विदेश नीति से सम्बंधित मामलों में नेहरू ने ऐसे कई अदूरदर्शी फैसले किए जो आज भारत के गले की फांस बन चुके हैं। दरअसल आजादी के बाद मुक्तिदाता बनकर उभरे जवाहर लाल नेहरू ने हर मोर्चे पर मनमानी की। नेहरू ने विदेश विभाग अपने पास रखा था इसलिए विदेशी मामलों में उनकी अदूरदर्शी नीतियों की खामी निकालने वाला कोई था ही नहीं।
पूर्वी लद्दाख में भारतीय और चीनी सैनिकों में हुई हिंसक झड़प के क्या नतीजे निकलेंगे यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा लेकिन अतीत में झांके तो स्पष्ट हो जाएगा कि भारत-चीन सीमा विवाद पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की देन है। पंचशील समझौते के नाम पर नेहरू ने तिब्बत को चीन का हिस्सा मान लिया। बाद में 1962 में इसी तिब्बत से भारत की सीमा में प्रवेश कर चीन ने भारत पर हमला किया।
विदेश नीति से सम्बंधित मामलों में नेहरू ने ऐसे कई अदूरदर्शी फैसले किए जो आज भारत के गले की फांस बन चुके हैं। दरअसल आजादी के बाद मुक्तिदाता बनकर उभरे जवाहर लाल नेहरू ने हर मोर्चे पर मनमानी की। नेहरू ने विदेश विभाग अपने पास रखा था इसलिए विदेशी मामलों में उनकी अदूरदर्शी नीतियों की खामी निकालने वाला कोई था ही नहीं।
सरदार वल्लभ भाई पटेल उप प्रधानमंत्री होने के नाते कैबिनेट की विदेश मामलों से संबंधित बैठकों में शामिल होते रहते थे। इन बैठकों से पटेल समझ गए थे कि आज नहीं तो कल चीन हमारे लिए समस्या पैदा करेगा। 1950 में नेहरू को लिखे अपने पत्र में उन्होंने चीन तथा उसकी तिब्बत नीति से सावधान रहने को कहा था।
पटेल ने एक बार चीन को भावी शत्रु तक कह दिया था लेकिन दुनिया से शांतिदूत का तमगा पाने की लालसा पालने वाले नेहरू ने इन खतरों की ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया। इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री के रूप में नेहरू ने पड़ोसी देशों के साथ कई ऐसे समझौते किए और ख़ास अवसरों पर कई ऐसे निर्णय लिए जो देश के लिए आत्मघाती साबित हुए। एक-दो नहीं इसके अनेक उदाहरण मौजूद हैं।
कश्मीर विवाद – कश्मीर विवाद तो नेहरू के सरासर जिद्दीपन की ही देन है। पाकिस्तानी सेना ने कबाइलियों के रूप में 22 अक्टूबर 1947 को कश्मीर पर हमला बोला। कश्मीर सरकार के बार-बार आग्रह के बावजूद नेहरू तब तक कश्मीर को पाकिस्तान से बचाने के लिए आगे नहीं आए जब तक कि विलय समझौते पर हस्ताक्षर नहीं हो गए।
27 अक्टूबर को हवाई जहाज द्वारा श्रीनगर भेजी गई भारतीय सेना ने अभूतपूर्व पराक्रम का परिचय देते हुए कबाइलियों को खदेड़ दिया। सात नवंबर 1947 को बारामुला को कबाइलियों से खाली करा लिया गया लेकिन उसके बाद शेख अब्दुल्ला की सलाह पर नेहरू ने युद्ध विराम घोषित कर दिया।
दुनिया में यह एकलौता उदाहरण है जहां जीतती हुई सेना को युद्ध विराम के कारण पीछे लौटना पड़ा। नेहरू की उसी हिमालयी भूल का नतीजा है कि आज मुजफ्फराबाद, पुंछ, मीरपुर, गिलगित आदि क्षेत्र पाकिस्तान के पास हैं।
कोको द्वीप – जवाहर लाल नेहरू ने 1950 में बंगाल की खाड़ी में स्थित कोको द्वीप समूह को एक प्रकार से म्यांमार को उपहार में दे दिया। बाद में म्यांमार ने इस द्वीप समूह को चीन को पट्टे पर दे दिया जहां आज चीन अपना नौसैनिक बेस बनाकर भारत की हर गतिविधि पर नजर बनाए रखता है।
काबू वैली – कश्मीर घाटी की तरह मणिपुर में खूबसूरत काबू वैली है जिसे नेहरू ने 13 जनवरी 1954 में म्यांमार को उपहार में दे दिया। अब इसके कुछ हिस्से पर भी चीन ने नियंत्रण जमा लिया है और वहाँ से भारत के खिलाफ सामरिक रूप से मजबूत स्थिति में है।
सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता – भारत के लोकतंत्र, उसकी विविधता आदि को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता की पेशकश की गई लेकिन नेहरू ने सदाशयता दिखाते हुए भारत की जगह चीन को सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता दिलाने का प्रस्ताव रख दिया और भारत को यह सदस्यता नहीं मिलने दी। इसका कितना नुकसान भारत को उठाना पड़ रहा, ये कहने की जरूरत नहीं।
भारत व नेपाल का एकीकरण – एक जानकारी यह भी सामने आती है कि 1950-51 में नेपाल के तत्कालीन राजा त्रिभुवन विक्रम शाह ने नेपाल का भारत में विलय कर लेने का प्रस्ताव रखा जिसे नेहरू ने अस्वीकार दिया।
ग्वादर लेने से इंकार – 1950 के दशक में ओमान के शासक ने ग्वादर बंदरगाह का मालिकाना हक भारत को देने की पेशकश की तो नेहरू ने अदूरदर्शिता का परिचय देते हुए बंदरगाह का स्वामित्व लेने से इनकार कर दिया। इसके बाद 1958 में ओमान ने ग्वादर बंदरगाह को पाकिस्तान को सौंपा। यदि उस समय नेहरू ग्वादर के दूरगामी महत्व को समझकर उसका विलय भारत में कर लेते तो न सिर्फ मध्य एशिया में पहुंच के लिए भारत के पास एक अहम बंदरगाह होता बल्कि चीन ग्वादर तक पहुंचकर हमें धमका न पाता।
1962 का युद्ध – सन 1962 के चीन युद्ध के समय नेहरू ने वायुसेना के प्लान के अनुसार युद्ध रणनीति नहीं बनाई और न ही वायुसेना को समय से थल सेना के साथ युद्ध में भाग लेने का अधिकार दिया। नतीजा भाररत को न सिर्फ हजारों सैनिकों की जान गवानी पड़ी बल्कि हम हजारों वर्ग किलोमीटर जमीन भी गंवा बैठे।
सिंधु जल समझौता – 1960 में भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तानी राष्ट्रपति अयूब खां के बीच सिंधु जल समझौता हुआ। इस समझौते में नेहरू ने मुस्लिम तुष्टिकरण और उदारवादी दिखने के लोभ में भारतीय हितों की बलि देते हुए 50/50 फार्मूले के बजाए 80 फीसदी पानी पाकिस्तान को देने संबंधी समझौते पर खुद कराची जाकर दस्तखत कर दिया।
समग्रत: स्पष्ट है कि नेहरू ने अपनी अदूरदर्शी नीतियों के द्वारा और विश्व शांति का नेता बनने के मोह में विदेशी मोर्चों पर देश को जो जख्म दिए हैं उन्हें भरने में बहुत समय लगेगा। इनमें से कई जख्म तो ऐसे हैं जिन्हें भारत चाहकर भी ठीक नहीं कर सकता।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)