा था। और जब अदालत से उन्हें प्रवेश की अनुमति मिली तो हिन्दुओं ने संविधान और क़ानून का सम्मान करते हुए तथा इस बदलाव की जरूरत को समझते हुए इसका स्वागत किया था। लेकिन, इस हाजी अली मामले में दरगाह ट्रस्ट और मौलाना तो अदालत के फैसले का विरोध कर ही रहे, सोशल मीडिया आदि पर शिक्षित मुस्लिम लोगों का भी मत मौलानाओं के समर्थन में ही दिख रहा है। यह दिखाता है कि इस्लाम में किस कदर अपने मज़हब को लेकर कट्टरपंथी सोच भरी हुई है। अगर इस मज़हब को समय के साथ आगे बढ़ना है तो इसे अपने अंदर मौजूद इस कट्टरपंथी सोच को जल्द से जल्द ख़त्म करना होगा।
(ये लेखक के निजी विचार हैं।)