आजाद भारत की कांग्रेसी सरकारों ने शासन का जो स्वरूप रखा और जिन नीतियों को आगे बढ़ाया उनमें भारत के सांस्कृतिक गौरव को पुनर्जीवित करने का कोई प्रयास नहीं था। भारतीयता पर आधारित नीतियों की रचना करने के बजाए समाजवादी आर्थिक मॉडल अपना लिया गया। हिंदी राजभाषा तो बनी लेकिन साथ में अंग्रेजी भी दमखम के साथ बनी रही। वस्तुतः शासन के स्तर पर आम जनमानस को ऐसा कुछ नहीं दिखा जो उसके दबे-कुचले आत्मविश्वास को बल दे सके और आत्मगौरव को जगा सके।
गत 15 अगस्त को स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगाँठ मनाने के साथ ही भारत आजादी के अमृतकाल में प्रवेश कर चुका है। इस ऐतिहासिक अवसर पर लाल किले से अपने संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, ‘आज जब हम अमृतकाल में प्रवेश कर रहे हैं, तो अगले 25 वर्ष हमारे देश के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं और इसलिए जब मैं आज 130 करोड़ देशवासियों के सामर्थ्य का स्मरण करता हूं, उनके सपनों को देखता हूं, तो मुझे लगता है कि आने वाले 25 साल के लिए हमें पंचप्रण पर अपनी शक्ति को केंद्रित करना होगा।‘ प्रधानमंत्री ने पंचप्रण के रूप में समस्त देशवासियों से बड़ा संकल्प लेकर चलने, मानसिक दासता से मुक्त होने, विरासत पर गर्व करने, एकता बनाए रखने और नागरिक कर्तव्यों के प्रति सजग रहने का आह्वान किया है।
विचार करें तो स्वतंत्रता के अमृतकाल में प्रवेश कर एक सुदृढ़ वर्तमान और स्वर्णिम भविष्य की आकांक्षा मन में लिए बढ़ने को तैयार भारत के लिए यह पंचप्रण एक पथ-प्रदर्शक की तरह हैं। यूं तो ये पाँचों प्रण ही महत्वपूर्ण हैं, परन्तु इनमें भी मानसिक दासत्व से मुक्ति के संकल्प की देश को कुछ अधिक ही आवश्यकता प्रतीत होती है। इसका कारण यह है कि स्वतंत्रता के 75 वर्ष जितना दीर्घ कालखण्ड बीत जाने के बाद भी कभी अंग्रेजी भाषा के वर्चस्व तो कभी पश्चिमी संस्कृति के अंधानुकरण के रूप में अक्सर यह तथ्य सामने आ जाता है कि विदेशी शासन की भौतिक दासता से मुक्ति के दशकों बाद भी हम उनकी मानसिक दासता से पूर्णतः मुक्त नहीं हो पाए हैं।
कहीं लोग विदेशी भाषाओं विशेषकर अंग्रेजी पर मुग्ध मिलते हैं, कहीं विदेशी संस्कृति की तथाकथित प्रगतिशीलता का बखान करते दिख जाते हैं, तो कहीं आधुनिक सभ्यता के लिए विदेशी लोगों के योगदान पर नतमस्तक होते हैं। किसी अन्य देश व उसकी संस्कृति आदि की प्रशंसा में बुराई नहीं है, लेकिन उसके प्रति ऐसे मोहित हो जाना कि अपनी संस्कृति की महानता नजर न आए, मानसिक दासता की अवस्था कहलाती है। दुर्भाग्यवश आज देश में ऊपर से नीचे तक जाने-अनजाने लगभग हर वर्ग, हर समाज और हर कार्यक्षेत्र के लोगों में कमोबेश यह मानसिक दासता मिल जाती है।
प्रश्न यह उठता है कि इस मानसिक गुलामी से मुक्ति का मार्ग क्या है ? किसी भी समस्या के सही कारणों की पहचान करने के बाद ही उसके समाधान का मार्ग प्रशस्त होता है। अतः सर्वप्रथम हमें यह समझना होगा कि आजादी के साढ़े सात दशक बीतने के बाद भी देश में मानसिक दासता क्यों बनी हुई है ? इस संबंध में एक कारण तो निस्संदेह यही है कि मुगलों से लेकर अंग्रेजों तक देश को एक दीर्घ कालखंड गुलामी में गुजारना पड़ा। इस गुलामी ने भारतवासियों के आत्मगौरव को बुरी तरह से कुचलने का काम किया। लेकिन समस्या ये है कि आजादी के बाद इस स्थिति में जिस तरह से बदलाव आना चाहिए था, वो नहीं आया।
आजाद भारत की कांग्रेसी सरकारों ने शासन का जो स्वरूप रखा और जिन नीतियों को आगे बढ़ाया उनमें विकास की दृष्टि भले रही हो, भारत के सांस्कृतिक गौरव को पुनर्जीवित करने का कोई प्रयास नहीं था। भारतीयता पर आधारित नीतियों की रचना करने के बजाए समाजवादी आर्थिक मॉडल अपना लिया गया। हिंदी राजभाषा तो बनी लेकिन साथ में अंग्रेजी भी दमखम के साथ बनी रही। वस्तुतः शासन के स्तर पर आम जनमानस को ऐसा कुछ नहीं दिखा जो उसके दबे-कुचले आत्मविश्वास को बल दे सके और उसके आत्मगौरव को जगा सके।
शासन की गलत नीतियों के कारण 1962 में चीन से मिली पराजय हो या 1975 का आपातकाल हो अथवा समाजवादी आर्थिक नीतियों के परिणामस्वरूप 1991 में देश का दिवालिया होने की कगार पर पहुँच सोना गिरवी रखना हो, इन सब घटनाओं ने देशवासियों के मन में हताशा और आत्महीनता की स्थिति को लगातार गहरा करने का ही काम किया।
संतोषजनक यह है कि 2014 में प्रचंड बहुमत से सत्तारूढ़ हुई मोदी सरकार के शासन में एक सकारात्मक और आशापूर्ण वातावरण बना है। प्रधानमंत्री मोदी लगातार अपने भाषणों और निर्णयों से देशवासियों के भीतर गौरवबोध जगाने का प्रयास करते रहते हैं, जिसका असर भी होता दिख रहा है।
देश को यदि मानसिक दासता की व्याधि से पूरी तरह से मुक्ति पानी है, तो सबसे पहले अपने ‘स्व’ को जगाने के लिए काम करना होगा। स्वभाषा और स्वदेशी का विकास इसकी पहली कड़ी है। वास्तव में, सनातन संस्कृति अपने मूल रूप में वैज्ञानिक चेतना से परिपूर्ण रही है, लेकिन उसकी संतान हम भारतीय विज्ञान के मामले में विश्व में इसलिए पीछे रह गए क्योंकि यह शिक्षा हमें स्वभाषा में उपलब्ध ही नहीं हुई।
सुखद है कि एआईसीटीई द्वारा हाल में 12 भारतीय भाषाओं में अभियांत्रिकी की पढ़ाई के लिए कुछ कदम उठाए गए हैं। हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाओं का विकास न केवल सांस्कृतिक तौर पर देश को सुदृढ़ करेगा अपितु देशवासियों में व्याप्त अंग्रेजी के मोह को समाप्त करने में भी सहायक सिद्ध होगा। अंग्रेजी के मोह से एकबार देशवासी मुक्त हो गए तो फिर मानसिक दासता के अन्य आयामों से मुक्ति पाने में भी उन्हें समय नहीं लगेगा।
यह सच है कि स्वदेशी के विकास की दिशा में मोदी सरकार ने विशेष ध्यान दिया है। मेक इन इंडिया से लेकर आत्मनिर्भर भारत अभियान तक प्रधानमंत्री मोदी ने स्वदेशी के विकास में स्वयं अभिरुचि दिखाई है। लगातार अपने भाषणों में वे स्वदेशी अपनाने एवं ‘वोकल फॉर लोकल’ के लिए देशवासियों का आह्वान भी करते रहते हैं। स्वदेशी के विकास से आत्मनिर्भरता के लक्ष्य की प्राप्ति राष्ट्रीय आत्मविश्वास को बल देने वाली होगी। कोरोना काल में भारत के स्वदेशी टीके की दुनिया भर में हुई मांग ने हमें स्वदेशी की शक्ति का कुछ-कुछ आभास दे ही दिया है।
स्वभाषा और स्वदेशी के अलावा देश के इतिहास-बोध को ठीक करने की भी आवश्यकता है। भारत का इतिहास कुछ हजार सालों का नहीं है, अपितु बहुत प्राचीन है। भारत के वैभवशाली अतीत को दर्शाने वाले हमारे प्राचीन ग्रंथों को मिथकीकरण के छल से बाहर निकालकर इनमें मौजूद राजनीति, समाज, अर्थव्यवस्था, विज्ञान आदि विविध विषयों से सम्बंधित विपुल सामग्री को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाकर छात्रों तक पहुंचाने का प्रयास होना चाहिए। इन ग्रंथों में मौजूद उच्च जीवन-मूल्यों का सन्देश भी देश के लोगों तक पहुंचाने की व्यवस्था होनी चाहिए। अच्छी बात यह है कि यूजीसी द्वारा उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रमों में इन सब विषयों को सम्मिलित करने के लिए लगातार प्रयास किए जा रहे हैं।
इसी क्रम में अतीत गौरव को बुरा मानने वाली वामपंथी सोच को नकारने की भी आवश्यकता है, क्योंकि अतीत पर गौरव वही करते हैं, जिनका अतीत उस योग्य होता है। भारत का अतीत गौरवशाली है, इसलिए हमें उसे जानने-समझने और उसपर गर्व करने का पूरा अधिकार है। हमारे छात्र जब देश के प्राचीन ग्रंथों से गुजरेंगे तो न केवल भारतीय संस्कृति को लेकर उनकी भ्रांतियों का निर्मूलन होगा अपितु वे इसकी महानता से भी परिचित होंगे। समग्रतः कहने का आशय यह है कि भारत अपनी जड़ों से जितना अधिक जुड़ेगा, उतना ही उसमें आत्मगौरव और आत्मविश्वास की भावना का विकास होगा तथा मानसिक दासता से मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त होगा।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)